Mahamaya - 34 - last part in Hindi Moral Stories by Sunil Chaturvedi books and stories PDF | महामाया - 34 - अंतिम भाग

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महामाया - 34 - अंतिम भाग

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – चौंतीस

रात लगभग साढ़े ग्यारह बजे का समय था। आश्रम में सन्नाटा था। कमरे में बाबाजी अपने आसन में बैठे थे और अनुराधा उनके सामने सिर झुकाये बैठी थी।

‘‘बेटे पिछले कुछ दिनों से आप बहुत परेशान दिख रही हैं क्या बात है?’’

‘‘कुछ खास नहीं बाबाजी, मन का विचलन बहुत बढ़ गया है। समझ में नहीं आता कि क्या करूँ?’’ अनुराधा के स्वर में निराशा थी।

‘‘लगता है आजकल आप ध्यान नहीं कर रही हैं?’’

‘‘करती हूँ बाबाजी, लेकिन आँखें बंद करते ही विचार और ज्यादा परेशान करने लगते हैं। मन शांत होने के बजाय उल्टे अशांत हो जाता है।’’

अनुराधा की बात सुनकर बाबाजी ने आगे की ओर खिसककर अनुराधा की आँखों में झांकते हुए अपने दाहिने हाथ की तीन अंगुलियों से अनुराधा के भूमध्य को छुआ। अनुराधा के शरीर में हल्की सी सिहरन हुई। बाबाजी की अंगुलियाँ धीरे-धीरे अनुराधा के माथे से नीचे की ओर बढ़ रही थी। उन्होंने हल्के से अनुराधा के होंठो को छुआ और धीमे किंतु गंभीर स्वर में बोलना शुरू किया

‘‘देखो बेटे, तुम्हारी सारी ऊर्जा मूलाधार में ही ब्लाॅक है, उसे ऊपर या नीचे कहीं भी प्रवाहित होने का रास्ता नहीं मिल रहा है। यही ऊर्जा तुम्हे परेशान कर रही है।

‘‘मैं बहुत स्ट्रेस में हूँ इसलिये ही मैं आपके पास आयी हूँ। आप ही बताईये मैं क्या करूँ।’’ अनुराधा के स्वर में अधीरता थी।

‘‘बेटे, योग में श्वांस-प्रश्वांस के जरिये मूलाधार पर चोंट कर उसे जागृत किया जाता है लेकिन ये लंबी प्रक्रिया है। इसमें बरसों लग जाते हैं और कभी-कभी पूरा जन्म भी।’’

‘‘आप ही अब कोई रास्ता बताईये बाबाजी। मैं तो अब मन से लड़ते-लड़ते बहुत थक गई हूँ।’’ अनुराधा की आँखें गीली हो गई थी।

बाबाजी अपने आसन से उठकर अनुराधा के बिलकुल करीब आ गये। उन्होंने अनुराधा की नम आँखों को अपनी अंगुलियों के पौरों से पोंछा।

‘‘है बेटे, तंत्र मार्ग में मूलाधार जागृति का शार्टकट है। तंत्र में समर्थ गुरू बाहर से मूलाधार पर चोंट कर उसे पल में ही जागृत कर सकता है। कहते-कहते बाबाजी ने अनुराधा को दोनों हाथों का सहारा देकर फर्श पर लिटा दिया और भूमध्य पर अंगूठे से दबाव बनाते हुए फिर से कहना शुरू किया।

‘‘बेटे इसे वासना मत समझना ये एक आध्यात्मिक प्रयोजन है। तंत्र मार्ग में शिष्य गुरू के समक्ष अपने आपको पूर्ण समर्पित कर देता है और गुरू बाहर से उसके अंदर प्रवेश कर मूलाधार पर चोंट करता है। मूलाधार का स्वरूप भी योनि में स्थित शिवलिंग की तरह है। मूलाधार पर चोंट पड़ते ही ऊर्जा का प्रवाह ऊध्र्वगामी होगा और तुम्हारा मन शांत हो जायेगा। शुरू में कुछ निश्चित समय अंतराल से मन फिर बैचेन होगा लेकिन उसमें परेशान होने की जरूरत नहीं है। स्वयं में गुरू को समर्पित कर दो। धीरे-धीरे मन एकदम शांत हो जायेगा और शांत मन तुम्हे आध्यात्मिक ऊंचाई के शिखर पर ले जायेगा।

बाबाजी कहते जा रहे थे साथ ही उनकी अंगुलियाँ अब अनुराधा के शरीर के निचले हिस्सों को छू रही थी। अनुराधा का शरीर पूरी तरह शिथिल हो गया था। उसने अपने हाथों को मोड़कर सिर के समानान्तर रखा और कस कर आँखें बंद कर ली।

थोड़ी देर बाद अनुराधा उठी उसने अपने कपड़े ठीक किये। अनुराधा की आँखों में आँसू थे, वो इन आँसुओं को बहने से रोकने की भरसक कोशिश कर रही थी। बाबाजी ने उसके गालों को छूते हुए कहा -

‘‘ज्यादा मत सोचो, पहली बार यह क्रिया थोड़ी असहज लगती है। बाद में मन और शरीर दोनों अभ्यस्त हो जाते हैं और एक बार ऊर्जा का उध्र्वगमन हो जाता है तो फिर इस क्रिया की कोई जरूरत नहीं रह जाती।’’

अब अनुराधा अपने आँसुओं को रोकने में नाकामयाब हो रही थी। उसके चेहरे पर घृणा का भाव था। उसने झटके से बाबाजी का हाथ अपने गालों से हटाया और उठकर वहाँ से चल दी। अपने कमरे में पहुंचकर अनुराधा सीधे बिस्तर पर गिर गई। उसका तकिया आँसुओं से भीग गया था। रात के सन्नाटे में रह-रहकर उसकी हिचकियाँ गूँज रही थी।

अखिल अपने कमरे में बैठा कुछ लिख रहा था। किसी के सुबकने की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी। वो शाॅल लपेटकर बाहर निकला। अनुराधा के कमरे का दरवाजा खुला था और सुबकने की आवाज वहीं से आ रही थी। वो लपककर अनुराधा के कमरे में पहुंचा। अनुराधा ओंधे मुँह बिस्तर पर पड़ी थी। अखिल ने पलंग पर बैठते हुए हल्के से अनुराधा को छुआ। अनुराधा ने गुस्से से अखिल का हाथ हटाया और झटके से उठ बैठी। सामने अखिल को बैठा देख फिर से उसकी रुलाई फूट पड़ी। उसने अपना सिर अखिल के सीने से टिका दिया। अखिल भौंचक्का था, उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा संयत रहने वाली अनुराधा को आज क्या हुआ है। अखिल ने अनुराधा के सिर को सहलाकर उसे सांत्वना देते हुए जानने की कोशिश की -

‘‘क्या हुआ अनुराधा’’

अनुराधा की रुलाई और तेज हो गई। उसके आँसू रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कुछ देर बाद अनुराधा का रोना कम हुआ तो सन्निपात के मरीज की तरह बड़बड़ाने लगी -

मैं स्यूसाइड करना चाहती हूँ अखिल......अभी इसी वक्त.......बाबाजी इतने नीचे गिर सकते हैं......मैंने उन्हें हमेशा अपने पिता की तरह देखा.....और उन्होंने.....। वे कहते हैं ये ध्यान लगाने के लिये जरूरी है। क्या वे इसी तरह अपनी सभी शिष्याओं को ध्यान सिखाते हैं? ये कौन सा आध्यात्मिक रास्ता है? मेडीकल साइंस अभी तक शरीर में मूलाधार चक्र को क्यों नहीं खोज सका.......। मेडीकल साइंस क्यों नहीं जान सका कि इस चक्र में कौन सी ऊर्जा रहती है......यदि महिलाओं की ऊर्जा को ऊपर उठाने के लिये गुरू द्वारा बाहर से चोंट करना ‘तंत्र’ है तो पुरूष की ऊर्जा उठाने के लिये के लिये ‘तंत्र’ में कौनसी क्रिया है.....।

अनुराधा की हालत देखकर उसे लगा कि किसी की मदद लेनी चाहिये। उसने धीरे से अनुराधा को बिस्तर पर लिटाया और मदद के लिये दिव्यानंद जी को बुलाने का निर्णय कर उठ खड़ा हुआ। सामने दरवाजे पर दोनों हाथ आपस में बांधे दिव्यानंद जी खड़े थे। अखिल अचकचा गया।

‘‘आप कब आये? मैं अभी आप ही हो बुलाने आ रहा था।’’

‘‘बहुत देर से यहीं हूँ’’ कहते हुए दिव्यानंद जी आगे बढ़े और अनुराधा के सिरहाने बैठकर उन्होंने अपना हाथ अनुराधा के माथे पर रख दिया। हाथों का स्पर्श पाकर अनुराधा की थोड़ी सी चेतना लौटी। उसने दिव्यानंद जी की कलाई को कसकर पकड़ लिया। उसकी आँखों के कोरों से अभी भी रह-रहकर आँसू लुढ़क रहे थे। अचानक दिव्यानंद जी उठ खड़े हुए। उनका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। वे तेज कदमों से कमरे से बाहर निकले। अखिल भी उनके पीछे-पीछे चल दिया। दिव्यानंद जी को इतने गुस्से में अखिल ने पहले कभी नहीं देखा था।

दिव्यानंद जी ने सीधे बाबाजी के कमरे के सामने पहुंचकर जोर से दरवाजा धकेला और अंदर चले गये। अखिल भी दिव्यानंद जी के पीछे-पीछे बाबाजी के कमरे में चला आया। बाबाजी अपने बिस्तर पर अधलेटे होकर बैठे थे। नीचे कालीन पर लेटी राधामाई भी हड़बड़ाकर उठ बैठी। दिव्यानंद जी ने बहुत ऊंचे स्वर में सीधे बाबाजी को संबोधित करके कहा........आपने ऐसा क्यों किया......? यही आपका अध्यात्म ज्ञान है.....? दिव्यानंद जी की आँखें और वाणी दोनो आग उगल रही थी।

बाबाजी ने एक बार दिव्यानंद को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर निर्विकार भाव से कहा ‘‘तुम जाओ दिव्यानंद....अभी तुम होश में नहीं हो। हम तुमसे सुबह बात करेंगे....।’’

“ हम अनुराधा बिटिया को पहले आश्रम से बाहर छोड़ आयें फिर आपसे निपटेंगे” कहते हुए दिव्यानंद तेजी से बाहर हो गए ।

राधामाई दिव्यानंद जी का यह उग्र रूप देख सामने से उठकर अपने कमरे के दरवाजे के पास अखिल के ठीक पीछे खड़ी हो गई। अखिल भी बाबाजी से पूछना चाहता था कि आखिर उन्होंने अनुराधा के साथ ऐसा क्यों किया? उसने एक कदम आगे बढ़ाया ही था कि पीछे खड़ी राधामाई ने धीरे से अखिल का हाथ पकड़ा और वापस उसे दो कदम पीछे खींचते हुए धीरे से कहा ‘‘पागल मत बनो अखिल’’ अखिल ने पलटकर राधामाई की ओर देखा। राधामाई ने आँखों ही आँखों में उसे अपने कमरे में चलने का ईशारा किया और उसका हाथ पकड़े-पकड़े ही उसे अपने कमरे में ले गई।

‘‘ये क्या मूर्खता करने जा रहे थे तुम अखिल, तुम्हे क्या लगता है कि बाबाजी दोषी हैं। अनुराधा का इतने सालों से यहाँ आना-जाना है। अनुराधा यहाँ के बारे में बहुत अच्छी तरह से जानती है। फिर भी रात को साढ़े ग्यारह बजे अनुराधा अकेली बाबाजी के पास क्यों आयी थी। सोचो जरा। अरे इसमें ऐसा क्या नया हो गया अनुराधा के साथ कि उसने पूरा आसमान सिर पर उठा लिया। ऐसा तो यहाँ होता रहता है। दो-चार दिन में अनुराधा भी ठीक हो जायेगी। फिर से बाबाजी के पास आने-जाने लगेगी।

अखिल विस्फाटित नेत्रों से से राधामाई को सुने जा रहा था। राधामाई बोलते-बोलते अपने बिस्तर पर बैठ गई और हाथ खींचकर अखिल को भी अपने पास सटाकर बिठा लिया। राधामाई का शरीर अखिल के शरीर से स्पर्श कर रहा था। राधामाई ने अखिल का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उसे समझाया -

‘‘तुम अनुराधा के चक्कर में पड़कर अपना केरियर क्यों खराब करना चाहते हो। दिव्यानंद जी तो मूर्ख हैं और फिर अभी कल ही बाबाजी जब उन्हें धक्के दिलवाकर आश्रम से बाहर कर देंगे तक उनको समझ में आयेगा! तुम्हे लेकर तो बाबाजी बहुत दूर तक की योजना बना चुके हैं। बाबाजी तो तुम्हे अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखने लगे हैं। कल ही मुझसे कह रहे थे कि यदि तुम सन्यास के लिये तैयार हो जाओ तो तुम्हे अगले कुंभ में ही सन्यास दीक्षा के साथ ही हरिद्वार वाला आश्रम तुम्हे और मुझे सौंप देंगे।

मैं.....सन्यास.....भगवा.....। अखिल लड़खड़ा गया।

अनुराधा ने प्यार से अखिल के गालों को छुआ।

‘‘किसी कारपोरेट सेक्टर में होते तो वहाँ ड्रेस कोड नहीं होता क्या? ये ही समझ लो कि भगवा यहाँ का ड्रेस कोड है और इस ड्रेस कोड में छुपा है वैभव.....सम्मान सब कुछ। भगवा ड्रेस अपनाते ही क्या नहीं होगा तुम्हारे पास। फिर मैं भी तो तुम्हारे पास रहूँगी न!

अखिल गहरे सोच में पड़ गया। यदि वो राधा की बात मान ले और चुप रह जाय तो अनुराधा के साथ जो इनजस्टिस हुआ है उसका क्या? अनुराधा के सेन्टीमेंट्स को गहरी चोंट पहुंची है। लेकिन राधा की बात भी सही है। जब अनुराधा सब कुछ जानती थी तो रात को साढ़े ग्यारह बजे बाबाजी के पास अकेली क्यों आयी? हो सकता है अनुराधा अभी शाॅक में हो और दो-एक दिन में सही होकर फिर से बाबाजी के पास आने लगेगी तो उसके प्रतिरोध का क्या मूल्य रह जायेगा? राधा सही कह रही है उसे सोच-समझकर निर्णय करना चाहिये। सोचते-सोचते उसने राधा की आँखों में झांककर देखा। राधा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आयी।

‘‘क्या सोच रहे हो......ज्यादा भावुक मत बनो अखिल। बी अपोरचनिस्ट! जाओ.....अब अपने कमरे में जाकर चुपचाप सो जाओ। सुबह आकर बाबाजी से माफी मांग लेना। मैं अभी रात को सब ठीक कर दूंगी।

अखिल उठा और यत्रवत अपने कमरे की ओर बढ़ गया। अनुराधा के कमरे के सामने से गुजरते समय उसने देखा कि अनुराधा अभी भी गुमसुम बूत बनी अपने पलंग पर बैठी थी। अखिल एक पल को रूका और फिर तेजी से उसने अपने कमरे में पहुंचकर धीरे से कमरे का दरवाजा बंद किया और आँखें बंद कर पलंग पर लेट गया। दिव्यानंद जी अनुराधा का सामान इकट्ठा करके उसके बैग में जमाया और रात को ही अनुराधा को लेकर आश्रम से बाहर हो गये।

काठकोदाम पहुंचकर दिव्यानंद जी ने अनुराधा को दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठाया। अनुराधा खिड़की से सिर टिकाये अपनी बर्थ पर बैठी थी। उसकी आँखों में शून्य था। दिव्यानंद जी प्लेटफार्म पर खिड़की के बाहर खड़े अनुराधा की सूनी आँखों में कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहे थे। अनुराधा की आँखें पथराई हुई थी। दिव्यानंद जी ने अनुराधा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा -

दीदी ये कमजोर पड़ने का समय नहीं है.....और अब आप दुखी भी नहीं होगी.....दुर्घटना थी....। दीदी जानवर आकर हम पर हमला करे तो हम जानवर को मारने की तैयारी करेंगे न कि खुद को मार लेंगे। आप तो हमसे छोटी हैं। हमें खुद इस दुनिया की सच्चाई समझने में इतना समय लग गया। सच कहें तो दिखाई देता था कुछ-कुछ। पर हम ही अपनी आँख पर परदा डाले थे, गुरू भक्ति का परदा.....धरम अध्यात्म का परदा।

आज हम किसी कीमत पर उस दुनिया में नहीं रह सकते। आज से दस साल पहले हम सब दुनियादारी छोड़के बाबाजी के पास चले आये थे। हमारे लिये तो ये अपनी आखिरी जेब तलाशने जैसा अनुभव था। बरसों से लगता था.....लगता नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास था कि धर्म और अध्यात्म ही वो आखिरी जेब है जिसमें संसार के सभी दुखों को समाप्त करने के सूत्र छुपे हैं। लेकिन ऊपर से यह फूली-फूली दिखाई पड़ने वाली जेब भी खाली ही निकली। दुख तो कम नहीं हुए उल्टे जीवन भर का दंश ही मिला। अध्यात्म में किसने क्या पाया और किसने क्या खोया ये सदियों से एक अनसुलझी पहेली ही है। जीवन के पार झांकने की कोशिश बेकार है। सच तो यही है कि अपने दुखों का समाधान किसी के सामने हाथ पसारकर नहीं पाया जा सकता। दुख से लड़ना ही दुख का समाधान है। अनुराधा की आँखों से आँसू झलक आये। उसने अपना सिर दिव्यानंद जी के हाथों पर टिका दिया। अब हमें विश्वास है कि आप अपने आप को सम्हाल लेंगी। ट्रेन प्लेटफार्म से धीरे-धीरे सरकने लगी फिर ट्रेन ने अचानक गति पकड़ ली। दिव्यानंद जी प्लेटफार्म पर कुछ देर खड़े ट्रेन को आँखों से ओझल होते हुए देखते रहे और फिर तेज-तेज कदमों से बस अड्डे की ओर चल दिये।

समाप्त