आधा आदमी
अध्याय-27
‘‘यह मेरी रानी की फोटो हैं जब वह दसवी में थी तब की हैं.‘‘
‘‘आप की बेटी भी आप ही की तरह खूबसूरत हैं.‘‘
‘‘मेरी खूबसूरती क्या अगर तुम इसकी माँ को देखें होते तो देखते ही रह जाते। उसका नैन-नक्श जैसे ऊपर वाले ने बड़ी फुर्सत से बनाया था और वही खूबसूरती मेरी बेटी ने भी पाई हैं.‘‘
‘‘पर माई! आप ने बताया नहीं कि आप की बेटी को हुआ क्या था?‘‘ ज्ञानदीप के पूछते ही दीपिकामाई सीरियस हो गयी और एकटक अपनी बेटी की तस्वीर को देखने लगी। उनके चेहरे पर दुख की रेखाएँ उभर आई थी। लग रहा था जैसे आँखें अभी छलक पड़ेगी। वह गहरी चिन्तन में खोयी थी।
दीपिकामाई को खामोश देख, ज्ञानदीप ने पूछा, ‘‘क्या सोच रही हैं माई? अगर मेरी बातों से आप को दिली-तकलीफ़ हुई हैं तो मैं उसके लिए माँफी चाहूँगा.‘‘
‘‘नहीं-नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं हैं। बस कुछ भूली-बिसरी यादे थी जो ताजा हो गई.‘‘
‘‘लेकिन माई! आप की बेटी को हुआ क्या था? ज्ञानदीप ने दोबारा पूछा।
‘‘बेटा! भाग्य के आगे किसकी चली हैं। कहते हैं भाग्य का लिखा कभी नहीं मिटता, हम सब चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। जानते हो बेटा, मेरी रानी की शादी को तेरह साल हो गए पर उसकी गोद आज भी सूनी हैं। कहाँ-कहाँ किस डाॅक्टर्स को नहीं दिखाया। नीम-हकीम, झाँड़-फूँक, मंदिर-मस्जिद, गिरिजा-गुरूद्धारा। सब जगह उसने माथा टेका, पर अल्लाह! ने उसकी एक न सुनी.....।‘‘ दीपिकामाई की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि ज्ञानदीप का सेलफोन बजा। उसने उठकर हैलो कहा और पूरी बात सुनने के बाद उसने कल मिलने का टाइम दिया।
‘‘क्या बात हैं बेटा, खैरियत तो हैं?‘‘
‘‘फ्रेन्ड का फोन था। खैर छेड़िए, यह बताइए फिर क्या हुआ?‘‘
‘‘डाॅक्टरों के अनुसार, कमी मेरे दामाद में हैं। वह औरत के काबिल नहीं हैं। जबकि यह बात हमारी बेटी ने शादी के एक हफ्ते बाद ही बता दी थी। मगर मैंने उसकी बात को कोई तवज़्जों न देकर उल्टे उसे ही समझाया, जैसा तुम सोच रही हो वैसा कुछ भी नहीं हैं। वह तुम्हारें मन का भ्रम हैं। मगर वह एक ही रट लगाये थी कि मैं ससुराल नहीं जाऊँगी। मैंने उसे अपना वास्ता दिया और बताया कि हिजड़ो की बेटियों से कौन करता हैं शादी। इसलिए मेरी बात मान और चली जा अपनी ससुराल, वह जैसा भी हैं! हैं तो तुम्हारा पति ही। मेरी बात मान कर वह चली गई। मगर फिर वह मुझसे मिलने कभी नहीं आयी.‘‘ दीपिकामाई की आँखें छलक आयी।
‘‘चुप हो जाइए माई.‘‘
‘‘मत रोको बेटा, आज इन आँसुओं को बह जाने दो। शायद इससे मन कुछ हलका हो जाए.‘‘
‘‘पर ऐसी क्या बात हो गई माई, जिससे आप की बेटी ने यहाँ आना छोड़ दिया?‘‘
‘‘शायद वह मुझे अपना दोषी मानती हैं और सही भी हैं बेटा, मैं हूँ ही उसका दोषी। सबसे पहले तो मैंने उससे उसकी माँ को छीना फिर मैंने उसकी शादी ऐसे आदमी से कर दी जो औरत के काबिल नहीं था। पर बेटा, मेरी बेटी मुझे गलत समझती हैं। वह समझती हैं कि मैंने जान बूझकर ऐसा किया हैं। जबकि मेरा ख़ुदा जानता हैं कि मैंने अपने जाने में ऐसा कुछ नहीं किया.”
‘‘आप ऐसा क्यों सोचती हैं माई, भगवान पर भरोसा रखिए सब ठीक हो जाएगा.‘‘
‘‘क्या ठीक हो जाएगा। कुछ नहीं ठीक होने वाला। बचपन से लेकर आज तक मैं यहीं सुनती आ रही हूँ। आज मेरी बेटी जिंदा ल्हाश बन के रह गई हैं। दिन-भर बैठी आँसू बहाया करती हैं। क्या थी मेरी बच्ची और क्या हो गई। अल्लाह ने हमारे पापों की सज़ा हमारी बेटी को दे दी। अगर उसे सज़ा देना ही था तो हमे देता। हमारी फूल जैसी बच्ची ने उसका क्या बिगाड़ा था?‘‘ दीपिकामाई फफक पड़ी थी।
‘‘मैया, का-का सामान लावैं हय?‘‘ चाँदनी ने कमरे में आकर पूछा।
‘‘जो सामान नहीं हैं वह जा के ले आ, यह लें सौ रूपये.‘‘ दीपिकामाई ने नोट उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।
चाँदनी जैसे ही जाने लगी। दीपिकामाई ने टोका, ‘‘हिजड़ा होकर जीन्स पहन कर जाओंगी? और सुन, यह मरदाना खालपी (चप्पल) उतार कर जनानी खालपी पहन कर जाना.‘‘
चाँदनी के जाते ही दीपिकामाई और ज्ञानदीप बाहर आकर बैठ गए।
‘‘अम्मा सलावालेकुम.....।‘‘ पप्पी मेहरा ज़मीन पर बैठ गयी।
‘‘वालेकुमसलाम अउर का हाल-चाल हय.‘‘
‘‘सब ठीके हय.‘‘
‘‘गुरूभाई सलावालेकुम.....।‘‘ अक्का मौसी इस कदर नशे में धुत थी कि उनसे चला नहीं जा रहा था। वह दरवाजें का सहारा लेती हुई अंदर आयी।
‘‘अरी काहे इत्ता पियत हय री जब चल नाय पावत हय। मुँह से लई के गाँड़ तक भर लेत हव.‘‘ दीपिकामाई की बात का अक्का मौसी पर कोई असर नहीं हुआ। वह तो अपनी मस्ती में मस्त होकर कर गाने लगी-
बचपन से यही मेरे अरमान
कि भइया मेरे गांडू बनेंगे
मेरे बन्ने को हैं शेहरा साये
शेहर पर जान कुर्बान
कि भइया मेरे गांडू बनेंगे
मेरे बन्ने को मेंहदी सोहे
मेंदही पर राजकुमार
कि भइया मेरे गांडू बनेंगे।
दीपिकामाई के साथ-साथ सभी हँस पड़े।
‘‘अरी बैठ जा, नहीं तो मर जाएगी.‘‘ दीपिकामाई के कहते ही वह चारपाई पर बैठ गयी।
‘‘गुरू! इत्ता न पिया करव.....।‘‘ पप्पी मेहरा का इतना कहना क्या था कि अक्का मौसी उसकी क्लास लेने लगी, ‘‘अरी चुप मेहरे की झाँट, तैयका मालूम कि दारू होत का हय। पहिले इ बता तू री इत्ती काली काहे होई गई?‘‘
‘‘अब धूप में चलित हय तो काली न होइबै.‘‘
‘‘ई बताव नौंटकी में नाचत हव कि खाली गाँड़ मरवावत हव, तब तुमरी गाड़ दुपूर-दुपूर होत हय.‘‘
‘‘हाँ होत हय.‘‘
‘‘आव इधर देखी तुमरी गाँड़.‘‘
‘‘अरी छोड़व गुरूभाई, तुम भी का लेई के बईठ गई हव.‘‘ कहकर दीपिकामाई ने बातों का रूख बदला और पप्पी मेहरे की तरफ मुख़ातिब हुई, ‘‘अब सिलबट्टा छिनाने का कित्ता लेती हव?‘‘
‘‘पन्द्रह रूप्या लेती हूँ.‘‘
‘‘कईसे चिल्लाती हव.‘‘
‘‘छिनाय लेव सिलौटी चकिया....।‘‘ पप्पी मेहरे के इतना कहते ही सभी खिलखिला उठी।
फिर दीपिकामाई ने अपनी स्टाइल में बोल के दिखाया।
‘‘वाह क्या एक्टिंग की हैं, आप को तो एक्टर होना चाहिए.‘‘ ज्ञानदीप ने तारीफ़ की।
‘‘अरे छोड़ों बेटा, जब नसीब में हिजड़ा बनना लिखा था तो एक्टर कहाँ से बनती.‘‘ दीपिकामाई के सीरियस होते ही वहाँ बैठी सब सीरियस हो गई।
थोड़ी देर बाद पप्पी और अक्का मौसी चली गई। उनके जाने से ज्ञानदीप को काफी राहत मिली। क्योंकि जो बात दीपिकामाई से वह अकेले में कर सकता हैं। उनकी मौजदुगी में संभव नहीं था। ज़ेहन में दीपिकामाई को लेकर कई सवाल उठ रहे थे।
अंततः उसने वक्त की नज़ाकत को देखते हुए पूछ लिया, ‘‘माई! जब आप की शादी हुई तब आप के मन में अपनी पत्नी को लेकर किस तरह के विचार थे?‘‘
कुछ पल ख़ामोशी से गुज़रे मगर अगले ही पल उन्होंने अपनी ख़ामोशी तोड़ी, ‘‘कोई खास वजह तो नहीं थी। मगर हाँ मन में कहीं न कहीं एक अनजाना डर समाया था कि कहीं पत्नी को मेरे इस कुकर्म के बारे में पता चल गया तो क्या होगा? और एक बात बताये बेटा, असलियत में मैं औरत के काबिल नहीं था। इसी डर से मैं शादी नहीं कर रहा था.‘‘
‘‘वह तो ठीक हैं माई, पर पता नहीं क्यों आप की आत्मकथा पढ़ने के बाद मुझे जाने क्यों ऐसा लगता हैं, कि आप की धर्मपत्नी ने जो किया वह किसी भी स्तर पर गलत नहीं था। उनकी जगह पर कोई और भी होता तो शायद ऐसा ही करता। अगर मैंने कुछ गलत कहा हो तो उसके लिए माँफी चाहूँगा.‘‘
यह सुनते ही दीपिकामाई खामोश हो गई। उनके चेहरे पर ग़म की रेखाएँ उभर आयी थी। लगा जैसे अभी वह फट पड़ेगी।
ज्ञानदीप को रह-रह कर अपने ऊपर क्रोध आ रहा था, कि क्यों उसने इस तरह का सवाल किया?
लेकिन अगले ही पल उन्होंने ज्ञानदीप की आँखों में आँखें डाल कर कहा, ‘‘बेटा! हम सब जानते हैं कि सच बहुत कड़वा होता हैं और बहुत कम लोगों में सच सुनने की ताकत होती हैं। मगर मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूँगी। तुमने जो कहा वह बिलकुल सच हैं। मुझे अपनी गलती का एहसास उसी वक्त हो गया था। मगर अपनी परेशानियों में इस कदर उलझी थी कि सोचने-समझने का मौका ही नहीं मिला.‘‘
उनके इस उत्तर से ज्ञानदीप के अंदर का भय खत्म हो गया था। उसने दूसरा सवाल दागा, ‘‘माई! एक तरफ तो आप इसराइल से अपने प्रति धोखा न देने की कसम खिलाती रही और दूसरी तरफ़ आप ड्राइवर से संबंध बनाये थी। यह बात मेरे कुछ हज़म नहीं हुई.‘‘
‘‘किसी ने सच कहा हैं कि इंसान चाहकर भी अपने पहले प्यार को भुला नहीं पाता। मैं भी ड्राइवर को भुला नहीं पा रही थी.‘‘
‘‘मगर पहला प्यार तो आप का शरीफ बाबा था?‘‘
‘‘उस कमीने-नीच से तो मैंने कभी प्यार ही नहीं किया। उससे तो सिर्फ़ पैसे के लिए दोस्ती की थी। पर पहला प्यार तो मेरा ड्राइवर था.‘‘
‘‘तो क्या यह मानती हैं कि आप ने इसराइल के साथ धोखा किया?‘‘
‘‘हाँ मानती हूँ.‘‘
‘‘अगर एक तरह से देखा जाए माई, तो आप ने अपनी बीबी के साथ भी धोखा किया.‘‘
‘‘क्या करती बेटा, जिस चक्रव्यूह में फँसी थी वहाँ केवल धोखा ही धोखा था। चाहकर भी मैं उस धोखें से निकल नहीं पा रही थी। अगर देखा जाये तो मैं खुद एक धोखा बन कर रह गई थी।
‘‘माई! एक और सवाल मेरे ज़ेहन में हैं अगर आप की इजाज़त हो तो पूछुँ?‘‘
‘‘एक क्या दस पूछों.....।‘‘
‘‘आप भी सोच रही होगी कि आज ज्ञानदीप को क्या हो गया हैं जो सवाल पर सवाल पूछे जा रहा हैं। पर क्या करूँ आप की आत्मकथा ने मेरे मन में आप के लिए इतने सवाल खड़े कर दिए हैं जिसे संभाल पाना अब मेरे बस में नहीं हैं। इसलिए मेरा अगला सवाल शहजादे चप्पल वाले को लेकर हैं। जो आपका प्रोग्राम देखते ही आप का मुरीद हो गया और चंद ही दिनों में आप को चाहने लगा। जबकि आप ने उससे कभी अपना प्यार जाहिर नहीं होने दिया। मगर कहीं न कहीं आप भी उसे उतना ही चाहने लगी थी। और अति तो तब हो गई जब आप ने शहजादे चप्पल वाले के सामने इसराइल को अपना भाई बता दिया.‘‘
‘‘असलियत में मैं डर गई थी। मैं नहीं चाहती थी कि शहजादे चप्पल वाले को मेरे और इसराइल के रिश्ते के बारे में कुछ पता चले। जबकि मैं अच्छी तरह से जानती थी कि मैं गलत कर रही हूँ। मेरे अंदर एक कमज़ोरी थी जो भी मुझे दिल से चाहने लगता था तो मैं उसकी तरफ़ आकर्षित हो जाती थी। हालँकि यह कमज़ोरी अधिकतर लोगों में होती हैं। मगर मेरे में कुछ ज्यादा थी। इतना सब कुछ होने के बाद भी कहीं न कहीं मुझे ऐसा महसूस होता था कि जिस प्यार को मैं पाना चाहती थी उसे पा न सकी.‘‘
‘‘माई! एक और सवाल वैसे तो आप सभी धर्मो के जजमानों को मानती हैं, तो फिर आप उस हरिजन पार्टी मालिक के यहाँ क्यों नहीं रूकी?‘‘
‘‘क्योंकि वह सुवर पाले था और मैं बाबा के मज़ार पर जाती हूँ। इसलिए मेरा वहाँ एक पल भी रूकना हराम था। वैसे भी सुवर का नाम लेना चालीस दिन तक अपनी ज़बान गंदी करना हैं.‘‘
‘‘सलावालेकुम.‘‘ अलीगढ़ कुर्ता-पजामा-टोपी पहने सज्जन की आवाज़ दरवाजें से आई।
‘‘वालेकुमसलाम.‘‘ दीपिकामाई बाहरी दरवाजें की तरफ़ मुखातिब हुई।
‘‘मैं बड़ी उम्मीद लेकर आप के दरवाजें पर आया हूँ। मस्जिद निर्माण के लिए आप के दौलतखाने से मुझे चंद रूपये चाहिए। क्योंकि मेरे गाँव में मस्ज़िद नहीं हैं और हम मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने में बड़ी दिक्कत होती हैं.‘‘
‘‘अरे जाव भइया, ई कइसे कह दियौ की गाँव में मसज़िद नाय हय। कउन गाँव हय?‘‘
‘‘फत्तेपुर.‘‘
‘‘काहे झूठ बोलत हव भइया.‘‘
‘‘अल्लाह रसूल जानत हय.‘‘
‘‘अल्लाह रसूल तो सब जानत हय। पर उनसे आज-कल डरता ही कौन हय.‘‘ दीपिकामाई ने उगलदान उठाकर पीक की।
‘‘जब ज़बान बाहर आयेगी और पेट पिचकेगा तब जान जाएगा.‘‘
‘‘अल्लाह रसूल ने आदमी से हिजड़ा बना दिया.....।‘‘ बातों ही बातों में दीपिकामाई बहुत गहरी बात कह गई थी।
यह सुनते ही वह सज्जन चले गए।
दीपिकामाई अपने अंदर उमड़ते शब्दों को रोक न सकी, ‘‘आज कल मंदिर-मस्जिद के नाम पर लोगों ने धंधा बना लिया हैं.‘‘
‘‘आप एकदम सही कह रही हैं। मैंने कहीं पढ़ा था, तिरूपति तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर में लगभग एक हजार किलो सोना और साठ हज़ार करोड़ रूपये की सम्पत्ति हैं। और जानती हैं शिरड़ी साई बाबा मंदिर की सालाना आय दो सौ करोड़ रूपये की हैं। जबकि वैष्णों देवी मंदिर में आनलाइन प्रक्रिया से 6 करोड़ रूपये वार्षिक आय होती हैं। सिद्धि विनायक मंदिर का सलाना आय 55 करोड़ रूपये हैं। अब आप ही बताइए दान के रूप में मंदिरों में खरबों रूपया पड़ा है और हमारे देश की जनता भूखी मर रही हैं। ऐसे दान से क्या फायदा जो किसी भूखे-प्यासे बेसहारे की मदद न कर सके। अगर इस धन का सही इस्तमाल हो जाए तो हमारे देश से गरीबी के साथ-साथ न जाने कितनी समस्याएँ खत्म हो जाए। मगर ये धन के लालची सौदागर यह कभी नहीं चाहेंगे, वे तो सिर्फ अपना ही बनता देखेंगे.‘‘
‘‘सोलह आना तुम्हारी बात जायज़ हैं। दान देना कोई गलत बात नहीं हैं। पर वास्तव में दान हमें ऐसे लोगों को करना चाहिए जिन्हें वाकई उसकी सख़्त जरूरत हैं। यहाँ से बड़े-बड़े घर की मुस्लिम औरतें बम्बई जाए के रमजान महीने में भीख माँगती हैं। और तो और चूड़ियाँ तोड़ के फटे-नुचे पेबंद कपड़े पहन के फितरा जगात माँगती हैं.‘‘
‘‘कैसे-कैसे लोग इस दुनिया में.‘‘
शाम होते-होते ज्ञानदीप दीपिकामाई से पन्ने लेकर घर वापस आ गया और उसी रात पढ़ने बैठ गया-
6-10-1992
”उन्हें आधे धड़ से फालिज़ का अटैक हुआ हैं.‘‘ इसराइल के इतना बताते ही मुझे लगा जैसे अभी मैं गिर पडूँगी। अम्मा की इस हालत के पीछे कहीं न कहीं मैं ही दोषी थी। मैं अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी।
25-11-1992
जब उड़ती-उड़ती यह ख़बर शरीफ बाबा तक पहुँची। तो वह चला आया मुझसे मिलने और अनाप-शनाप कहने लगा।
मैं भी तैश में आ गयी, ‘‘तुम्हें हमें जहाँ पहुँचाना था वहाँ पहुँचा दिया। अब तुम यहाँ क्या लेने आये हो....।‘‘
‘‘तुम्हारी ज़िंदगी मैंने नहीं उस ड्राइवर ने बर्बाद की हैं। मैं तो खर्चा दे ही रहा था.”
‘‘मेरे ज़िस्म से खेलते थे तब पूरा करते थे। आज मैं एक-एक पैंसे की परेशान हूँ, अब मेरी पूरी करो तो जानी.....?‘‘
‘‘तो चलो कमरे में अगर न पूरा करी तो कहों.‘‘
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