bhawaniprasad mishr ki kavy samvedana in Hindi Book Reviews by कृष्ण विहारी लाल पांडेय books and stories PDF | भवानी प्रसाद मिश्र की काव्य संवेदना

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भवानी प्रसाद मिश्र की काव्य संवेदना

भवानी प्रसाद मिश्र की काव्य संवेदना

ये कोहरे मेरे हैं

भवानी प्रसाद मिश्र

’’गीत फरोश’’ जैसी कालजयी कविता के रचयिता भवानीप्रसाद मिश्र की काव्य संवेदना जीवन के सरोकारों की दृष्टि से जितनी व्यापक है उतनी ही अनुभूति के स्तर पर सघन है। अभिव्यक्ति की सहजता और गीतात्मक शिल्प के आधार पर वह अपनी तरह के अकेले कवि हैं। छायावाद के अन्तिम चरण से प्रारम्भ होकर पांच दशकों से अधिक तक चलने वाली उनकी अनवरत काव्यसर्जना में ‘गीतफरोश’ से ‘ये कोहरे मेरे हैं ’ तक अठारह काव्य संग्रह और एक खण्डकाव्य ‘कालजयी’ शामिल है। परिमाण-प्रचुरता के साथ ही समसामयिक संदर्भो तथा जीवन के प्रति गहरी रागात्मक संपृक्ति उनके काव्य की विलक्षण विशेषता है। उन्होंने छायावादोत्तर विभिन्न काव्यान्दोलनों की सहज मानवीय सरोकार सम्पन्न प्रवृत्तियों को स्वीकार किया है तथा उनके अतिरंजित अथवा संकीर्णता में बंधे सिद्धान्तों और विचारों को अस्वीकृत किया है। उनकी कुछ कविताओं में छायावादी रहस्यानुभूति के संकेत हैं तो कुछ अन्य कविताएँ रोमानी भावनाओं की व्यंजक हैं। सामाजिक वैषम्य के चित्रण शोषितों और वंचितों के प्रति सहानुभूति तथा शोषकों के प्रति आक्रोश में उनकी प्रगतिशील चेतना परिलक्षित होती है। गांधीवाद उनकी केन्द्रीय जीवन-दृष्टि है। उनमें नयी कविता का नवीन भावबोध भी है। जीवन के गहरे दुःखों से साक्षात्कार करते हुए भी वह दैन्य, पलायन अथवा विजड़ित कर देने वाली निराशा से आक्रांत नहीं हैं। इसके विपरीत उमंग और उल्लास उनका मूल स्वर है। प्रकृति के साथ रागात्मक संलग्नता, सामाजिक संपृक्ति, युगबोध, व्यंग्य और अनुचित के प्रति निर्भीक असहमति उनके काव्य की अलग पहचान है। रचना धर्म कें प्रति निष्ठापूर्ण समर्पण उनका स्थायी भाव है।

उनकी समसामयिकता अथवा प्रासंगिकता अपने दरवाजे से निकलने वाले हर जुलूस के साथ कुछ दूर और देर तक चलने वाली चतुर व्यावसायिकता या डरी हुई दीनता नहीं है बल्कि सच और मानवीयता के प्रति दायित्वपूर्ण पक्षधरता है। अभिजात की जगह सामान्यता और वह भी सरल सहज, मिश्रजी को प्रिय है

चतुर मुझे कुछ भी/कभी नहीं भाया/न औरत/न आदमी।

न कविता/सामान्यता को ही सदा/असामान्य मान कर/

छाती से लगाया/ (अँधेरी कविताएँ)

भवानी प्रसाद मिश्र की काव्य चेतना के विकास को क्रमिक रूप से विभाजित करके तो नहीं देखा जा सकता क्योंकि ’गीत फरोश’ ‘चकित है दुःख’ और ‘अँधेरी कविताएँ’ में ही उनके आशय और सरोकार इतने संश्लिष्ट और व्यापक हैं कि वे ही विभिन्न संदर्भांे में परवर्ती काव्य में व्यक्त हुए हैं फिर भी उनके काव्य-संग्रहों के कुछ सोपान स्पष्ट हैं। ‘दूसरा सप्तक’ में संकलित कविताओं से ही उनकी प्रमुख संवेदनाओं का परिचय मिल जाता है। प्रकृति और लोक जीवन के प्रति उल्लास की जो ऐन्द्रिय तीव्रता प्रारम्भ में दिखाई देती है वह परवर्ती काव्य में उतनी उन्मुक्त नहीं है। ‘चकित है दुःख’ और ‘अँधेरी कविताएँ’ में आत्म चिन्तन के साथ ही समष्टि में व्यष्टि के विलयन का सामाजिक बोध प्रमुख है। निराशा की मनःस्थिति में भी आशा और आस्था की लौ उकसाते रहना मिश्र जी की रचनात्मकता का प्रमाण है। ‘गांधी पंचशती’, गांधी दर्शन की सामाजिक सार्थकता का महाकाव्यात्मक स्तवन है। ’’बुनी हुई रस्सी’’ में भवानी भाई क्षण प्रतिक्षण हो रहे अनुभवों की प्रक्रिया से गुजरते हुए जीवन की नयी अर्थवत्ता की खोज मंे संलग्न हैं। ‘खुशबू के शिलालेख’, धूल और धुएँ के बीच मूल आदिम चेतना में नाम के विपरीत ठोस सामाजिक तथा सामूहिक भाव की अभिव्यक्ति है। ‘अनाम तुम आते हो’, ‘परिवर्तन जिए’, ‘इदं न मम’ और ‘त्रिकाल संध्या’ में आपातकाल का परिवेश जय प्रकाश नारायण की भूमिका और आदमी की संभावनाओं का मानवीय गरिमा के साथ आख्यान है।

भवानी प्रसाद मिश्र इतिवृत्त और कथानकों के कवि नहीं हैं। इसीलिये इनके ‘कालजयी’ खण्डकाव्य में इतिवृत्त से अधिक वैचारिकता और जीवनादर्शों की व्याख्या है। ‘शरीर कविता फसलें और फूल’ से ‘तूस की आग’ तक के परवर्ती काव्य में कवि के दायित्त्व बोध, युग चेतना प्रकृति की रागात्मक अनुभूति और जीवन के प्रति आत्म चिन्तन की प्रवृत्तियाँ हैं। ‘ये कोहरे मेरे हैं’, प्रेम कविताओं का संग्रह है।

भवानी भाई के काव्य में रागात्मकता और चिन्तन अथवा विचार के तत्त्व परस्पर विरोधी बन कर नहीं आये हैं। इसका कारण है कि उनका चिन्तन निरपेक्ष बौद्धिक प्रक्रिया नहीं है बल्कि वह जीवन की प्रत्यक्ष सापेक्षता में विभिन्न प्रकार की मानवीय चिन्ता है। यह चिन्ता अनुभूति के रूप में ढलकर मिश्र जी की आत्मीय रागात्मकता बन जाती है। इसलिये अभिव्यक्ति के स्तर पर उनका विचार भी जटिल न होकर सहज और स्पष्ट होता है।

प्रकृति के परिवेश ने भवानी प्रसाद मिश्र के कवि की परवरिश की है। लोक जीवन ने उनके मन का निर्माण और निर्धारण किया है। इसलिये प्रकृति उनकी भावनाओं के अधिकतर आयतन में समायी है। किन्तु मिश्र जी का प्रकृति चित्रण पारम्परिक चित्रण से भिन्न है। छायावाद ने प्रकृति की वस्तुगतता को मानवीय प्राणवत्ता तो दी और उसके कोमल कठोर स्वरूप को सजीव क्रियात्मकता भी प्रदान की पर छायावादी काव्य में भी प्रकृति और मनुष्य परस्पर घुल मिल नहीं सके। वहाँ भी वह चित्रण की ही वस्तु बनी रही। मिश्र जी के काव्य में प्रकृति अलग से चित्रित की जाने वाली वस्तु नहीं है। वह मिश्र जी के लिये पढ़ी सुनी या दर्शक के रूप में देखी गयी वस्तुु न होकर जीवन की सहज अनुभूति है, जीवन को प्रभावित करने वाली अन्तःक्रिया है। वह परिवेश के रूप में कहीं अलग नहीं है बल्कि रोज की जिन्दगी के साथ कई रूपों में जुड़ी है। उसका प्रसार घरों तक है।

वर्षा मिश्र जी के लिये सर्वाधिक उल्लासदायक प्रकृति-व्यापार है। जिस तरह कालिदास को वसन्त, रवीन्द्र को नदियां और निराला को बादल प्रिय हैं इसी तरह भवानी भाई वर्षा पर मुग्ध हैं। ‘बरसात आ गयी र’ेे उनकी प्रसिद्ध कविता है। वर्षा हो रही है तो कविता लिखना भी उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता......

तू उठ के बैठ जा रे लिखने में क्या धरा है।

खिड़की से झाँक तो ले कैसा हरा भरा है।

धरती पै सरग उतरा सा जान पड़ रहा है।

धारा से सरग धरती पर आन पड़ रहा है।

धरती कि आज जीने का गीत गा गयी रे

बरसात आ गयी रे.. बरसात आ गयी रे।

’’पानी बरसा री’’ कविता में केवल बर्षा ही नहीं सावन के विविध क्रिया-व्यापार चित्रित हुए हैं-

पीके फूटे आज प्यार के पानी बरसा री

हरियाली छा गयी हमारे सावन सरसा री

फुरफुर उड़ी फुहार अलक दल मोती छाये री

खड़ी खेत के बीच किसानिन कजरी गाये री

झरझर झरना झरे आज मन प्राण सिहाये री

कौन जन्म के पुण्य कि ऐसे शुभ दिन आये री

रात सुहागिन गात मुदित मन सावन परसा री

पीके फूटे आज प्यार के पानी बरसा री।

’’सतपुड़ा के घने जंगल’’ ‘गीत फरोश’’ की ही तरह मिश्र जी की अत्यन्त प्रभावपूर्ण कविता है। सात सात पहाड़ वाले शेर, चीते, बाघ वाले, दहाड़ वाले, घने, ऊँघते, अनमने, इन जंगलों का चित्रण अनन्य रागात्मकता से युक्त हैं। उनमें हरित दूर्वा और रक्त किसलय ही नही हैं बल्कि उनमें सड़े पत्ते, गले पत्ते, हरे पत्ते, जले पत्ते, वन्य पथ को ढक रहे से पंक दल में पले पत्ते भी हैं। जंगल केवल पेड़ नदी नाले, जीव जन्तु भर नहीं हैं बल्कि उनमें रहने वाले आदिवासियों का जीवन भी उनमें शामिल हैं-

झोपड़ी पर फूस डाले गौंड़ तगड़े और काले

जबकि होली पास आती सरसराती घास गाती

और महुए से लपकती मत्त करती बास आती

गूँज उठते गोल इनके गीत इनके ढोल इनके

‘‘नर्मदा के चित्र’’ और अन्य अनेक कविताओं में प्रकृति केवल सजीव ही नहीं बल्कि ग्रामीण जीवन की सम्पूर्ण दुनिया बनकर प्रस्तुत हुई है। कुछ दृश्य तो इतने निरायास चित्रित हैं कि सीधे अहसास में उतर जाते हैं-

ठंडी हवा ने आकर जबसे इन्हें छुआ है

भगवान जाने तबसे झाड़ों को क्या हुआ है।

भवानी भाई कला और साहित्यिक सामाजिक दायित्व को जानते हीं नहीं, मानते भी हैं। ‘‘व्यक्तिगत’’ काव्य संग्रह की ‘‘कला’’ कविता में वह लिखते हैं- ‘कला वह है जो सत्य के अनुरूप हो और जीवन को उठाने वाली हो।’ हमारी पीढ़ियों को सत्य के ऐसे ही अन्वेषण में मिश्र जी अपनी कविता की सार्थकता मानते हैं उनमें आस्तिकता की वृत्ति भी है और रचना धर्मिता के लौकिक संदर्भ में भी आस्था है। वह लिखते हैं-’ कई लोग/दूसरे अर्थ में/कोई ऐसी चीज/अलौकिक कहकर/रचते हैं/

मगर इस तरह न लोक बचता है/न वे बचते हैं/ विकृत बनता है/ सब कुछ उनकी कृतियों में। ( ‘कोई अलौकिक’ व्यक्तिगत)

मिश्र जी कवि के दायित्व को बहुत महत्त्व देते हैं और कवि को सच और केवल सच कहने की न्यायालीन शपथ की याद दिलाने लगते हैं।

‘सच कहो कवि आत्मा से पूछ कर

सच कहो कवि मत किसी का भय करो’ (गांधी पंचशती)

वह मानते हैं कि सत्य को विरोधी और अन्यायी शक्तियाँ चाहे जितना दमित करें वह समय पा कर अवश्य उभरता है।

तुमने क्षण को ठीक संभाला तो वह कभी अंकुरता ही है।

सत्य भले सदियों तक कुचलो पाकर समय उभरता ही है। (कालजयी)

लिखना मिश्र जी के लिये जीवन से बड़ा या परे नहीं, जीवन के लिये है। इसलिये अगर वर्षा के उल्लास में जीवन सीधा सादा है तो लिखने का और प्रयोजन ही क्या है ? इसी तरह एक दूसरे कारण से भी वह लिखना स्थगित कर देना चाहते हैं क्योंकि वहाँ जीवन की समस्या लिखना नहीं सक्रियता चाहती है-

एक बूढ़ा आदमी चल रहा है सड़क पर/बदल दिया है उसका रंग/बत्ती के मटमैले उजालें ने/और कुत्ते उस पर भौंक रहे हैं/जी नहीं होता/इस सबके बीच लिखने का/कुत्तों को भगाऊँ/जाऊँ/बूढ़े आदमी को/भीतर बुलाऊँ। (अँधेरी कविताएँ)

वह लिखने की सार्थकता और आवश्यकता समझते हैं और ‘नीली रेखा तक’ संग्रह की भूमिका में ‘क्यों लिखता हूँ ’ में कहते हैं-

मैें कोई पचास पचपन वर्षो से/कविताएँ लिखता आ रहा हूँ। अब कोई पूछे मुझसे कि क्या मिलता है तुम्हें ऐसा/कविताएँ लिखने से/कि तुम/इस काम को/खत्म नहीं करते/तो मैं गिना सकता हूँ/सौ बातें/जो मुझे कविता की मार्फत मिली हैं/और पहुँचाया है जिन्हें मैंने दूसरों तक....जैसे अभी/दो मिनट पहले जब मैं कविता लिखने नहीं बैठा था तब कागज/कागज था/ मैं मैं था और कलम कलम/ मगर जब लिखने बैठा तो तीन नहीं रहे हम/एक हो गये/किन्हीं तीन चीजों को/अलग अलग तीन अस्तित्वों का/एकाएक इतनी आसानी से/एक हो जाना/ अपने आप में करिश्मा है/ बड़ी ही आसानी से/होते हैं कविता के बल पर करिश्मे लगता है मुझे/भीतर ही भीतर/कि जरूरत है/ दुनिया को/किसी बड़े करिश्मे की/ और करिश्मा बड़ा/ अब सिवा कविता के और किसी चीज से नहीं होगा।’

जीवन की अनुभूतियों को समर्पित मिश्र जी की कविता में रचना का अभिप्रेत और प्रयोजन बहुत स्पष्ट है। वह लिखते हैं-

‘कई बार भूल गया हूँ मैं यह सहज सत्य कि आदमी सबसे बड़ा है। सबसे कोमल है। सबसे अधिक विचारणीय है।’ (‘मैं जानता हूँ’ व्यक्तिगत)

मनुष्य को निवेदित मनुष्य के बारे में अपनी संवेदना लिए मिश्र जी पूरे कृतित्व में प्रस्तुत है। ‘व्यक्तिगत’ काव्य संग्रह की भूमिका में उन्होंने लिखा है आज की व्यक्तिगत से व्यक्तिगत कविता की आत्मा सामाजिक है सामाजिक ही नहीं जागतिक है।’ उनकी दृष्टि में व्यक्ति की सार्थकता समष्टिपरक होने में ही है। वह कहते हैं ’समष्टि के जीने से/सहने से/जीता है आदमी/अकेला तो सूरज भी नहीं है। उससे ज्यादा अकेलापन तुम चाहोगे’

मिश्र जी का आत्मचिन्तन उन्हें समष्टि की ओर प्रेरित करता है। दुःख, अवसाद, निराशा अकेलापन जैसी स्थितियाँ कहीं कहीं उनके आत्म-चिन्तन में भी हैं लेकिन वे रूग्ण वैयक्तिकता का सुख लेने वाली स्थितियों में नहीं रमते बल्कि उनसे जूझ कर जीवन की ओर निकलने की कोशिश करते हैं। आत्मकेन्द्रित साहित्य पर उनका कहना है-‘तुम्हारी कला ठंडी है/मैं उसके पास भी नहीं फटक सकता क्योंकि मेरे पास न कमीज है न बंडी है।’ (अंधेरी कविताएँ)

सत्य का एक पक्ष पूर्वाग्रह से मुक्ति भी है। इस संदर्भ में मिश्र जी कहते हैं-

‘पकड़े रहिए/टूटे पहिए रथ के/कि न वे गिरने पाएँ/न आप बढें आगे’

(बुनी हुई रस्सी)

सामाजिक विषमता, शोषण और अन्याय उनकी सामाजिक चिन्ता के अन्य पहलू हैं। ‘गाँव जिनमें झोपड़ी है घर नहीं है, झोपड़ी में फटकियाँ है दर नहीं हैं।‘ ‘गांधी पंचशती’ में सामाजिक विषमता के प्रति कवि की चिन्ता और उसका आक्रोश इस तरह व्यक्त हुआ है-

ऐसी सुविधा कम करो कि कोई सिर्फ दस्तखत करता रहकर

महल अटारी मोटर तांगे वायुयान पर चढ़कर डोले

ऐसी सुविधाएँ खत्म करो जिसमें कोई पढ़कर लिखकर

कम कर किसान बुनकर सुनार लड़िया लुहार से बढ़ बोले

इसके लिये एक ओर व्यवस्था को चुनौती देना जरूरी है तो दूसरी और जन-जागरण भी आवश्यक है। कवि का विश्वास है कि ‘अभागों की टोली अगर गा उठेगी तो दुनिया पै दहशत बड़ी छा उठेगी।’ अहिंसा और सत्य पर अडिग आस्था के कारण उनमें ऐसा साहस था जिसके द्वारा ‘‘त्रिकाल संध्या’’ की कविताओं में उन्होंने आपातकाल का विरोध किया। सामाजिक परिवर्तन की उनकी आकांक्षा उनके काव्य दायित्व का निर्धारण करती है और वह लिखते हैं-

मेेरी वाणी/उन तूफानों को गायेगी/जो अभी उठे नहीं हैं/और जिन्हें उठना है/इसलिये कि/जड़ता नहीं/परिवर्तन जिए।

अँधेरा कितना भी घना हो वह भवानी भाई के हौंसले के सामने झूठा है-

आँखों के आगे तुम्हें अँधेरा दिख रहा है/मगर

बूढ़ा यह आदमी लिख रहा है/कि हिम्मत बाँधो।। (अँेधेरा झूठा है)

मिश्र जी धर्म के गलत और तथाकथित उन्माद में मनुष्य का शत्रु शिविरों में विभाजन गांधी के देश की सबसे बड़ी त्रासदी है। मिश्र जी इस उन्माद से विचलित हैं-

हम ये जो हिन्दू हैं हम जो मुसलमान हैं

पहले ये सोचें हम कमकर किसान हैं

और फिर कमकर किसान किस देश के

बापू के मन के औ बापू के वेश के

कथ्य में इतने व्यापक सरोकारों और इतनी विशद भावभूमियों तथा चिन्तनपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में मिश्र जी इतने सहज और सटीक हैं कि उनकी शैली सर्वथा अलग है। मुक्तिबोध के अनुसार जो कवि अपने भाव-विचारों के लिए अपनी स्वयं की शैली पा लेता है वह सिद्ध कवि है। ऐसे ही कवियों में भवानी प्रसाद मिश्र हैं। सहजता उनकी विशेषता है। यह सहजता सपाटबयानी नहीं है बल्कि अनुभूति और अभिव्यक्ति का तादात्म्य है। ‘जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख’ जैसी एकरूपता मिश्र जी का साध्य है। वह शब्दों की शक्ति के प्रति सचेत हैं। वह मानते हैं कि शब्दों में आग छिपी रहती है उसे सुलगाना कवि का दायित्व है। जैसे किसान बीजों को फैलाता है उसी तरह शब्दों को भी सीमित प्रयोग से मुक्ति चाहिए। बोलचाल उनकी भाषा का प्रमुख गुण है। वह कविता लिखने को बोलना ही मानते हैं। वह कहते है कि ‘‘मैं जो लिखता हूँ उसे जब बोलकर देखता हूँ और बोली उसमें बजती नहीं है तो मैं पंक्तियों को हिलाता डुलाता हूँ।’ सहजता उन्हें इतनी प्रिय है कि वह भाषा या शिल्प के किसी सचेत प्रयोग के फेर में नहीं पड़ते । अभिव्यक्ति तो होती ही रहती है। मैं उसके ढंग नहीं सोचता/सोची हुई अभिव्यक्ति से/मैने अपने को अभिव्यक्त नहीं किया।’’

मिश्र जी की बोलचाल की शैली में जब प्रत्यक्ष संवाद की भंगिमा आ जाती है तो उसकी व्यंजकता बढ़ जाती है । ’’गीत फरोश’’ में सीधी बातचीत है। जहाँ संवाद नहीं हैं वहाँ सम्बोधन हैं। मिश्र जी अपनी बात संवाद और संबोधन के रूप में ही कहते हैं। ‘भाई सूरज जरा इस आदमी को जगाओ ’ अथवा ‘तू उठके बैठ जारे’ जैसी पंक्तियाँ हों या ‘निरापद कोई नहीं है’ कविता’, में वह प्रत्यक्ष बोलते हैं-

कोई है कोई है कोई है

जिसकी जिन्दगी दूध से धोई है।

मिश्र जी के समग्र आंकलन के रूप में उनके खण्ड काव्य ’’कालजयी’’ की आरंभिक पंक्ति का उपयोग करते हुए कहा जा सकता है कि ‘यह कथा व्यक्ति की नहीं एक संस्कृति की है।’