केसरिया बालम
डॉ. हंसा दीप
16
बारूद के ढेर पर
घर की आर्थिक-मानसिक दुश्वारियों से बेखबर आर्या धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी। दोनों बड़ों के दुनियावी बदलाव से बेखबर आर्या अब हाईस्कूल में चली गयी थी। नंबर एक शैतान, पूरा घर सिर पर रखती। पापा-मम्मी के साथ खूब बातें करती, स्कूल की, दोस्तों की। बाहर कड़ाके की ठंड और बर्फ के कारण बच्चे घर में बंद हो जाते। मॉनोपाली की तरह कई बॉक्स गेम थे जो सर्दियों में अपने परिवार के साथ घर के अंदर बैठकर बच्चे खेलते।
“ममा, आप जल्दी हार जाती हैं।”
“पापा तो कभी नहीं हारते।”
मासूमियत से कही गयी उसकी बातें दोनों महसूस करते। आर्या की वह खिलखिलाती हँसी धानी को दूर-सूदूर ले जाती। उसी आँगन में एक बार फिर से दस्तक देती जिसकी दहलीज बरसों पहले छूट गयी थी। आज भी पैर उस दहलीज को मन ही मन कई-कई बार लाँघते और लौट आते। उसके मन में एक प्रश्न उठता कि लड़की की शादी के बाद दहलीज लाँघ कर निकलने के बाद पूजा का रिवाज किस धारणा को लिए होता होगा। इसलिये तो नहीं कि लड़की उस दहलीज के भीतर वापस रहने के लिये कभी न आए। क्या यही कारण है कि लड़की हर जगह सहती रहती है क्योंकि जिस घर में पली-बढ़ी उस पूजा के बाद उस घर के दरवाजे तो बंद ही हो जाते थे उसके लिये।
अंदर ही अंदर बगैर सिर-पैर के ये सवाल छटपटाते, क्योंकि जवाब तो उसे मालूम थे। वह यहाँ इसलिए नहीं है कि उसके पास दूसरी कोई जगह नहीं है रहने के लिये। माँसा-बाबासा नहीं है तो क्या हुआ? वह स्वयं इतनी सक्षम है कि अपने लिये रास्ते बनाए हैं उसने। वह किसी विवशता या बेबसी में नहीं जी रही है। हारना तो धानी ने कभी नहीं सीखा था। वह तो सिर्फ अपने रिश्ते संभालने का हर संभव प्रयास कर रही है ताकि कभी भी उसे यह न लगे कि उसने पूरी कोशिश नहीं की।
वैसे भी अपनों से हारना भला कोई हारना होता है। अपनों से हार भी जीतने की ही खुशी देती है। धानी ने अब बाली से सवाल करने बंद कर दिए थे। अपने काम में व्यस्त रहती। आर्या के साथ बेकरी और घर की जिम्मेदारियों में स्वयं को उलझाकर रखती। रात तक उसकी यह हालत हो जाती कि किसी बच्चे की तरह थककर, बेसुध सो जाती।
बाली को इस बात से भी शिकायत थी कि धानी दूर क्यों रहती है। पहले की तरह उसके आगे-पीछे क्यों नहीं रहती। उसके वे सारे सवाल अब मौन क्यों हो गए हैं। धानी के मौन के बारे में कयास लगाती बाली की सोच उसके दिमाग को अधिक कुंठित करने लगी।
धानी का मन कई बार बावला हो उठता। बेकरी में इज़ी के कंधों पर सिर टिका देती और कहती – “ज़िंदगी इतनी मुश्किल क्यों है इज़ी!”
“अगर आसान हो जीना तो फिर क्या जीना माय डियर!”
वह उसके कंधे दबा कर सांत्वना देती तो रुके हुए आँसू बह निकलते। इज़ी कोई सवाल न करती। वह धानी की जिंदगी में आ रहे बदलावों को महसूस कर रही थी। बस उसके हाथों में हाथ देकर दिलासा भर देती रहती।
“धानी, अपने मन को हल्का कर लो, बहा दो सारा दर्द।”
“मैं अब थकने लगी हूँ इज़ी।”
“नहीं, तुम बहुत बहादुर हो, तुम नहीं थक सकतीं।”
सचमुच सिसकने लगती धानी। इज़ी के सीने से लगकर। बहते आँसू अंदर की पीड़ा को कुछ कम करते। इज़ी उसकी पीठ थपथपाती, अपनी गीली हो आयी आँखों को पोंछने लगती। कुछ पलों के लिये कमजोर पड़ती धानी को फिर से ताकत मिल जाती। उन अपनों से जो बहुत पराए थे। उन अपनों के दिए दर्द से राहत मिलती जो अब पराए हो गए थे।
लाख अच्छाइयाँ होने पर भी सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं होता। जिंदगी के खुशनुमा दिनों को बदलते देर नहीं लगती। खुद को भी अहसास नहीं हो पाया कि कब और कैसे वे बदलते पल घुस आए अपने जीवन में। कब नियति ने अपनी दिशा बदल कर डोर खींचनी शुरू कर दी। कहीं न कहीं, समय के बदलते चक्र में उसका असर दिखना शुरू हो गया था। हौले-हौले मन के प्यारे रिश्तों को जरूरतों और प्रतिकूल समय के मत्थे चढ़ने में देर नहीं लगी।
बाली ने कभी कुछ ऐसा नहीं किया जिससे किसी बाहर वाले को ये लगे कि उसकी अपनी पत्नी अपने भीतर कोई दर्द झेल रही है। बाली के लिये जितनी कोमल, उतनी ही कठोर थी काम पर। सख्त और अनुशासित।
“थोड़ी देर सुस्ता ले धानी” ग्रेग कहता तो वह टाल देती।
“अभी नहीं, यह हाथ का काम खत्म करके ही ब्रेक लेंगे।” उसे देखकर साथ वाले भी उतना ही श्रम करते। कभी-कभी इज़ी उसे हाथ पकड़ कर बैठा लेती तो धानी उसे स्नेह से देखती रह जाती।
“इज़ी तुम तो पिछले जन्म में मेरी बहन थी।”
“पिछले का तो मुझे नहीं पता, पर इस जन्म में तो मैं हूँ, पक्का”
“सचमुच”
धानी के होठों पर मुस्कान फैल जाती, और काम की गति भी तेज हो जाती।
एक आत्मनिर्भर, साहसी और निर्भीक महिलाकर्मी के रूप में अपनी जगह बना चुकी थी धानी। नये देश के बारे में भी उसने इतना पढ़ लिया था कि बहुत कुछ जानने लगी थी। अपने व्यक्तित्व को निखारती अपने काम के साथ ही वह खुद भी बड़ी बनती जा रही थी।
एक के बाद एक काम निपटाते धानी स्वयं को इतनी निढाल कर लेती कि और कुछ सोचने की ताकत ही न रहती। एक घर में दो अलग संसार बसने लगे थे। बिटिया के साथ एक हो जाते, स्नेहिल और ममतामयी ममा-पापा। समय की तासीर ही कुछ ऐसी है कि नजदीकियाँ तो धीरे-धीरे बढ़ाता है लेकिन दूरियाँ बढ़ाने में बहुत फुर्ती दिखा जाता है। भागने लगता है बेतहाशा।
वह पहले भी इसी तरह चुपचाप काम करती रहती थी लेकिन काम के बीच से उसे दबोच लिया करता था बाली। अपनी बाँहों में उठा कर ले जाता था। कोई ना-नुकुर नहीं चलती थी। कभी किचन से तो कभी सफाई करते हुए, हाथ में ही वैक्यूम क्लीनर रह जाता और बाली की गिरफ्त में होती वह – “छोड़ो न बाली, बस जरा-सा काम बचा है।”
“काम मैं कर दूँगा तुम्हारा, पर अभी नहीं।”
वह इतना उतावला हो जाता कि एक पल की देर भी बर्दाश्त नहीं होती।
“ओके बाबा, आराम से” वह आसपास का सामान हटाने लगती कि कहीं किसी चीज से चोट न लग जाए।
“बस तुम यहीं रहो, मेरी बाँहों में। ऐसे छोटे-मोटे काम करती क्यों हो तुम, ये तुम्हारे लिये नहीं हैं।”
“हूँ” कुछ न बोल पाती वह।
“तुम सिर्फ और सिर्फ मेरे लिये हो।” बाली का प्यारा-सा आलिंगन उसे डुबा लेता अपनी कशिश में। तब शब्दों की नहीं, अनुभूतियों की भाषा कायम होती। दो मन, दो तन, बेसुध, एक दूसरे में खोए...।
अब बहुत कुछ बदल गया था। तन की प्यास बुझाने तो अभी भी आता था बाली। लेकिन उसकी उग्रता बढ़ती जा रही थी। धानी का शरीर कोई साधन तो था नहीं कि जब चाहा उपयोग कर लिया और फिर फेंक दिया। उसे ये नोच-खसोट भारी पड़ने लगी थी। जितना शरीर दुखता उससे कहीं अधिक मन को चोट पहुँचती। तन-मन-धन से समर्पित होने के बावजूद ऐसी पीड़ा का सहना अंदर तक व्यथित कर जाता।
कभी दोनों में गरमा-गरम बहस नहीं होती, न ही एक दूसरे पर चीखते-चिल्लाते। अलसाया थोपा हुआ मौन था। प्रयासों की सीमा खत्म हो चुकी थी। संवादहीनता की दीवार दीमक की तरह निगलती जा रही थी इस रिश्ते को। इतने ढीठ और पसरे हुए मौन के बाद भी जब वह धानी के करीब आता तो उम्मीदों के दीए में रौशनी दिखने लगती उसे। उसका उम्मीदों का राग अलापना कम ही नहीं होता। धानी की उम्मीदें और बाली की उपेक्षाएँ आपस में जूझती रहीं।
एक तरफा रिश्ते कभी नहीं टिकते परन्तु धानी के प्यार के मजबूत पिलर अपने कंधों पर इस रिश्ते का बोझ झेले हुए थे। घर का भी, आर्या का भी। धानी और बाली अपनी-अपनी जिंदगी के खामोश पहलू को जीते महज दो अलग-अलग प्राणी रह गए थे जो आर्या से जुड़े हुए थे या फिर जिन्हें आर्या ने जोड़ कर रखा था।
भारत जाने की कोई वजह नहीं निकल पा रही थी पर धानी की बहुत इच्छा होती कि वह भारत जाकर कुछ समय वहाँ बिता सके, सलोनी-कजरी से जी भर कर बातें कर सके। सलोनी से फोन पर बात करते हुए एक बार अपनी व्यथा सुनाने ही वाली थी कि उधर से उसके रोने की आवाजें आने लगीं। उसके संबंध अपने ससुराल वालों से बिगड़ते ही जा रहे थे। तब धानी अपना रोना-गाना भूलकर उसे ही सांत्वना देती रही। कजरी से बात करती तो वहाँ सब कुछ कुशलमंगल होने के आसार दिखाई देते। तब कजरी को कुछ बता कर उसे दु:खी करने का मन नहीं होता।
कई बार यह भी सोच लेती कि यह सब छोड़कर चली जाए वापस अपनी उसी दुनिया में जहाँ से आयी थी पर फिर दिल न मानता। तत्काल बदल जाती वह सोच। माँसा-बाबासा की आत्मा को इससे कष्ट होगा कि उनकी लाडो अकेली रह गयी है।
बाली के सारे दोस्त भी उससे दूर जा चुके थे, वे सब जो अच्छे दिनों में उसके साथी थे। बाली के इस रूप से डर कर सोहम जैसा दोस्त भी दूर चला गया तो औरों का क्या। बाली का गुस्सा नाक पर ऐसा रहता जो चाहे न चाहे आँखों को नज़र आ ही जाता था। सोहम के अलावा भी कुछ दोस्तों ने धानी को चेताया था। धानी सुनती सबकी परन्तु करती अपने मन की। उम्मीदों की जमीन राजस्थान से आयी थी, जहाँ रेत में भी पानी मिल जाया करता था। जहाँ बंजर रेगिस्तान भी अपने भीतर प्यार की नदियाँ समेटे रहते। बस, उसी माटी की खोह में छुपी अपनी उम्मीद को छोड़ नहीं पायी। कहीं से भी हरियाली दिखने की चाह बनी रही।
एक दिन बहुत थकी हुई थी वह। तन-मन दोनों की थकान एक हो गयीं। उसे बहुत गुस्सा आया था, इतना कि आज कह ही देगी बाली से कि – “असफल तुम हुए हो, इसमें मेरा क्या दोष है! गलतियाँ तुम करते हो और शरीर मेरा नोचते हो!”
उसे लगा था कि बारूद का ढेर अब बढ़ता जा रहा है। विस्फोट होता है तो हो ही जाने दो। वह तैयार थी लेकिन उसकी बदकिस्मती कि उस दिन बाली घर ही नहीं आया। चिंता के मारे उसका गुस्सा तो रफूचक्कर हो गया साथ ही एक नया डर घुस गया मन में कि वह कुछ कहेगी तो शायद बाली लौट कर ही न आए। यह भी कि वह स्वयं को तकलीफ पहुँचाने के लिये कुछ कर न बैठे। स्वयं को संभाला। अभी तो सिर्फ सोचा भर था, कहीं कह देती तो पता नहीं क्या हो जाता।
क्रमश...