Urvashi - 16 in Hindi Moral Stories by Jyotsana Kapil books and stories PDF | उर्वशी - 16

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उर्वशी - 16

उर्वशी

ज्योत्स्ना ‘ कपिल ‘

16

दिल्ली एयरपोर्ट से कार में बैठकर वह लोग आगरा चल दिये। अब बस थोड़ी देर का साथ बाकी था। शिखर बहुत व्याकुल थे, पर कुछ कर नहीं सकते थे। उनके वश में होता तो कभी उसे जाने नहीं देते। वह खामोश थी, क्या कहे ? कहने का न माहौल था, न परिस्थिति, न कोई अधिकार। जीवन एक प्रश्नचिन्ह बनकर सामने था।

" उर्वशी, हम फिर पूछ रहे हैं, कि अब क्या करेंगी आप ?"

" पता नहीं।"

" आप क्यों जिद पर अड़ी हैं ? हम आपको परेशान नही देख सकते। हम आपके लिए कुछ करना चाहते हैं। "

" प्लीज़, फ़ॉर गॉड सेक ….."

" अच्छा एक बात कहें ?"

" जी "

" एक रिक्वेस्ट है, अभिनय को छोड़कर कुछ और कर लेना। बस हमारा इतना मान रख लेना। "

" आप मेरा जीवन छीनकर मुझे साँसें लेने की सज़ा दे रहे हैं। " उसने शिकायत की। जवाब में उन्होंने कुछ नहीं कहा और दूसरी ओर देखने लगे। फिर सारे रास्ते चुप्पी छाई रही।

उसके घर के आगे गाड़ी रुकी और वह दोनो अंदर गए तो उन्हें देखकर मम्मी पापा दोनो चौंक गए। इस तरह अचानक, बिना खबर दिए ! ऐसे कैसे आ गए !

" अरे बेटा, यूँ अचानक यहाँ कैसे ? " पापा ने सवाल किया।

" पापा, साँस तो लेने दीजिये, तसल्ली से सब बता दूँगी। " उसने सवाल को टालते हुए कहा।

" चार दिन से तुम्हारी कोई खबर नहीं है, हम लोग कितना परेशान हो रहे थे। तुम्हे फोन किया तो उठा नहीं।"

" बस नहीं कर पाई, किसी वजह से। ये छोड़िए, आप बताइए कि आप सब कैसे हैं ?"

" हाँ हम ठीक हैं। पर तुम तो चार पाँच दिन बाद वापस लौटने वाले थे । फिर आज …"

" ओहो पापा, सोचा आपको सरप्राइज दूँ, पर आपको शायद मेरा आना पसन्द नहीं आया। " वह रूठते हुए बोली।

" कैसी बातें कर रही है, पागल, तेरा आना हमें क्यों बुरा लगेगा।" इस बार मम्मी बोलीं। फिर किसी ने इस विषय मे कोई प्रश्न नहीं किया। सब शिखर की मेहमान नवाज़ी में लग गए। थोड़ी देर रुक कर वह वापस चलने को खड़े हो गए । दरवाजे तक गए फिर पलटकर बोले

" उर्वशी, कल आपको जो पैकेट दिया था, प्लीज़ वो दे दीजिए । "

" कौन …" वह कहते कहते रुक गई और उन्हें साथ आने का इशारा करके अपने कमरे की ओर चल दी।

कमरे में आकर उसने दृष्टि उठाकर देखा तो वह बहुत विह्वल दिखे। उसकी भी आँखें भर आयीं।

" अपना ख्याल रखना, कोई ज़रूरत हो तो ज़रा भी संकोच मत करना। " उन्होंने क्रेडिट कार्ड निकाला " प्लीज़ इसे रख लीजिये। "

" आप क्यों बार बार …" उसने उलाहना दिया तो उन्होंने कार्ड वापस अपने वॉलेट में डाल लिया।

इसके बाद उन्होंने विदा माँगी तो उसे महसूस हुआ मानो कंठ में कुछ अटक सा गया है। उन्होंने उसके हाथ थाम लिये, कुछ पल उसे देखते रहे, फिर पलटकर चल दिये। उनकी गाड़ी चली जाने के बाद सब अंदर आ गए।

" मैं वापस आ गई हूँ, हमेशा के लिए। " उसने आहिस्ता से विस्फोट सा किया ।

" क्या ? हुआ क्या ?" पापा ने हैरानी से पूछा।

जवाब में उसने अब तक की सारी घटना बता दी। सुनकर मम्मी सिर थामकर बैठ गईं और पापा तनाव में आ गए ।

" इतनी ओछी बातें ! तूने शिखर के सामने यह सब क्यों नहीं बताया ? हम उनसे सवाल करते, क्या इसलिए वो हमारी बेटी को माँगकर ले गए थे।" पापा ने उसे गले से लगा लिया।

" इसमे उनका क्या दोष ?" शिखर के नाम से वह आहत हो गई " पूरे परिवार का व्यवहार बहुत अच्छा है। कभी किसी ने कोई गलत बात नहीं की। शौर्य की गलती के लिए आप किसी और को दोषी कैसे ठहरा सकते हैं पापा ?"

" पर हमने तुम्हें उस घर मे शिखर के व्यवहार को ही देख परखकर भेजा था। वही तुम्हारा हाथ माँगने आये थे। तो जिम्मेदारी भी उनकी ही बनती है। हमें उनसे प्रश्न करने का अधिकार है। "

" वो अपनी जिम्मेदारी से कब पीछे हटे हैं ? बल्कि उन्होंने तो प्रस्ताव रखा है कि अगर मैं वापस जाऊं तो वह एक अलग पोर्शन मुझे देंगे। या उनकी कम्पनी जॉइन कर लूँ। वो मुझे प्रॉपर्टी में से मेरा शेयर बखुशी देने को तैयार हैं। "

" पर भाई से क्यों नहीं कुछ कहा उन्होंने ?"

" ये आप कैसे कह सकते हैं पापा ? जब मैने ही फैसला कर लिया कि अब मैं उस घर मे नहीं रहूँगी तो वह क्या करते ? "

" रिश्ते ऐसे नहीं तोड़े जाते बेटा, थोड़ी बहुत ऊँचनीच तो हर रिश्ते में चलती है। ये गुड्डे गुड़िया का ब्याह नहीं कि जब चाहे रूठकर अपने अपने घर चल दिये। " मम्मी ने उसे समझाने का प्रयास किया।

" आपका मतलब है कि मुझे अपना अपमान भूलकर वहीं रहना चाहिए था ?" वह आवेश में आ गई।

" स्त्री को बहुत कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है बेटा। "

" आप भी हद कर रही हैं मम्मा, इतनी बड़ी बात सुनकर भी मैं बर्दाश्त कर लेती ? उस व्यक्ति ने तो मुझे इंसान न मानकर एक वस्तु बना दिया। "

" हो जाता है, कई बार व्यक्ति बिना सोचे समझे कुछ भी बोल जाता है। उसे एक बार मौका …."

" मम्मी, अगर आपको मेरा यहाँ आना बुरा लग रहा है तो फिक्र मत करिए, सारी उम्र आप पर बोझ बनकर नहीं रहूँगी। जल्दी अपना कोई इंतजाम कर लूँगी। "

" पागल हो गई हो क्या ? गाय को कभी अपने सींग भारी नहीं होते। ये तुम्हारा घर है, पूरे अधिकार से रहो। " पापा ने उसे गले से लगा लिया। मम्मी खामोश रह गईं।

रात में उमंग का फोन आया, उसे मम्मी पापा ने सब कुछ बता दिया था। वह बहुत क्रोध में था और कह रहा था कि शौर्य पर एडल्ट्री व मानहानि का केस किया जाए।

" कोई ज़रूरत नहीं भैया, मुझे उस परिवार से अब कुछ नहीं चाहिए। हम उन पर कीचड़ उछालेंगे तो दाग हमारे दामन पर भी आयेंगे। "

" मतलब तू चाहती है कि हम खामोश बैठे रहें ? कुछ भी न करें ? उसने तेरा जीवन खराब किया है। उसे ऐसे कैसे छोड़ दें ?"

" मैं बस शांति चाहती हूँ भैया। शिखर जी मेरे फ़ेवर में सब कुछ करने को तैयार हैं, पर मुझे उनसे कुछ नहीं चाहिए। "

" तू मूर्ख है, इमोशनल फूल "

" आप फिक्र मत करिए, अपने एक्सपेंसेज़ के लिए मैं कुछ कर लूँगी, कोई जॉब या ... "

" शटअप, शर्म नहीं आती ऐसी बातें करते हुए। तेरे दो दो भाई ज़िंदा हैं अभी। हम सब तेरे साथ हैं। तुझे फिक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं।" उमंग ने बीच मे ही उसकी बात काट दी ।

" अब सारा मामला आप सबके सामने है। बस इतनी प्रार्थना है कि इस विषय को बार बार न उठाया जाए । मैं शांति से रहना चाहती हूँ। न हम उन लोगों से कोई बात करेंगे और न ही आपस मे डिसकस करेंगे।" उसकी बात सुनकर पलभर के लिए उमंग सोच में पड़ गया।

" सुन, एक काम कर, मैं तेरी टिकट करवा देता हूँ, तू मेरे पास लखनऊ आ जा। यहीं थियेटर कर लेना और किसी प्रोफेशनल कोर्स में एडमिशन ले लेना। " उमंग ने उसके सम्मुख यह प्रस्ताव रखा, जो उसे पसन्द आया।

यह प्रस्ताव सभी ने पसन्द किया। अगले दिन उमंग ने उसका टिकट बुक करवा दिया और सप्ताह भर बाद वह लखनऊ चल दी।

* * * * *

लखनऊ स्टेशन पर उमंग उसे लेने के लिए आया हुआ था। साथ मे उसका एक मित्र भी था, जिसका परिचय उसने नीलकांत त्रिपाठी के रूप में दिया। उसके ही घर के एक हिस्से में उमंग किराए पर रहता था। नीलकांत एक मल्टीनेशनल कम्पनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। उन दोनों की काफी अच्छी दोस्ती थी । इसलिए उर्वशी के आने की बात सुनकर वह भी अपनी गाड़ी लेकर उसे लेने आ गया था। स्वभाव से वह काफी हँसमुख था। घर पहुँचने तक के पूरे रास्ते हँसी मजाक करता और रियर व्यू मिरर से उर्वशी को देखता आया। जब भी उसकी दृष्टि शीशे पर पड़ी, नील उसे ही देख रहा था। उसे देखता पाकर वह झट से दूसरी ओर देखने लगता।

उस घर के ऊपरी हिस्से में एक कमरा,रसोई और बाथरूम उमंग के पास था। वहाँ उसकी ज़रूरत भर का सामान था। रसोई में इंडक्शन व कुछ बर्तन ही थे। उमंग का खाना पीना होटल में ही हो जाता था। उसके आने के कारण शाम को उनलोगों ने ज़रूरत का सामान खरीदा। जिसमें एक फोल्डिंग पलँग व कुछ राशन का सामान था। खरीदारी के बाद वह लोग एक फ़िल्म देखने चले गए। रात का भोजन रेस्तरां में ही किया। इन सभी स्थानों पर नीलकांत भी उनके साथ गया था। उर्वशी को वह युवक अच्छा लगा था।

यहाँ आने के बाद उसने सारा सामान व्यवस्थित किया और दैनिक कार्य समाप्त होने के पश्चात सोच विचार में पड़ गई। वह अब सम्भावनाएं टटोल रही थी कि वह क्या कर सकती है। स्नातकोत्तर हो चुका था, सोचने लगी कि रिसर्च कर ले। एक बार यह विचार भी आया कि मुंबई चली जाए और वहाँ के रंगमंच में अपनी पहचान बनाए। पर उसके लिए काफी समय चाहिए। मुम्बई में लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा। वहाँ रहने के लिए पैसा भी ठीकठाक चाहिए। अब वह विवाहिता है, घर वालों ने विवाह करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी। अब अगर वह उस घर मे नहीं रह पाई तो उनका क्या कुसूर ? अब वह अपना बोझ उनपर नहीं डाल सकती। किसी से मदद लेना नहीं चाहती। नौकरी मिलना इतना आसान नहीं, जब तक कि कोई व्यवसायिक पाठ्यक्रम न किया हो। फिर प्राइवेट जॉब का अर्थ है पूरा दिन नौकरी में खपा देना। उसके पास इतना समय ही कहाँ रहेगा कि वह अपने उस शौक को समय दे पाए।

उसकी सखियों ने सुझाव दिया कि वह शिखर से कहकर अपने लिए एक निश्चित रकम बंधवा ले, जिससे गुज़ारा हो सके और फिर निश्चिंत होकर कला साधना करे। अपने ही अधिकार को लेने में संकोच कैसा ? कभी कभी शिखर के फोन भी आ जाते थे। वह सदैव उसकी आवश्यकताओं को लेकर प्रश्न करते। वह चिंतित थे कि वह उनसे कुछ स्वीकार नहीं करती। भाई से भी उसे कुछ लेने में संकोच होने लगा था। हमेशा यही लगता कि अब उसका अधिकार समाप्त हो गया। हर कोई कह रहा था कि वह मूर्खता कर रही है, पर यह उसने अपने मान अपमान का प्रश्न बना लिया था। उसे शौर्य के शब्द अब भी ख़ंजर की तरह चुभ रहे थे। उन बातों को याद करके वह तिलमिला उठती । उसका जी चाहता कि जीवन मे से उस समय को खरोंच कर मिटा दे जो समय उसने शौर्य को दिया । काश कोई ऐसी दवा होती जो उसकी स्मृतियाँ ही मिटा देती।

क्रमशः