Gavaksh - 12 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | गवाक्ष - 12

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गवाक्ष - 12

गवाक्ष

12=

संभवत: कॉस्मॉस मंत्री जी को उस विषय से हटाना चाहता था जो उन्हें पीड़ित कर रहा था ;

" क्या राजनीति बहुत अच्छी चीज़ है जो आप इसमें आए?" दूत नेअपनी बुद्धि के अनुसार विषय-परिवर्तन करने चेष्टा की ।

"राजनीति कोई चीज़ नहीं है, यह एक व्यवस्था है । किसी भी कार्य-प्रणाली के संचालन के लिए एक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। समाज को चलाने के लिए एक व्यवस्था तैयार की गई, यही व्यवस्था राजनीति है यानि--'राज करने की नीति'! वास्तव में यह राज नहीं 'सेवा-नीति' होनी चाहिए। इसमें सही सोच, वचन-बद्धता, एकाग्रता, सही मार्गदर्शन होना चाहिए और इसमें ऐसे व्यक्तियों को कार्यरत होना चाहिए जो अपने विचार शुद्ध व सात्विक रख सकें किन्तु ऐसा हो नहीं पाता ----मेरा तो यही अनुभव है कि राजनीति में न चाहते हुए भी स्वार्थ का समावेश हो जाता है । सरल, सहज व्यक्ति इसमें कूदकर कहीं न कहीं फँस ही जाता है । " मंत्री जी ने कॉस्मॉस को राजनीति के बारे में अपने विचार बताए ।

" ऐसा क्यों?" कॉस्मॉस ने मंत्री जी से इस पहेली का उत्तर जानना चाहा ।

" इसके बहुत से कारण होते हैं जिनमें अपने राजनीतिक दल को जीवित रखने के लिए अर्थ(धन) की व्यवस्था करना, वह व्यवस्था किस प्रकार की जाती है उसका ध्यान रखना तथा उसका व्यय सँभालना बहुत बड़ा कारण है। एक बार किसी भी प्रकार का स्वार्थ आया कि मनुष्य के अपने स्वार्थ सबसे आगे आ खड़े हुए। यह केवल राजनीतिक क्षेत्र की बात नहीं है, क्षेत्र कोई भी हो सबमें सन्तुलन की आवश्यकता है । " दो पल रूककर फिर बोले ;

"हम नहीं चाहें तो भी हमें पंक में धकेल दिया जाएगा । "

कॉस्मॉस समझने की चेष्टा करते हुए अपनी आँखों को मंत्री जी के चेहरे पर गोल-गोल घुमाकर कुछ समझने की चेष्टा कर रहा था ।

" हाँ, राजनीति में राजनीतिज्ञ की कड़ी परीक्षा होती है --इस परीक्षा से न तो बुद्ध ही बच सके न ही कृष्ण ! कितने महान दार्शनिक थे वे !फिर हम जैसे लोग ठहरे आम मनुष्य जो राजनीतिक के 'र' तक का अर्थ नहीं समझते, कैसे इसकी कीचड़ में भीतर जाने से स्वयं को रोक सकते हैं? सच कहूँ तो मैं स्वयं को सुधारने के लिए ही राजनीति में आया था लेकिन पीड़ा इस बात की हुई कि जिस भावना को लेकर मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था, मेरी वह भावना इसमें आने के बाद कहाँ बनी रह सकी? मैं सबसे न्याय करना चाहता था लेकिन मुझे नहीं लगता मैं वह सब कर सका जिस प्रतिज्ञा तथा सोच को लेकर मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था। "

इस संवेदनशील दूत की यही समस्या है । इसमें कॉस्मॉस से अधिक धरतीवासियों के गुण भरने शुरू हो गए हैं । इसी कारण यह दंड का भागी बनता है। क्या करे? सब अपनी-अपनी आदतों से लाचार रह जाते हैं ।

" तुम्हारे यंत्र की रेती तो न जाने कबकी नीचे पहुँच चुकी, अब?" सत्यव्रत जी ने दूत का ध्यान समय-यंत्र की ओर इंगित किया फिर न जाने किस मनोदशा में बोल उठे;

"वास्तव में राजनीति में प्रवेश करने से पूर्व प्रत्याशी को आत्मकेंद्रित होने का प्रयास करना चाहिए । यदि चिंतन करें, बिना किसीको दोष दिए, बिना किसी का प्रभाव अपने ऊपर ओढ़े हुए अपना कार्य करें तब ही हमारा आत्मकेन्दीकरण हमें दर्शन की ओर ले जाएगा और हम स्वयं से ही सही मार्ग-दर्शन प्राप्त कर सकेंगे । "

दूत निराश लग रहा था। उसे अपने ऊपर क्रोध भी आ रहा था। उसके बहुत से साथी कितने चतुर व बुद्धिमान हैं, वे बिना किसीकी बातों में आए अपना कार्य शीघ्र पूर्ण कर लेते हैं, कुछ ही उस जैसे हैं जो कार्य पूर्ण नहीं कर पाते व बार-बार धरती पर आने का दंड पाते हैं। वह निराश होकर उठने लगा --

" आपसे बहुत कुछ सीखा, अब आज्ञा दीजिए। "दूत ने मंत्री जी के समक्ष अपने हाथ जोड़ दिए ।

" अब क्या करोगे?"मंत्री जी को भी दूत आकर्षित कर रहा था । इतने लंबे समय तक वह उनकी बातें सुनता रहा था, यह प्रशंसनीय था।

"मेरे पास 'सत्य' नाम की एक लंबी सूची है, अब दूसरे किसी सत्य को खोजना होगा । "उसने अपने हाथ में पकड़ी अपनी डायरी दिखाई और अपना 'समय-यंत्र' उठाने के लिए आगे बढ़ा ।

" अगर कोई भी 'सत्य' तुम्हारे साथ जाने के लिए तैयार न हुआ तो?" मंत्री सत्यव्रत जी ने पूछा ।

"तब फिर से वर्ष भर दंड भुगतना होगा । "

"अच्छा !यदि मैं तुम्हारे साथ चलने के लिए तैयार हो जाऊँ तब?"

" तब मुझे अपने इस 'समय-यंत्र' को पुन:स्थापित करना होगा । " दूत की बाँछें खिल गईं। वह हाथ में पकड़े यंत्र को मेज़ पर रखने लगा जो उसने अभी उठा लिया था।

" अभी रुको और मेरी बात ध्यान से सुनो। अभी मुझे अपने कुछ कार्य पूरे करने हैं । तुम कहीं और चक्कर लगाकर आओ । संभवत: तुम्हें कोई 'सत्य' शीघ्र मिल जाए । यदि न मिले तब आ जाना मैं अपने कार्य पूर्ण करके तुम्हारे साथ चलूँगा । "

"हाँ, एक विशेष बात और है----" मंत्री जी को अचानक कुछ स्मरण हो आया था । कॉस्मॉस की पेशानी पर बल पड़ गए, उसने पशोपेश की मुद्रा में मंत्री जी के मुख-मंडल पर अपने नेत्र चिपका दिए ।

" क्या मेरी मृत्यु के पश्चात तुम मेरी अंतिम क्रिया केवल दो दिन तक रोक सकते हो? मैं यह देखना चाहता हूँ कि मेरे द्वारा किए गए कार्यों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? मेरे सामने तो सभी मेरी प्रशंसा के पुल बाँधते हैं । उसके पश्चात मैं निःसंदेह तुम्हारे साथ चलूँगा, यह मेरा वचन है। क्या तुम्हें यह अधिकार है कि तुम दो दिनों तक प्रतीक्षा कर सको?"

कॉस्मॉस ने पल भर चिंतन किया, अपनी ग्रीवा 'हाँ'में हिलाई और मंत्री जी को प्रणाम करके अपने तामझाम के साथ अदृश्य हो गया ।

अब बेचारा कॉस्मॉस पुन: यान के पास वृक्ष की डाली पर लटका अपनी डायरी के पन्नों को पलट रहा था । कितने सारे 'सत्य' थे, चुनाव उसे करना था। न जाने कौनसा सत्य उसकी जकड़ में आ सकेगा। यद्यपि सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि इस धरती पर जन्म लेने के साथ ही उनकी मृत्यु का समय भी सुनिश्चित कर दिया जाता है तब भी कोई इस पृथ्वी को छोड़ना नहीं चाहता। न जाने क्या चुंबक लगाया है धरती के रचयिता ने कि जीवन के सत्य को सब पहचानते है, किन्तु फिर भी मनुष्य सत्य से आँख-मिचौनी करना चाहता है !

'कितनी सुन्दर है यह पृथ्वी ! सबको कितनी स्वतंत्रता है ! अपने मन से जीवन जीने का अधिकार ! प्रेम, स्नेह ये सब एक अलौकिक सुख प्रदान करते हैं । ' कॉस्मॉस सोच रहा था और जिस वृक्ष पर उसने डेरा डाल रखा था, उसकी डालियों को झुका देखकर उसे लग रहा था कहीं वह भी तो इन डालियों के साथ पृथ्वी पर छू तो नहीं जाएगा !

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, उस वृक्ष में बहुत से घने पत्ते थे जिन्होंने उसके नन्हे से यान तथा उसको अपने भीतर ऐसे छिपा लिया था जैसे काले बादल कभी-कभी चाँद को अपनी चादर के तले छिपा लेते हैं । कभी-कभी पवन के हलके से झकोरे उसके चेहरे पर अठखेलियाँ करते, उसे यह सब जैसे मतवाला बना रहा था । जितने दिन वह पृथ्वी पर रहता, उतने दिन एक नया आनंद उसके भीतर हिलोरें मारने लगता।

पवन जैसे गुनगुनाने लगी थी, उसके साथ अठखेलियाँ कर रही थी । एक अजीब सी भावभूमि में डूबती संवेदना से उसका साक्षात्कार हो रहा था । धूप -छाँव से आते-जाते उसके मन के विचार कभी उसे शांत स्निग्ध वात्सल्य की छुअन देते तो कभी चिलचिलाती धूप का स्पर्श !

जैसे वह अपने इस अनुभव को अपनी साँसों में उतारने का प्रयास करने लगा था। एक ऐसा अहसास जो वह पहली बार महसूस कर रहा था । पवन में से कुछ सुरीले स्वर उसको कभी जगाते, कभी उसकी पलकें मूंदते, कभी उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैलाते । वह स्वर-लहरी की ओर आकर्षित हुआ जा रहा था ।

क्रमश..