नाम तो लक्ष्मी था उसका, लेकिन ऐसे नाम भाग्यहीनों, गरीबों और अनाथों को शोभा नहीं देते। शायद यही सोचकर पूरा मुहल्ला उसे लक्ष्मी नहीं लच्छो कहता था। उसकी प्रसिद्धि का कारण उसका नाम हो ऐसा नहीं था, बल्कि उसका बावलापन था। पूरे मुहल्ले में वह किसी के भी घर में चली जाती कि कहीं कुछ खाने-पीने को मिल जाए। प्रायः हर घर में उसे बासी भोजन या सूखी रोटी मिल ही जाती जिसे वह बहुत चाव से खाती मानों कई दिनों की भूखी हो। कभी-कभी बोल भी देती “चा दे दिओ...” तो उसे वह चाय भी मिल जाती जो उबली हुई चाय की पत्ती में कवल पानी और थोड़ी-सी चीनी डालकर दोबारा उबालकर खास उसके लिए ही बनाई गई होती। उसे क्या, वह तो अपनी मस्ती में बासी सूखी रोटी खाती और सुड़ुप-सुड़ुप कर चाय पीती। लेकिन, उसे यह रोटी, चाय या बासी भोजन मुफ्त में मिल जाता हो, ऐसा नहीं था। इसके बदले में उसे उस घर के सारे बर्तन धोने पड़ते थे। कभी-कभी झाड़ू पोंछा या बच्चों का मल-मूत्र भी साफ करना पड़ता था।
वह हमेशा से ऐसी नहीं थी। माँ ने बड़े लाड़-प्यार से पाला था। बाप रिक्शा चलाकर जीवन की गाड़ी खींचता था और माँ मुहल्ले के कई घरो में झाड़ू-पोंछा, बर्तन धोने जैसे काम करती थी। गुजारा आराम से चल रहा था। लेकिन गरीब के घर में सुख की छाया बहुत दिनों तक कहाँ टिकती है। लच्छो तीन वर्ष की ही हो पाई थी कि माँ चल बसी। जैसे-तैसे बाप ने दो महीने काटे और अंगूरा नाम की एक औरत ले आया। बस उसी दिन से लक्ष्मी लच्छो बन गयी। नयी जवान औरत के नशे के साथ-साथ बाप ने शराब का नशा भी लगा लिया। घर में झूमता हुआ आता और ‘जा बाहर खेल ले’ कहकर लच्छो को घर से बाहर निकालकर दरवाजा बन्द कर लेता। लच्छो मुहल्ले भर में इधर-उधर घूमती-फिरती, गंदा, बासी, जूठा भोजन खाते हुए बड़ी होने लगी।
जब वह पाँच वर्ष की थी तो एक बार सड़क पार करते समय एक स्कूटर वाले ने टक्कर मार दी। झटका खाकरक वह सड़क के किनारे जा गिरी। आस-पास खड़े लोग हँसने लगे लेकिन किसी ने उसे उठाने की कोशिश नहीं की। हाँ, किसी ने “दिनभर नाची-नाची फिरती है” कहकर अपना दायित्व पूरा कर लिया। कुछ पल के बाद जब उसे होश आया तो वह खुद ही उठकर घर की ओर दौड़ पड़ी। सिर पर चोट लगी थी, खून भी निकल रहा था। नशे में धुत्त बाप ने देखा तो अश्लील गालियाँ देते हुए उसे मारने लगा, “कहाँ गयी थी...एक जगह नहीं बैठ सकती...दिन भर इधर-उधर नाचती रहती है...।” बाप की गालियाँ और उसके चीखने का शोर सुनकर पड़ोस में रहने वाली सावित्री देवी ने आकर उसे बचा लिया। वह उसे अपने घर ले गयी और उसकी मल्हम-पट्टी की। हल्दी वाला गरम दूध पिलाया। आराम मिलते ही वह सो गयी। सोत-सोते ऐसा तेज़ बुखार आया कि तीन-चार दिन क नहीं उतरा। सावित्री देवी ने तरस खाकरक हल्का-फुल्का इलाज भी करवा दिया। बुखार तो विदा हो गया लेकिन सिर की चोट ने अपना असर दिखा दिया और लच्छो दिमागी रूप से कुछ कमज़ोर हो गयी। तोते की तरह बोलने वाली अब हकलाते हुए बोलती थी या नहीं बोलती थी। उसे अपने खाने-पीने, बैठने-उठने, चलने-फिरने की सुध ही नहीं रहती। सुबह होते ही घर से निकल पड़ती, कभी इस घर तो कभी उस घर, पूरे मुहल्ले में घूमती-फिरती। मुहल्ले के घरों को भी मुफ्त की नौकरानी मिल गयी थी इसलिए किसी भी घर में उसके आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था। मोहल्ले में जहाँ छोटी-छोटी बातों पर लोग एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं। एक दूसरे की बुराई भलाई करते हैं और मनमुटाव रखते हैं, वहाँ इन सबसे दूर बावली लच्छो सबके घर में समान रूप से जाती। उसे न जात-बिरादरी की परवाह न किसी की बुराई भलाई की। वह तो बस किसी के भी घर जाकर बैठ जाती। घर की मालकिनें उससे बर्तन धुलवातीं या झाड़ू-पोंछा लगवातीं और बदले में कभी बासी रखा भोजन, मिठाई या टॉफी दे देतीं। लच्छो खुशी-खुशी खाकर दूसरे घर की ओर बढ़ जाती।
अपनी दुर्घटना के बाद से उसे सावित्री देवी से कुछ ज्यादा ही लगाव हो गया था। इसलिए उसका सबसे ज्यादा उठना-बैठना उन्हीं के घर हुआ करता था। सावित्री देवी और उनका परिवार मुहल्ले का सबसे धनाढ्य और संभ्रान्त परिवार था। सावित्री देवी के दो बेटे और एक बेटी थी। बड़ा बेटा नरेन्द्र बाहर नौकरी करता था और छोटा बेटा सुरेन्द्र अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाश में था। बेटी का विवाह हो चुका था। सावित्री देवी के पति ओमप्रकाश रेलवे में अधिकारी थे। लोग उनके परिवार की शालीनता के उदारण दिया करते थे। उनके परिवार के सदस्यों का शहर के बड़े-बड़े लोगों से अच्छा परिचय और सम्बन्ध था। स्वयं सावित्री देवी भी कई सामाजिक संस्थाओं की सदस्या थीं। लच्छो की माँ उनके घर झाड़ू-पोंछा करती थी। वह उनको बहुत मानती थी। तीज-त्योहार या किसी माँगलिक कार्य में वह उनके घर का पूरा काम अकेले जी समेटती। इस कारण लच्छो के प्रति वह कुछ दयालु थीं। उसके खाने-पीने से लेकर पहनने-ओढ़ने का ध्यान रखतीं। तीज-त्योहार पर उसे अच्छे भोजन के साथ-साथ कपड़े, चप्पल आदि भी देती रहती थी।
सावित्री देवी घर में अकेली रहती थी। पति अक्सर बाहर जाते रहते थे और छोटा बेटा कभी दिल्ली तो कभी नोयडा की दौड़ लगाता रहता था। अकेली सावित्री देवी कभी-कभी लच्छो को बुला लेतीं और उसके साथ घर की साफ-सफाई का करती रहतीं। जब से लच्छो ने बचपन की दहलीज पार की है, स्त्री होने के नाते सावित्री देवी उसका विशेष ध्यान रखने लगी हैं। उसके कपड़े, बैठने-उठने , चलने-फिरने आदि के ढंग को गौर से देखती, उसे टोकती और समझातीं। पर, बावली लच्छो कितना समझ पाती यह तो भगवान ही जाने।
एक दिन वह कुछ परेशान-सी थी। बार-बार अपना पेट दबा रही थी और शौचालय जा रही थी कि सावित्री देवी की नज़र उसकी फ्रॉक पर पड़ी और वह सब समझ गयीं। तब से वह महीने के खास दिनों में लच्छो को अपनी निगरानी में रखने लगीं वरना उस बावली को तो कुछ पता ही नहीं कि उसके कपड़ो पर कैसे दाग लग रहे हैं? समय के साथ-साथ बढ़ते हुए लच्छो ने सोलहवें वर्ष में प्रवेश कर लिया।
उस दिन सावित्री देवी बहुत खुश थीं। पति और दोनों बेटे घर थे। बेटी भी दस बजे तक आने वाली थी क्योंकि आज बड़े बेटे नरेन्द्र की सगाई होनी थी। काम कुछ ज्यादा ही था। ऊपर से मेहमानों के आने की खबर लगातार फोन से मिल रही थी। अकेले इतना काम कैसे संभालती, सो सुबह सात बजे ही लच्छो को बुला लाईं और साफ-सफाई में लग गयीं।
ईश्वर ने नारी को सामने वाले की दृष्टि पहचानने की विलक्षण क्षमता दी है। उसकी छठी इन्द्री सामने वाले की दृष्टि में छिपे गुण-दोषों को सहज ही भाँप लेती है। लच्छो बावली ज़रूर थी लेकिन ईश्वर प्रदत्त इस छठी इन्द्री से उसने नरेन्द्र की आँखों में छिपी वासना को भाँप लिया था। उसने अपने शरीर पर केन्द्रित नरेन्द्र की दृष्टि की गरमाहट को कई बार महसूस किया था। उसे नरेन्द्र की दृष्टि से उसके मन की कालिख साफ नज़र आ रही थी। इसलिए वह खुद उससे बच रही थी। अगर नरेन्द्र आँगन में होता तो वह कमरे की सफाई करने में लग जाती और अगर नरेन्द्र कमरे में आता तो वह आँगन या बरामदे में या सावित्री देवी के आसपास मँडराने लगती। जैसे-तैसे दिन कटा और शाम के समय नरेन्द्र की सगाई का कार्यक्रम हँसी-खुशी के साथ सम्पन्न हो गया। चार दिन बाद लड़की की गोद भराई की रस्म के लिए न्योता देकर लड़की वाले चले गये दिनभर काम करने के एवज में शाम को लच्छो को नए कपड़े और मिठाइयाँ मिलीं। आज लच्छो भी बहुत खुश थी लेकिन नरेन्द्र की आँखों में छिपी शैतानी छाया को याद करके वह सहम रही थी।
कपड़ों की खुशी और रोज़ मिठाई के साथ बढ़िया भोजन का लालच बावली लच्छो को अपनी इज्जत से ज्यादा न था। अगले दिन वह सावित्री देवी के घर नहीं गयी बल्कि अपने घर से ही बाहर नहीं निकली। इस बात का ध्यान सावित्री देवी को तब आया जब दोपहर के भोजन के बाद के बर्तन शाम तक पड़े रहे। वे दौड़ी-दौड़ी लच्छो को बुलाने पहुँची तो पता चला कि आज सुबह से ही वह अपनी कोठरी में पड़ी है, कहीं भी नहीं गयी। सावित्री देवी ने प्यार भरा हाथ उसके सिर पर रखा और बहला-फुसलाकर घर ले आयी। आते ही बर्फी भरी कटोरी उसके हाथ पर रख दी। जिसके घर में दो वक्त की रोटी भी बड़ी मुश्किल से नसीब होती हो उसके लिए बर्फी से भरी कटोरी छप्पन भोग से कम न थी। ऊपर से बर्फी से भरी कटोरी देखते ही उसे अपनी माँ की याद आ गयी। नवरात्रों में देवी को बर्फी का ही भोग लगाया करती थी और प्रसाद में वही बर्फी उसे मिला करती थी। लच्छो ने बर्फी भरी कटोरी झट से लपक ली और बर्फी खाने लगी। बर्फी खाने के बाद सावित्री देवी ने उसे जूठे बर्तनों के पास बैठाकर प्यार से समझा दिया कि जब सारे बर्तन धुल जाएँगे तो कचौड़ियाँ मिलेंगी।
बर्तनों के पास बैठते हुए लच्छो की भयातुर नज़रें नरेन्द्र को खोजने में लगीं। उसे कहीं न पाकर वह निश्चिंत हो गयी और पूरी तन्यमता से बर्तन रगड़ने लगी। मुँह में घुली बर्फी की मिठास उस समय कड़वी हो गयी जब उसे महसूस हुआ कि उसके पृष्ठ भाग पर किसी कठोर स्पर्श हो रहा है। उसने झट से पीछे देखा तो उसका दिल दहल गया। नरेन्द्र अजीब सी कुटिल मुस्कान लिए उसे घूर रहा था और उसकी पीठ पर हाथ फेर रहा था। वह छटपटाकर उठ गयी लेकिन नरेन्द्र ने उसके कंधों को बहुत क्रूरता से दबाकर उसे वहीं बैठने को मजबूर कर दिया। साथ ही उसको कठोर हाथों ने लच्छो के कोमल अंगो को बेदर्दी से मसल डाला। नरेन्द्र की इस क्रूर कामासक्त दृष्टि से सहमी बेचारी लच्छो चुपचाप बर्तन धोकर वहाँ से भाग पड़ी।
आज वही दिन था जब घर के सभी लोग नरेन्द्र की होने वाली पत्नी की गोद भरने जा रहे थे। जाने से पहले सावित्री देवी ने खासतौर पर लच्छो के घर जाकर उसे झाड़ू पोंछा और बर्तन धोने के लिए उसकी सौतेली माँ अंगूरा से बार-बार कहा कि ध्यान से लच्छो को भेज दे। दिन भर तो लच्छो नहीं गयी। लेकिन दोपहर तीन बजे के करीब अंगूरा ने उसे झिड़ककर सोते से उठा दिया, “जा अम्मा के यहाँ काम करने जा...पड़ी...पड़ी चौड़ी हो रही...चल उठ” कहते हुए उसने एक लात लच्छो की कमर पर जमा दी। कैशोर्य निद्रा बहुत गहरी होती है। लेकिन लात की चोट से लच्छो नींद टूट गयी और वह उठ बैठी। उसके उठते ही माँ ने उसके बाल पकड़कर फिर वही वाक्य दोहराया, “जा अम्मा के यहाँ...जा...उठ।” नींद की खुमारी उतरी न थी कि वह सावित्री देवी के घर पहुँच गयी। दरवाजा खुला था। अन्दर जाकर देखा, तो उसे कोई नज़र नहीं आया। रसोई घर में बर्तनों का ढ़ेर लगा था। वह वहीं बैठकर बर्तन धोने लगी। नींद की खुमारी अभी भी बाकी थी। एक, दो, चार बर्तन धो-धोकर रखने लगी। अचानक कई लोगों के एकसाथ हँसने की ऐसी आवाज़ आई कि उसकी नींद पूरी तरह खुल गयी। वह एकदम खड़ी हो गयी। रसोईघर के बाहर आकर देखा कि नरेन्द्र अपने तीन दोस्तों के साथ खड़ा था।
“वाओ...क्या माल है यार?” उनमें से एक ने कहा। तो दूसरे ने बात बढ़ाई, “आज होगी ठीक से गोद भराई...।” वे सब ठहाका लगाकर हँसने लगे। लच्छो दिमाग से कमज़ोर थी लेकिन मन से नहीं। उसके मन ने उनकी बुरी नियत को तुरन्त भाँप लिया। वह उनकी जलती नज़रों से अपने अंगों के छुपाने का प्रयास करने लगी। पर हायऍ यह क्या जल्दी बाजी में वह दुपट्टा तो घर पर ही भूल आई और कमबख्त कुर्ता भी कैसा है कि आगे के बटन पूरी तरह नहीं लगते। वह बुरी तरह घबरा गयी, उसकी साँसे तेज चलने लगीं। वह शीघ्रता से मुख्य द्वार की ओर भागी कि तभी नरेन्द्र ने लपक कर उसे ऐसे ही दबोच लिया जैसै कोई तेंदुआ अपने शिकार को पकड़ता है। वह इतनी डर गयी थी कि उसकी चीख भी नहीं निकल पा रही थी। नरेन्द्र और उसके दोस्त उसे उठाकर कमरे में ले आए। जैसे भूखे भेड़िए अपने शिकार की खाल को कुछ ही पलों में उधेड़ देते हैं उसी तरह उन सबने उसके कपडों को तार-तार कर दिया। अब तक नरेन्द्र दरवाजा बन्द कर चुका था। सबने मिलकर अपने ताज़ी शिकार लुत्फ़ उठाया। असहाय और निरीह प्राणी की तरह लच्छो के आगे अपने शरीर और मन पर ज़ख्म खाने के अलावा कोई चारा न था। वे दरिन्दे उसके शरीर के अंगों को भूखे कुत्तों की तरह चबा रहे थे। हकलाते हुए उसके मुँह से केवल यही निकलता, “भइ...या...नहीं...हमें...जाने दो...बहुत...दर्द हो...रओ है...भइया...छोड़ देओ हमें...भइया....” उसको तड़पता और कराहता देख दरिन्दों को और नशा चढ़ रहा था और वे उस पर जुल्म करते हुए गिनती करते जाते थे, “...तीन...चार...अबे...मैं तो पाँच...बार गंगा नहा लिया” जैसे वाक्य बोलते।
लगभग चार घंटे तक यह घिनौना खेल चलता रहा और जब चारों बेसुध होकर से गये तो बेचारी लच्छो लड़खड़ाकर उठी और अपने कपडों की कतरने बटोरने लगी। अँधेरा हो चुका था, सो उसी को अपना आवरण बना और लुटी हुई लाज को बचाने के प्रयास के साथ वह घर की ओर भागी। सौतेली माँ ने देखा तो चीख पड़ी, “हाय...हाय...रंडी कहाँ से मुँह काला कर आई...बहुत आग लगी थी...हाय भगवान...अब यह दिन देखना रह गया था....अम्मा तो पैदा कर के मर गयी। हमारे लिए छोड़ गयी ये करमजली...रण्डी...इधर-उधर मुँह मारती घूम रही है...मर क्यों नहीं गयी...आने दे बाप को बताती हूँ तेरी करतूत।” लच्छो चुपचाप अपनी कोठरी में चली गयी। कमरे में पड़ी-पड़ी कराहती रही, रोती रही और सो गयी।
आधी रात को उसके शरीर पर चोट लगने के कारण नींद खुली देखा उसका नशेड़ी बाप उसे चप्पलों, लातों और घूँसों से मार रहा था और गालियाँ बक रहा था लेकिन वह बेसुध पड़ी रही। उन चोटों से ज्यादा पीड़ा तो उन जख्मों की हो रही थी जो उसके मन पर आज लगे थे। वह चुपचाप पड़े-पड़े रोती रही। जब बाप उसे मारते-मारते थक गया तो खुद उसके ऊपर लद गया। वह रात लच्छो की जिन्दगी की तरह बहुत काली थी। लेकिन उसके बाद यही काली रात अलग-अलग तरह से खुद को दोहराने लगी। एकबार वह घर से भागी तो बाप पकड़ लाया। वैसे भी अब वह सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी बन चुकी थी।
जब कई दिनों तक लच्छो नहीं आई तो एकदिन सावित्री देवी खुद उसके घर पहुँच गयी। अंगूरा ने उन्हें बताया कि कहीं से मुँह काला करवाकर आई थी। बाप ने बहुत मारा और घर से बाहर निकलने को मना कर दिया है। सावित्री देवी लच्छो की कोठरी में आ गयी। उससे कुछ पूछना चाहा, और स्नेह भरा हाथ उसके सिर पर रखा तो अपनी माँ की कल्पना में लच्छो बिफर पड़ी। उनके गले लग गई और बुरी तरह रोने लगी। अनगिनत बार सावित्री देवी ने उससे पूछा, “किसने किया...कौन था...कुछ तो बता...” वह कुछ न बोली, लेकिन जब बार-बार उसके गाल, माथा और सिर को सहलाते हुए सावित्री देवी ने उसको अपनी माँ समझने को कहा तो उस बावली ने सच बोल ही दिया, “नरेन...भइ...या...।” ये शब्द सावित्री देवी के कानों में पिघले सीसे की तरह पड़े। उन्होंने तुरन्त एक झटके में लच्छो को अपने से अलग कर दिया। खुद को माँ के जैसा समझने उनकी सारी दलीलें व्यर्थ हो गयीं। सारा ममत्व एक ही बार में छू हो गया। भाषा बदल गयी और चीखते हुए बोलीं, “वाह री रण्डी...क्या फल दिया तूने मेरे सीधेपन का...अरी मैंने तो बिन माँ की बच्ची समझकर तुझे सहारा दिया। कपड़े-लत्ते, खाना-पीना, दवा-दारू सबका ध्यान रखा और तूने यह सिला दिया कि मेरे हीरे जैसे बेटे पर ही लाँछन लगा दिया। उसे फँसाना चाहती है...किसी और का पाप उसके सिर पर मँडकर मेरे लाल को बदनाम करना चाहती है...नासपीटी...मर जा कहीं जाके...” सावित्री देवी न जाने कितनी देर तक उसके गालियाँ देती रहीं। अपने अहंकार और झूठी शान के मद में चूर यह न समझ पाईं कि बावली झूठ क्यों बोलेगी। उसे उनसे क्या लालच था? उनके हीरे जैसे बेटे ने लच्छो के कोमल शरीर और मन पर कितने घाव बनाए थे उसकी पीड़ा को नारी होकर भी सावित्री देवी समझ नहीं पाईं जिसकी उसे अब तक आशा थी। हताश निराश और असहाय लच्छो अपनी कोठरी में ही पड़ी रही।
एक सुबह शौच को जाते समय लच्छो के पेट पर अंगूरा की नज़र पड़ी तो वह चौंक गयी, “हाय राम! रण्डी पेट से है...अब क्या करूँ?” उसके बाप को बताया तो उसका गला भी सूख गया। होंठ खुश्क हो गए, दिल की धड़कन बढ़ गयी। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। तभी अंगूरा को ध्यान आया कि उसका दूर के रिश्ते का एक भाई कम्पाउण्डरी करते-करते किसी गाँव में डॉक्टर बन बैठा है। उसे बुलावा भेजा गया। दो-तीन दिनों में ही एक शाम वह आ पहुँचा। सारी बात जानकर और अपनी बहन अंगूरा को सब ठीक कर देने की बात कहकर। उसने उस रात लच्छो का अपने ढंग से मुआयाना किया और जब दिल भर गया तो उसे बेहोश करके उसका पेट गिरा दिया। असह्य पीड़ा के सामने बेहोशी ने भी घुटने टेक दिये। अर्धचैतन्यावस्था में होते हुए भी लच्छो बहुत चीखी-चिल्लाई और छटपटाई मगर सब निष्फल। माँस का लोथड़ा सरकारी कूड़ा घर में फेंक दिया गया और क्षत-विक्षत लच्छो को रिक्शे में डालकर रातोंरात कहाँ ले जाया गया कुछ पता नहीं।
दो-तीन दिन के बाद अखबारों में खबर ज़रूर छपी थी कि ‘गर्भपात कर सरकारी कूड़ा घर में फेंके गये नवजात के शव पर झपटे कुत्ते’। कुछ समय तक लोग आश्चर्य करते रहे कि अचानक लच्छो कहाँ गुम हो गयी लेकिन उसके बाद कोई कहता कि रेलवे ट्रेक पर जो लाश मिली थी वह लच्छो की थी, तो कोई कहता रेलवे स्टेशन पर जो पगली है वही लच्छो है। हाँ, एकबार जरूर सावित्री देवी ने रेड लाइट पर खड़ी अपनी कार के बाहर एक पगली लड़की को देखा था जो लगातार उन्हें देख रही थी और कुछ बड़बड़ा रही थी। पता नहीं क्या कह रही थी? लेकिन सावित्री देवी के न जाने क्यों लगा कि वह कह रही है, “नरेन...भइ...या।”
डॉ. लवलेश दत्त
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