1. कितने त्रिशंकु
आखिर क्यों आज हमें हर घर में हमें त्रिशंकु के दर्शन हो रहे हैं ? इसका कारण हम सबको मिलकर खोजना होगा ! लेकिन कारण खोजने से पहले यह तो समझ लीजिए कि त्रिशंकु आखिर है क्या ? इसके उत्तर में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि त्रिशंकु एक प्रकार की मानसिकता है । ऐसी मानसिकता जो किसी अन्य के परिश्रम के बल पर अपनी इच्छाओं को पूरा करने का सुख भोगने की लालसा रखती है । लेकिन यथार्थ में बहुधा ऐसा संभव नहीं हो पाता है । यदि संभव बनाने का प्रयास किया जाता है , तो उसके परिणाम घातक सिद्ध होते हैं ।
दरअसल त्रिशंकु एक पौराणिक पात्र है , जिसको हमारी इस चर्चा में प्रतीक और केन्द्र बिन्दु बनाया गया है । पौराणिक कथा के अनुसार अपनी प्रकृति से पापाचारी सत्यव्रत अपने स्थूल शरीर सहित स्वर्ग में जाना चाहता है । समाज में अपने कुछ वर्जित कर्म करने के चलते वह स्वर्ग का सुख भोगने के लिए पात्र नहीं है । ऋषि विश्वामित्र अपनी तपस्या के बल पर सत्यव्रत को शरीर सहित स्वर्ग भेज देते है , लेकिन वहाँ से उसे देवताओं द्वारा धक्का देकर वापिस धरती पर भेज दिया जाता है । उसका धरती पर पूर्व स्थिति में आना ऋषि विश्वामित्र को अपनी पराजय का आभास दे रहा था , क्योंकि सत्यव्रत के मन में शरीर सहित स्वर्ग में जाने की इच्छा ऋषि विश्वामित्र द्वारा दिए गए वरदान स्वरुप ही जागृत हुई थी । अर्थात शरीर सहित स्वर्ग में जाने का सपना सत्यव्रत को ऋषि विश्वामित्र ने ही दिया था । अब वह न स्वर्ग जा सकता था और न ही धरती पर वापिस आ सकता था । धरती और आकाश के बीच लटके रहना ही उसकी नियति बन गयी थी । उस दिन से आकाश में लपके हुए सत्यव्रत का नाम त्रिशंकु पड़ गया ।
आज जब युवा वर्ग पर हमारी नजर जाती है , तो हम पाते हैं कि नवयुवकों और नवयुवतियों के पैर जमीन पर नहीं टिक रहे हैं और ऊँची उड़ान भरने के लिए उनके पास मजबूत पंख नहीं हैं । मेरे कहने का आशय यह है कि आज के समय में हर माता-पिता यह चाहता है कि उसका बच्चा प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करके ऊँचे पद पर नियुक्ति पा जाए और इतना धन कमाए कि किसी भी तरह की सुख-सुविधाओं की कमी न रहे । अपने इसी सपने को वे बच्चों को देते हैं और इस सपने को साकार करने के लिए वे अपने जीवन की गाढ़ी कमाई बच्चों पर दिल खोलकर खर्च करते हैं ।
इस तथ्य का जब बारीकी से विश्लेषण करते हैं , तो ध्यान में आता है कि बच्चों के पास अब एक ही लक्ष्य है और एक ही सपना है - पैसा कमाना और उस पैसे से भौतिक सुख-साधन जुटाना । यह सपना बच्चों को उसके अभिभावकों ने दिया है । त्रिशंकु की पौराणिक कहानी के अनुसार यहाँ पर अभिभावक विश्वामित्र की भूमिका में दिखायी पड़ते हैं और बच्चे सत्यव्रत की भूमिका में ।
अब कहानी के अगले चरण में चलते हैं । बच्चा जब लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक उपादानों (जिनमें बच्चे की बौद्धिक क्षमता , स्वास्थ्य , संगत और अध्ययन के लिए आवश्यक सुविधाएँ) की प्रतिकूल स्थिति के कारण लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता है , तब सत्यव्रत की तरह वह अपने लिए स्वर्ग के दरवाजे बंद पाता है । अब तक वह भौतिकवादी जीवन शैली और बाजार-दर्शन के प्रभाव में आमूल-चूल डूब चुका होता है । अब उसकी दशा सत्यव्रत की तरह ऐसी हो जाती है कि स्वर्ग के लिए पात्र नहीं है और धरती पर वह आ नहीं सकता , क्योंकि उसके अभिभावक और समाज रूपी विश्वामित्र उसको धरती पर आने नहीं देंगे । सरल शब्दों में कहें , तो यह कि न तो वह बड़े पद पर नियुक्ति पा सकता हो और न अपनी यथार्थ स्थिति के अनुरूप जीवन-यापन कर सकता है । अब उसके पास सत्यव्रत उर्फ त्रिशंकु की तरह धरती और आकाश के बीच लटककर जीवन जीने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रहता । त्रिशंकु के रूप में अब ये बच्चे जीवन यापन के लिए गलत राह पर पकड़ लेते हैं और लूटपाट , चैन स्नेचिंग आदि में फँस जाते हैं ।
इस तरह आज समाज में अनगिनत त्रिशंकु के दर्शन हो सकते हैं । आज की युवा पीढ़ी के के अनेक युवक-युवतियाँ अपने विश्वामित्र अभिभावकों के सत्यव्रत ही हैं , जो त्रिशंकु बनकर बीच में लटके हुए हैं । बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करना उनके वश में नहीं है और छोटे सपने माता-पिता देखने नहीं देते हैं । अपने बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल वे बच्चे जमीनी हकीकत से दूर अधर में लटके रहते है ।