Haar gaya Fouji beta - 1 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | हार गया फौजी बेटा - 1

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हार गया फौजी बेटा - 1

हार गया फौजी बेटा

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग १

जब उसका दर्द मुझसे न देखा गया तो मैं उठकर चला गया उसके बेड के पास, जो न्यूरो सर्जरी वार्ड का बेड नंबर चार था। जिस पर वह छः फिट से भी ज़्यादा लंबा और मज़बूत ज़िस्म का जवान सुबह ही भर्ती हुआ था। आने के बाद से ही वह रह-रह कर दर्द से बिलबिला पड़ता था। उसकी गर्दन में, उसकी गर्दन से भी बड़ा हॉर्ड कॉलर लगा हुआ था। जो पीछे आधे सिर से लेकर कन्धे से नीचे तक था और आगे ठुड्डी से लेकर नीचे सीने तक। मैंने उसे अपना परिचय देकर पूछा ‘बेटा तुम्हें क्या हो गया है? तकलीफ बहुत ज़्यादा हो रही है क्या?’ उसने धीरे से आंखें खोलीं रत्तीभर गर्दन मेरी तरफ किए बिना ही नज़रें तिरछी कर मुझे देखा, फिर मुस्कुराने की असफल कोशिश करते हुए बोला-

‘हां अंकल जी, दर्द बहुत ज़्यादा है।’ अंकल शब्द ने मुझे उससे एकदम से भावनात्मक रूप से जोड़ दिया। दिमाग में अचानक ही यह बात कौंध गई कि हमारी नई पीढ़ी हमारे सनातन संस्कारों से अभी एकदम से रिक्त नहीं है। पूरा न सही अंकल-आंटी, डैड-मॉम के सहारे ही सही अभी भी सनातन संस्कार प्रवाहमान है। मैंने बड़ी आत्मीयता से उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर बात आगे बढ़ाई और पूछा ‘तुम्हारे गले में क्या हुआ है?’ तो उसने बीच-बीच में उठती दर्द की लहरों को सहन करते हुए बताया कि वह एक फौजी है। भारत-पाकिस्तान सीमा पर तैनात है। एक दिन घुसपैठिए आतंकवादियों से मुठभेड़ हो गई। उन्हें दबोचने की कोशिश की गई तो पाकिस्तानी फौजियों ने उनके लिए कवर फायरिंग शुरू कर दी। उसकी टीम ने हमले के बावजूद चार आतंकियों को मार गिराया। दो पाकिस्तानी फौजी भी मारे गए। जब कि इधर वह स्वयं और उसके तीन साथी गोलियों से बुरी तरह जख्मी हो गए। दुर्भाग्य से यह भी हुआ कि जिस वाहन से सभी घायल लाए जा रहे थे वह बेहद खराब रास्ते के कारण एक जगह पलट गया। जिससे सभी को और चोटें आईं। मगर भगवान की इतनी कृपा रही कि ऑर्मी हॉस्पिटल में सभी डेढ़ महीने में ही चंगे हो गए। वह भी हो गया लेकिन साथ ही डॉक्टर ने यह भी कहा कि दो महीने बाद ही ड्यूटी पर जाने के लिए फिट हो पाएगा। डॉक्टर की सलाह पर ही उसे दो महीने की मेडिकल लीव मिल गई और वह घर आ गया। घर आने के कुछ दिन बाद ही उसकी गर्दन और एक हाथ-पैर में दर्द और अकड़न शुरू हुई। जो तेज़ी से बढ़ती गई।

बस्ती जैसे छोटे शहर के डॉक्टरों ने कहा इसका इलाज यहां नहीं हो पाएगा। लखनऊ जाइए। यहां आर्मी हॉस्पिटल में दिखाना चाह रहा था लेकिन साथ आए एक रिश्तेदार के कहने पर बलरामपुर हॉस्पिटल चला गया। वहां डॉक्टर ने जो बताया उससे सब घबरा गए। फिर डॉक्टर की सलाह पर यहां पी.जी.आई. आए। यहां बता रहे हैं कि स्थिति बड़ी गंभीर है और गले का बड़ा ऑपरेशन होगा। टाइटेनियम की प्लेट लगानी पड़ेगी, ऑपरेशन के बाद इस बात की कोई गारंटी नहीं कि हाथ-पैर जो कुछ ही दिनों में बेहद कमजोर हो गए हैं वह ठीक हो ही जाएंगे। संभावना तो यह भी है कि हालात और बिगड़ जाएं। शरीर अपंग हो जाए। ऑपरेशन में जान जाने का भी खतरा ज़्यादा है। घर का इकलौता वही कमाऊ पूत है। पिता किसानी से थोड़ा बहुत कर लेते हैं। एक बहन की शादी पिछले वर्ष की। उसका काफी कर्ज अभी सिर पर है। दो छोटी बहनें अभी शादी को बची हैं। पिछले कुछ दिनों में ही अच्छी खासी रकम खर्च हो चुकी है। आगे न जाने कितना खर्च आए। इन सभी बातों ने दर्द मानो और बढ़ा दिया है।

उसकी बातों ने मुझे द्रवित कर दिया। मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा ‘परेशान मत हो बेटा तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगे। मरीज को ऑपरेशन के रिस्क के बारे में बताना डॉक्टर्स का कर्तव्य होता है। वैसा ही हो यह जरूरी नहीं। यह बहुत बड़ा और अच्छा हॉस्पिटल है, एक से बढ़कर एक काबिल डॉक्टर और बड़ी-बड़ी मशीनें हैं। बहुत गंभीर रोगी भी यहां आसानी से ठीक होते देखे हैं हमने।’ मेरी इस बात पर वह इतने दर्द के बावजूद हल्के से मुस्कुरा उठा। ‘मैंने पूछा क्या हुआ बेटा?’ ‘कुछ नहीं अंकल जी, ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी सभी बातें सही निकलें। यहां भर्ती होने के लिए हमें इतने पापड़ बेलने पड़े कि आज़िज होकर सोचा कि चला चलूं वापस, जो होगा देखा जाएगा। मेरे बूढ़े पिता की टांगें दौड़ते-दौड़ते, डॉक्टरों की मिन्नतें करते-करते थक गई थीं। कांप रही थीं। उनकी और बहनों की आंसू भरी आंखें देख-देखकर मन में आता कि इससे अच्छा तो आतंकियों से लड़ते-लड़ते देश के लिए शहीद हो जाना अच्छा था। कम से कम मेरे घर वालों को यह जलालत तो नहीं झेलनी पड़ती।

मेरे बड़े अधिकारी ने जब दो सीनियर्स को भेजा, यहां के आला अधिकारियों को फ़ोन किया तब मुझे दो दिन बाद भर्ती किया गया। यह दो दिन बाहर इस कैंपस में मैंने, मेरे परिवार ने गंदगी, मच्छरों और बंदरों के साए में कैसे काटे यह बता नहीं सकता। एमरजेंसी में कोई देखने को तैयार नहीं था। अगले दिन आइए। ओ.पी.डी. में आइए, न जाने कहां-कहां आइए। यह सब देख-देख के बस एक आवाज़ मन में आती वाह रे व्यवस्था, वाह रे मेरा देश। जब फौजियों की यह हालत है तो बाकी जनता किस पीड़ा से गुजरती होगी। सुबह से दर्द के बारे में न जाने कितनी बार कहा लेकिन कोई नहीं सुनता। हां ठीक हो जाएगा, टाइम लगेगा। क्यों परेशान कर रहे हो। एक तुम्हीं नहीं हो और भी पेसेंट हैं वार्ड में। बस डांट कर चल देते हैं। डॉक्टर्स हों या नर्स। राहत वाली बात है तो सिर्फ़ इतनी कि कुछ डॉक्टर्स और नर्स बहुत ही अच्छे से पेश आते हैं। यह सब कुछ देख के ही मुझे यह यकीन हो गया है कि यह इतना बड़ा हॉस्पिटल इन कुछ अच्छे लोगों के कारण ही चल रहा है। जैसे यह दुनिया।’

उसे व्यवस्था से इतना आहत देखकर मैंने समझाते हुए कहा।

‘बेटा इन बातों को इतनी गंभीरता से मत लो। सभी इन हालात का सामना करते ही हैं। इतनी टेंशन तुम्हारी सेहत के लिए भी अच्छी नहीं है।’ फिर और कई बातें करके मैं अपने बेड की ओर बढ़ना चाह रहा था। क्योंकि मेरी बूढ़ी टांगें जो बीमारी के कारण और कमजोर हो रही थीं जवाब देने लगी थीं। इसी बीच आधे घंटे का विजिटिंग हॉवर शुरू होते ही उसके पिता और दोनों बहनें आ गईं। वह सब आपस में ठीक से बात कर सकें इस गरज से मैंने उनसे सिर्फ़ परिचय लेने-देने तक ही बातचीत की और अपने बेड पर आ गया।

मेरी आंखें भी इंतजार करने लगीं कि तीन बेटों, बहुओं, दो बेटी दामादों में से शायद कोई मिलने आएगा। पांच दिन से कोई नहीं आया था। जबकि दो बेटे और एक बेटी इसी शहर में रहते हैं। गनीमत थी तो सिर्फ़ यह कि दिन भर में किसी न किसी एक का फ़ोन जरूर आ जाता था और इतना कह कर कट भी जाता था कि ‘आप ठीक हैं न, किसी चीज की ज़रूरत तो नहीं।’

उनसे क्या कहता कि बच्चों बुढ़ापे में जिस चीज की ज़रूरत होती है उस बारे में तुम लोग सोच ही नहीं रहे हो। पांच-पांच बच्चों का पिता होकर भी लावारिस सा यहां पड़ा हूं। कोई पुरसाहाल नहीं है। काट खाने को दौड़ते इस अकेलेपन का भी कोई ईलाज है क्या इस पी.जी.आई में ? मेरी आंखें भर आयीं। रुक्मिणी का चेहरा आंखों के सामने था। मन में हूक सी उठी कि अच्छा हुआ जो तुम यह सब देखने से पहले चली गई। अब मुझे भी बुला लो अपने पास। अब काटे नहीं कटता ये जीवन।

मेरे विचारों की श्रृंखला सिस्टर की तीखी आवाज़ ने भंग कर दी। कर्कश स्वर में चिल्ला रही थी ‘चलिए, बाहर चलिए मिलने का टाइम खत्म हो गया। जब तक पांच बार चिल्लाओ नहीं तब तक जाने का नाम ही नहीं लेते।’ उसकी कर्कश आवाज़ ने असर दिखाया और देखते-देखते सारे विज़िटर्स वार्ड से बाहर हो गए। अब बाकी पेशेंट्स भी बेड पर मेरी तरह अकेले रह गए थे। मगर मेरे और उन सबके अकेलेपन में जमीन आसमान का फ़र्क था। वह सब बेड पर अकेले थे लेकिन बाहर उनके घर वाले उनकी तीमारदारी के लिए बराबर बने हुए थे। इसीलिए बीमारी की लाख तकलीफों के बावज़ूद सभी के चेहरों पर एक ख़ास तरह की चमक थी। मुसीबत में अपनों के साथ होने की चमक। वह फौजी भी तमाम तकलीफों के बावजूद अपने चेहरे पर राहत की लकीरें लिए हुए था। कुछ मिनटों के लिए उसका अधिकारी मिलने आया था। उसके साथ और कई फौजी जवान थे। अधिकारी ने जाते समय बड़ी आत्मीयता से उस बहादुर फौजी के सिर पर हाथ रखा था।

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