Chand ke paar ek Chabi - 3 in Hindi Moral Stories by Avadhesh Preet books and stories PDF | चाँद के पार एक चाबी - 3

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चाँद के पार एक चाबी - 3

चांद के पार एक कहानी

अवधेश प्रीत

3

वह हाई स्कूल, जहां से पिन्टू कुमार ने मैट्रिक किया था और अब वह उत्क्रमित होकर इंटर हो गया था, इसी नेशनल हाईवे पर था, जिसके चारों ओर बाउंड्री बन गई थी और सामने एक बड़ा-सा गेट भी बन गया था, जिसके उफपर नीले रंग से स्कूल का नाम लिखा था- उत्क्रमित राजकीय उच्च मध्य विद्यालय, ढिबरी।

इस स्कूल के इंटरमीडिएट हो जाने की सूचना से पिन्टू कुमार के अंदर एक गहरी हूक उठी थी और आगे की पढ़ाई न कर पाने का मलाल हमेशा के लिए घर कर गया था। उसने इस अपफसोस को साझा करने के लिए मास्टर शिव प्रसाद की तलाश की, तो पता चला कि उनका तबादला हो गया है और वह समस्तीपुर चले गये हैं।

ये बेहद उदासियों और बेचैनियों से भरे दिन थे।

पिता की मौत के बाद मां को छोड़कर कहीं जाना संभव नहीं था और ढिबरी में रहकर बेकारी और हिकारत के बीच रहना मुश्किल था। लुध्यिाना से लेकर आया जमा-पूंजी ध्ीरे-ध्ीरे खत्म हो रही थी और संघर्ष के दिन नजदीक आते लग रहे थे। लेकिन कोई दो टूक पफैसला लेना भी संभव नहीं हो रहा था।

मुशहर टोली के हालात जस के तस थे। बच्चे दिन भर सूअरें चराते और खेतों में मूस ढूंढ़ते पिफरते। औरतें खेतों में मजदूरी करतीं और खाली वक्त में आपस में लड़ती-झगड़ती रहतीं। मर्द कच्ची पीकर निठल्ले पड़े रहते और कच्ची का जुगाड़ नहीं होने पर अपनी बीवियों से गाली-गलौज, मारा-पीटी करते।

इन सबके बीच पिन्टू कुमार का कलेजा कलपता। वह अगर किसी को समझाने की कोशिश करता तो दारू के नशे में पिनका कोई मर्द उसकी ऐसी-तैसी कर देता, ‘मुशहर पैदा हुए हैं, मुशहरे मरेंगे। पढ़-लिख के कोई बाभन ना बन जायेगा।’

पहलीबार यह बात दिल को लगी तो जरूर थी, लेकिन ध्ीरे-ध्ीरे उसे भी अहसास होने लगा था, कि वह मुशहर ही पैदा हुआ है और मुशहर ही मरेगा।

यह रोज का जीना था, रोज का मरना।

वह रोज सोचता, ढिबरी बाजार में मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान खोले और रोज यह पफैसला दम तोड़ देता।

आखिरकार, उसने एक दिन बहुत साहस जुटाकर डिबरी बाजार में एक-छोटी-सी दुकान लेने की पहल की। ढिबरी बाजार में उस खाली दुकान के मालिक थे विशंभर मिश्रा। छूटते ही आग बबूला हो गये, ‘मुशहर स्साला, तोरा दिमाग खराब हो गया है क्या, रे? अब हमरी बराबरी में बिजनेस करेगा तू? एतना जूता मोरेंगे कि ढिबरी बाजार भुला जायेगा।’

उस अपमान के बाद कई दिनों तक पिन्टू को ढिबरी बाजार जाने की हिम्मत नहीं हुई। पड़े-पड़े वह दिन रात बस यही सोचता-मां मरे, चाहे जिये, वह लुध्यिाना लौट जायेगा। इस जिल्लत से तो बेहतर है, वह कहीं बाहर चला जाये, जहां कम से कम अपनी जाति तो छुपा ही सकता है। लेकिन यह छुपा-छुपाई क्यों? यह सवाल उसका मन मथने लगता और पिफर उसका निर्णय कमजोर पड़ने लगता। उसे जैसे ही लगता कि वह भागना चाहता है, उसके अंदर से कोई पूछता, ‘अपने घर-गांव के बीच वह क्यों नहीं रह सकता?’

पिन्टू को इस सवाल का तोड़ चाहिए था।

तोड़ थे दिगंबर मिश्रा। ढिबरी पंचायत के मुखिया और विशंभर मिश्रा के गोतिया। दोनों में छत्तीस का रिश्ता था। मुखियागिरी हथियाने के लिए विशंभर मिश्रा हमेशा भितरघात में लगे रहते और मुखियागिरी बचाने के लिए दिगंबर मिश्रा हमेशा कमान कसे रहते। दिगंबर मिश्रा का थाना-पुलिस, बीडीओ, सीओे सबके साथ जुगाड़ सेट था और इकबाल बुलंद । उनकी ढिबरी पंचायत में तूती बोलती थी, जिसकी काट उनके गोतिया विशंभर मिश्रा अभी तक नहीं निकाल पाये थे।

विशंभर मिश्रा से चोट खाया पिन्टू कई दिनों तक आगा-पीछा सोचने के बाद किसी अंतःप्रेरणा के वशीभूत एक दिन सीध्े दिगंबर मिश्रा की दुआर पर जा पहुंचा। सिर झुकाकर प्रणाम किया और चुपचाप गेट की ओट थामकर खड़ा हो गया।

दिगंबर मिश्रा झकझक कुर्ता-धेती पहने सीओ आॅपिफस जाने के लिए निकल रहे थे। पिन्टू पर नजर पड़ते ही कड़ककर पूछे, ‘क्या है, रे पिन्टुआ, काहे गेट थामे खड़ा है?’

‘हम ढिबरी बाजार में मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान खोलना चाह रहे हैं। लेकिन कोई जगह नहीं दे रहा है?’ बगैर किसी लाग-लपेट के पिन्टू ने आने का मकसद बता दिया।

‘सुने तो थे कि विशंभर मिश्रा तोरा दुकान देवे से मना कर दिये हैं।’ दिगंबर मिश्रा मुस्कराये। इस मुस्कुराहट में ‘सब खबर’ रखने का दर्प चुगली खा रहा था।

‘जी!’ पिन्टू पफुसपफुसाया।

‘तब?’ दिगंबर मिश्रा की आंखें पिन्टू के चेहरे पर आकर टिक गईं।

‘जी, आप गांव के मालिक हैं । कुछ उपाय कर देते, तो जीने-खाने का सहारा हो जाता।’ पिन्टू याचना की हद तक दोहरा हो आया था। उसे अहसास तक नहीं हुआ कि उसकी पीठ में रीढ़ भी है।

दिगंबर मिश्रा कुछ हड़बड़ी में दिखे। शायद उन्हें देर हो रही थी। वह गेट की दीवार से लगी खड़ी मोटरसाइकिल पर बैठते हुए बोले, ‘दुआर पर आये हो तो कुछ सोचना पड़ेगा। सांझी को मिलो तो बात करते हैं।’

पिन्टू के मन के किसी कोने में आस जगी। दिगंबर मिश्रा की मोटरसाइकिल ध्ुआं उगलते हुए आगे बढ़ गई और वह देर तक उस ध्ुएं का तीखापन पफेपफडों में महसूस करता रहा।

उस शाम दिगंबर मिश्रा ने सापफ-सापफ कहा,‘देख पिन्टुआ, ढिबरी बाजार में तोरा कोई दुकान देवे वाला ना है। दुकान तो हमरो खाली है। लेकिन हमू समाज से अलग तो जा नहीं सकते हैं। इसलिए तोरा मदद करना बड़ा मुश्किल बुझाता है।’

पिन्टू का दिल बैठ गया। वह सिर झुकाये-झुकाये बोला, ‘तब हम चले जाते हैं लुध्यिाना। वहीं मर-खप जायेंगे।’

क्षणभर को चुप्पी बनी रही, पिफर दिगंबर मिश्रा खैनी थूककर उसकी ओर मुखातिब हुए, ‘एक उपाय है। स्कूल के कोना में खाली जगह है। वहीं एक ठो गुमटी डाल ले।’

‘ले...ले... लेकिन कोई मना किया तो?’ उसने आशंका जताई।

‘किसका मजाल है, रे जो मना करेगा? दिगंबर मिश्रा का दिन इतना खराब ना हुआ है।’ एकबारगी गरज पड़े दिगंबर मिश्रा, गोया उनका अहं तड़प उठा हो।

पिन्टू सकते में खड़ा रहा। दिगंबर मिश्रा बोलते रहे, ‘एक बात कान खोल के सुन ले, पिन्टुआ, गुमटी का सौ रुपया महीना देना पड़ेगा।’

‘जी!’ बड़ी मुश्किल से बोल पाया पिन्टू।

उस शाम घर लौटते हुए पिन्टू के पांव बोझिल थे। लेकिन मन हल्का हो चुका था। उसने उस दिन जहर से जहर काटने का गुर सीख लिया था।

जिस दिन पिन्टू ने उत्क्रमित राजकीय उच्च मध्य विद्यालय की बाउंड्री के कोने में अपनी गुमटी रखी, उस दिन विद्यालय के छात्रों का कौतुहल से भरा हुजूम इर्द-गिर्द जमा हो गया था। सामान जमाते,काउंटर संभालते-संभालते ढिबरी बाजार में आश्चर्यजनक रूप से हलचल बढ़ गई थी। इन हलचलों के बीच ही पिन्टू ने गुमटी के उफपर साइन बोर्ड टांगा-पिन्टू मोबाइल रिपेयरिंग सेंटर। इसके ठीक नीचे लिखा था-यहां हर प्रकार के मोबाइल की उचित मूल्य पर रिपेयरिंग की जाती है।

विद्यालय के छात्रों ने साइनबोर्ड पढ़कर तालियां बजाईं। अचानक एक लड़का उत्साह से भरा करीब आया और पिन्टू को अपना मोबाइल दिखाते हुए बोला, ‘देख तो रे, इसका ‘पी’ वाला बटन काहे नहीं काम करता है?’

पिन्टू ने उस लड़के के मोबाइल को खोला । झाड़-पफूंक किया । पिफर थोड़ी देर तक अपनी कारीगरी में लगा रहा। जब उसने मोबाइल उस लड़के को लौटाया और लड़के ने की पैड दबाकर जांच लिया कि ‘पी’ ठीक से काम करने लगा है, तो उसकी आंखें पफट पड़ीं । उस लड़के के मुंह से बेसाख्ता निकला, ‘अर्रे, ई तो कमाल हो गया, रे!’

उस लड़के के चेहरे पर हैरानी और खुशी के भाव थे। वह उसी रोमांच से भरा अपने साथियों को मोबाइल दिखाते हुए बोला,‘ देख न रे,देख सांचो बना दिया है।’

लड़के ने इस कमाल से चमत्कृत हो पूछा,‘कितना पैसा हुआ?’

पिन्टू मुस्कराया। बोला, ‘पहला कस्टमर हैंे इसलिए प्रफी।’

इतना सुनते ही लड़कों ने जोश में तालियां बजाईं, जिसकी अनुगंूज ढिबरी बाजार में दूर तक सुनी गई।

गोपाल पांडे का शास्त्रा-ज्ञान और दिन का सपना

पूरे ढिबरी बाजार में मोबाइल रिपेयरिंग की पिन्टू की दुकान इकलौती थी, जबकि ढिबरी ही क्या, आसपास के दसों गांवोें में मोबाइल रखनेवालों की अच्छी खासी तादाद थी। गरज कहिए या विकल्पहीनता,झिझकते-झिझकते ग्राहक आने लगे। पिन्टू कुमार व्यस्त रहने लगा। हाथ में हुनर था, व्यवहार में शालीनता, इसलिए उसके सामने तत्काल कोई समस्या नहीं आई । छोटी-मोटी मुश्किलें जरूर आतीं, जिन्हें वह अपने तरीके से हल करना सीख गया था। ऐसी ही एक मुश्किल तब आई, जब ढिबरी के रमेश पांडे अपना मोबाइल बनवाने आये और बन जाने पर पैसों को लेकर बकझक करने लगे । इसी क्रम में उन्होंने पिन्टू को औकात बताने की कोशिश की, ‘स्साला मुशहर, तोर दिमाग ढेर चढ़ गया है, क्या रे?’

पिन्टू मुस्कराया और पूरे ध्ैर्य से रमेश पांडे को जवाब दिया, ‘हम तो मुशहर हैं, बाबा । मुशहर ही रहेंगे। लेकिन आप कौन बाभन का ध्रम निभा रहे हैं?’

‘अब तू हमको ध्रम-करम सिखायेगा?’ रमेश पांडे टेंटियाये, ‘तू सिखायेगा ध्रम?’

‘रजकुमारिया पासिन को एक से एक लभ मैसेज भेजते हैं, तब ध्रम-करम नहीं सोचते हैं?’ पिन्टू ने सीध्े रमेश पांडे की कमजोर नस दबा दी थी ।

रमेश पांडे का तो चेहरा ही पफक पड़ गया। एकबारगी बोलती बंद हो गई। लगा गला जाम हो गया हो। बड़ी मुश्किल से थूक घोंट कर मिमियाये, ‘तू... तू... तू क्या बोल रहा है पफालतू बात?’

‘रजकुमरिया का मोबाइल हमी बनाये हैं, बाबा।’ सकते में पड़े रमेश पांडे को पिन्टू ने थोड़ा और झटका दिया, ‘एक से एक मस्त मेसेज भेजते हैं। है न ,बाबा?’

उस दिन रमेश पांडे, पिन्टू के आगे घिघियाये सो घिघियाये ही, उसे अपना राजदार बनाने के लिए भी विवश हो गये। उस दिन के बाद तो उनका पिन्टू की दुकान पर आना-जाना ही नहीं बढ़ गया, ध्ीरे-ध्ीरे हंसी-मजाक का भी दोस्ताना हो गया।

रमेश पांडे इंटर पफेल करने के बाद अपने पिता के साथ पुरोहिताई का काम करने लगे थे। जजमानों के यहां जब पूजा-पाठ कराने जाते तो धेती-कुर्ता और गमछा पहनते, नहीं तो बाकी दिनों में जींस, टी-शर्ट पहने हीरो बने पिफरते1 उन्हें जितने श्लोक नहीं याद थे, उससे ज्यादा पिफल्मी गाने याद थे और वह पिंटू की दुकान पर बैठे-बैठे रामचरित मानस की चैपाइयों को पिफल्मी ध्ुन में तब्दीलकर इस कदर भव-विभोर हो सुनाते कि स्कूल आने-जाने वाले लड़के जानबूझकर रुकते और भक्ति-भाव से उनकी भगवद-कथा का रसास्वादन करते1

रमेश पांडे मूड में आते तो एक से एक मौलिक चैपाइयां भी सुनाते। उनकी विरचित एक चैपाई इन दिनों कापफी मशहूर हो रही थी-सिया लिन्हीं सिर पर संदूका। राम लिए कर में बंदूका। आगे चल रिक्शा किन्हा। उतर गये पैसा नहीं दीन्हा।

कुल मिलाकर रमेश पांडे की पिन्टू की दुकान पर स्थाई अड्डेबाजी होने लगी थी1 ध्ीरे-ध्ीरे पिन्टू को भी यह विश्वास होने लगा था कि रमेश पांडे के लखेड़ेपन में एक तरह का विद्रोह है। वह ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बावजूद, अपनी ही तरह से परंपरा-भंजक भी हैं। यही वजह थी कि घर-समाज के बरजने के बावजूद उन्होंने पिन्टू की दुकान पर उठना-बैठना बंद नहीं किया। जिस दिन वह नहीं आते खुद पिन्टू को खाली-खाली-सा लगता।

ऐसे ही एक खालीपन वाले दिन, जबकि रमेश पांडे किसी जजमान के यहां संकल्प कराने गये थे, तारा कुमारी का पिन्टू की दुकान पर आना हुआ।

पिन्टू उस वक्त ‘चुनी हुई शायरी’ पढ़ रहा था। तारा कुमारी को सामने देखकर हड़बड़ाया और किताब काउंटर पर रखकर खड़ा हो गया। तारा कुमारी ने एक निगाह ‘चुनी हुई शायरी’ पर डाली और दूसरी निगाह पिन्टू पर। पिफर अपना मोबाइल काउंटर पर रखकर बोली, ‘देखिए तो क्या गड़बड़ी है?’

‘गड़बड़ी तो आप न बताइएगा !’ पिन्टू ने तारा कुमारी को भर आंख देखा।

‘हमी बताएंगे तो आप कौन बात के मेकेनिक हैं!’

ताराकुमारी की टनक आवाज और अंदाज से तो पिन्टू लाजवाब होकर रह गया। गुदगुदी भरे मन के साथ काउंटर पर रखा ताराकुमारी का मोबाइल उठाया और ‘की बटन’ दबा कर देखा। मेन्यू चेक किया। पिफर तारा कुमारी से मुखातिब हुआ, ‘सब तो ठीक है।’

‘उध्र से आवाज आती है। हमारी आवाज दूसरे को सुनाई नहीं पड़ती।’ तारा कुमारी ने पिन्टू के ज्ञान को चुनौती दी।

*****