Indori Pohe in Hindi Short Stories by Ratna Raidani books and stories PDF | इंदौरी पोहे

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इंदौरी पोहे


रजत ने फ्रिज खोलकर अंदर निगाहें घुमायी। ठूंस ठूंस कर भरे हुए फ्रिज में जहां कभी एक कटोरी भी रखने की जगह नहीं होती थी, वह आज वीरान सुनसान सड़क की तरह दिखाई दे रहा था। सिर्फ कुछ उबले हुए आलू रखे थे।


KIT (Kanpur Institute of Technology) से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण रजत को पूना में Tech Mahindra कम्पनी में जॉब मिल गयी थी। रजत अपनी जॉब की वजह से अक्सर बाहर दौरे पर ही रहता था। कुछ तथाकहित आधुनिक कहलाने वाले मित्रों की संगत में अब फैशन का पर्याय बन चुके शराब, मांसाहार और विवाहेतर संबंधों में आकंठ डूबे हुए रजत के पास न अपने परिवार तथा कानपुर में रह रहे माँ बाप के लिए समय था।


जया हमेशा से एक सुघड़ गृहणी रही है। १५ वर्षीय अर्नव तथा १३ वर्षीय अपूर्वा की पढ़ाई पर ध्यान देने से लेकर घर तथा बाहर के प्रत्येक कार्य में निपुण जया को न कभी रजत से और कानपुर में रह रहे सास ससुर से प्रशंसा के दो शब्द सुनने मिले।


अर्नव की १० वीं की परीक्षा जैसे ही समाप्त हुई, जया बच्चों को लेकर इंदौर अपने मायके के लिए रवाना हुयी। दो दिन बाद ही जनता कर्फ्यू और फिर पहला लॉक डाउन घोषित हुआ। पूना में सहायता के लिए एक नौकरानी रखी हुयी थी परन्तु इस महामारी के चलते अपार्टमेंट में किसी भी बाहरी व्यक्ति को आने की अनुमति नहीं थी।


जो जहाँ पर रुका है, वहाँ से आना संभव नहीं था। ज़िन्दगी मानो थम सी गयी थी घरों के अंदर। वर्क फ्रॉम होम के कारण सुबह जल्दी उठकर घर के सब काम निपटाना और खाना भी स्वयं बनाना, इन सबसे रजत परेशान हो रहा था। काम से ज्यादा वह अकेलेपन से झुंझला रहा था। न मित्रों की महफ़िल, न शराब - माँसाहार का दौर। किन्तु जब रात को वह बिस्तर पर जाता तब महिला मित्रों की बजाय जया और बच्चों की याद सताती जिन्हें वो इतने सालों से नज़रअंदाज़ करते आ रहा था। कभी कभी उसका मन अपराध बोध से भर जाता।


अपनी महत्वाकांक्षा और अहंकार के कारण वह अपने परिवार से बहुत दूर हो गया था। उसके पास परिवार के बारे में सोचने का, उनके साथ कुछ पल बिताने का न ही समय था और न ही चाहत। पर अब सोचने का भी समय था और साथ बिताने की इच्छा भी परन्तु अब परिवार साथ नहीं था। वह हर वक़्त यही सोचता रहता की जीने के लिए आवश्यकताएं कितनी कम होती है और विलासिताओं के लिए इंसान अपनी पूरी जवानी खपा देता है और बलिदान कर देता है पारिवारिक सुखों और नैतिक मूल्यों का।


जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही बेशक कोरोना का नकारात्मक पक्ष ज्यादा है, लेकिन उसकी सकारात्मकता को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। लोगों का नज़रिया और जीवन जीने के तरीके में जो बदलाव आया है वो एक सुखद अनुभूति दिलाता है। सोशल डिस्टैन्सिंग ने हमें अनावश्यक सामाजिकता से दूर करके आवश्यक पारिवारिक समीपता का सबक सिखाया है। रजत अब अपने परिवार के वापस लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था और उनके साथ समय बिताने की दृढ़ प्रतिज्ञा भी कर ली।


इन दिनों वह हर दूसरे दिन इंदौर और कानपुर वीडियो कॉल से बात करने लगा। बच्चों ने सबको ऑनलाइन गेम्स खेलना भी सिखा दिया। दादा दादी, बच्चे, जया और रजत सब आपस में ऐसे बातें करते कि लगता ही नहीं कि सब अलग अलग रह रहे हैं। दूरियों ने एक दूसरे की अहमियत का एहसास दिला दिया। अब मन में नज़दीकियां बढ़ने लगी और एक दूसरे की कमी भी खलने लगी।

फ्रिज के सामने खड़े होकर रजत सोच रहा था कि आज क्या बनाऊं? फ्रिज में फल सब्जी सब खत्म हो गयी थी। जया को फ़ोन लगाकर पूछने में संकोच हो रहा था तो अम्मा को फ़ोन लगाया।


"अम्मा आज क्या बनाऊं? समझ नहीं आ रहा।"


अम्मा ने हँसते हुए कहा, "भला हो इस लॉक डाउन का। मेरा इंजीनियर बेटा अब मास्टर शेफ बन गया।"


रजत ने कहा, "अम्मा, मज़ाक छोड़ो। बहुत भूख लगी है। सिर्फ उबले आलू रखे हैं फ्रिज में।"


अम्मा - "आलू के पोहे बना लो। इंदौरी सेव डालकर खा लेना। तुम्हें तो बहुत पसंद है।


रजत - "हाँ जया होती तो अभी बनाकर खिला देती।"


अम्मा - "तुम्हें याद है जब हम जया को देखने गए थे और तुम्हारे ससुराल वालों ने कितनी मनुहार से तुम्हें खिलाया था।" दोनों कुछ देर खिलखिला कर हंसने लगे।


रजत उन दिनों की याद में खो गया। बाहर खाने की लत में घर के खाने का स्वाद ही भूल चुका था किन्तु आज वो पोहा खाकर उसे लगा की दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े रेस्टॉरेंट के खाने में वह स्वाद नहीं जो घर के खाने में हैं। इंदौरी पोहे ने फिर से एक बार अपना जादू चला दिया।