Shree maddgvatgeeta mahatmay sahit - 18 in Hindi Spiritual Stories by Durgesh Tiwari books and stories PDF | श्रीमद्भगवतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-१८)

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श्रीमद्भगवतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-१८)

जय श्रीकृष्ण भक्तजनों!
ईश्वर के प्रिय आप सभी भक्त जनों के लिए श्रीगीताजी के सबसे फलदायी अध्यायय को लेकर उपस्थित हु । श्रीगीताजी के इस अध्यायय के नित्य पाठ करने से मनुष्य की जो इच्छा मृत्यु लोक में पूरी न हो सकी होती है वह स्वर्ग लोक में पूरी हो जाती है और साथ ही श्री नारायण जी के अशीम अनुकम्पा से मुक्ति प्राप्त होती है। श्री नारायण जी अशीम अनुकम्पा आप सब प्रियजनों पे बनी रहे। आप सभी भक्तजन श्रीगीताजी के इस अध्याय के अमृतमय शब्दो को पढ़कर, सुनकर तथा सुनाकर अपने तथा सभी भक्तजनों का जीवन कृतार्थ करे!
जय श्रीकृष्ण!
~~~~~~~~~~~~~ॐ~~~~~~~~~~~~~

🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-१८🙏
अर्जुन ने पूछा- हे महाबाहो! हे ह्रषिकेष! हे मधुसूदन! संन्यास और त्याग का तत्व पृथक-२ जानने की इच्छा करता हूँ। श्री भगवान ने कहा- कामना वाले कर्मों के त्याग को ज्ञानी लोग सन्यास मानते हैं और विवेकी पुरुष फलों के त्याग को त्याग कहतें है। कोई पंडित दोष युक्त जानकर कर्म को त्यागना उचित समझते हैं, कुछ लोग यज्ञ, दान और तप आदि कर्मों के न छोड़ने को योग बताते हैं। त्याग के विषय में हमारा निश्चय जो है, वह सुनो- हे पुरुष सिंह! त्याग तीन प्रकार के हैं। यज्ञ, दान और तप आदि कर्म त्यागने नहीं चाहिए, वे अवश्य कण्व योग्य है क्योंकि ये तीनो ज्ञानियों को पवित्र करतें है। वे सब कर्म आसक्ति और फल को त्यागकर करने चाहिए। मेरा निश्चय मत यही है, जो उत्तम है। अपने नियमित कर्मों का त्याग उचित नहीं, यदि मोहवश ऐसा किया जाए तो वह तामस त्याग है। कर्म दुःखप्रद है, यह विचार करके और शरीर के क्लेश के भय से जो त्यागता है उसे त्याग का फल नहीं मिलता है। हे अर्जुन! अपना कर्म अवश्य करने योग्य है, फल तथा आशक्ति का त्याग कर जो किया जाता है वह कर्म सात्विक हैं जो दुःखदायक कर्म से द्वेष नहीं करता और सुखदायक कर्म से प्रीति नहीं करता वह त्यागी, सत्यशील, बुद्धिमान, मुक्ति के योग्य है। देहधारी, सम्पूर्ण कर्मों का त्याग नहीं कर सकता, कर्मफल त्याग कर कर्म करने वाले त्यागी है। कर्म फल तीन प्रकार के हैं- अनिष्ट, इष्ट, और मिश्र। जो त्याग नहीं करते उनको मरने के पीछे मिलतें है। त्यागियों को कभी नही मिलते। हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिए पाँच कारण साँख्यसिद्धान्त में कहे है, उनको जानो। शरीर, कर्ता(आत्मा), साधन(इन्द्रिय), पृथक-२ चेष्टाएं और देव। शरीर, वाणी और मन से भला या बुरा जो काम आरम्भ किया जाता है। उनके पांच कारण हैं। ऐसे होने पर भी जो केवल आत्मा को ही करता जानता है, वह दुर्मति कुछ नहीं जानता। किसको यह अहंकार नहीं कि मैं करता हूँ और जिसकी बुद्धि कर्मों में लिप्त नहीं है, वह मनुष्य प्राणियों को मारकर भी उनको नहीं मारता और उनमें नही बाँधता। ज्ञान, ज्ञेय, और ज्ञाता ये तीनों ही कर्म के प्रेरक हैं, कारण कर्म औरर कर्ता ये तीन कर्म के साधन हैं। सांख्य शास्त्र में ज्ञान, कर्म और कर्ता ये सत्वादी गुणों के भेद तीन प्रकार के हैं, इनको भी सुनो। जो सब भिन्न ओरणियों में अविनाशी, अविभक्त सत्ता को देखता है वह ज्ञान सात्विक कहलाता है। जिस ज्ञान से प्राणियों को नाना प्रकार की सत्तायें दिखाई देती हैं। उसको राजस ज्ञान जानो। ऐसा ज्ञान जिसमें बिना ककरण और तत्वार्थ के जाने एक ही कार्य में लगा रहे अलप और तामस है। फल की इच्छा न करके नियत कर्म का संग और राग द्वेष को त्याग कर किया जाता है, वह सात्त्विक है। जो फल की इच्छा से और अहंकार से, बड़े यत्न के किया जाता है, वह कर्म राजस है। जो कर्म परिणाम, धन का खर्च, दूसरे की पीड़ा और अपना पुरुषार्थ जानकर मोहवश किया जाता है वह तामस कर्म कहलाता है। संग से रहित, अहंकार धैर्य और उत्साह-युक्त, शिद्धि और असिद्धि में जो समावां रहता है, वह सात्विक कर्ता है। रोग युक्त राजस कर्ता कहलाता है। चंचल चित्त वाला, आलसी विवाद और दीर्घसूत्री राजस करता कहलाता है। हे धनंजय! गुणों की तरह बुद्धि और धैर्य के भी तुन भेद हैं उनको विस्तार से कहता हूँ सुनो। बुद्धि, प्रवृत्ति, कर्तव्य , भय और अभय, बंधन, व मोक्ष को जो जानता है वह सात्त्विक है। हे पार्थ! जिससे धर्म और अधर्म कर्तव्य और अकर्तव्य ठीक निश्चय नहीं होता वाहं राजसी बुद्धि है। हे पार्थ! जिस अज्ञान से ढकी बुद्धि करके मनुष्य अधर्म को धर्म मानता है, वह तामसी है। हे पार्थ! एकाग्रचित्त होने से इधर-उधर न डिगने वाली जिस वृत के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रिया ठीक चलती है वह सात्विक है। हे पार्थ! जो प्रसंग से फल की इच्छा वाला है, जो धर्म को तथा अर्थ को धारण करता है, उसकी वृत्ति राजसी है। हे पार्थ! जिस वृत्ति से मूर्ख जन निंद्रा, भय, शोक, विषाद और मद को नहीं त्यागते वही तामसी वृत्ति है। हे भारत! तीन प्रकार के सुखों को सुनों। जिनके अभ्याश से चित्त रमता है दुःख का अंत हो जकता है वही सुख सात्विक है, जो आरम्भ में विष के समावां और अंत मे अमृत के समान होता है। जो सुख आरम्भ में अमृत तुल्य और अंत में विष के सदृश्य विषयों और इन्द्रियों के संयोग से होता है, उसे राजस कहते हैं। जो सुख आदि आंत दोनों में मनुष्य को मोह में फंसाता और जो नींद आलस और प्रमाद से उतपन्न होता है वही तामस है। प्रकृति के इन तीनों गुणों से अलग कोई वस्तु पृथ्वी, आकाश, पाताल देवलोक में नहीं। हे परन्तपे! ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रों के कर्म स्वाभाविक गुणों से बंटे हुए हैं। सम, पवित्रता, क्षमा, नम्रता, ज्ञान, अनुभव और परलोक में श्रद्धा, ये ब्राम्हणों के स्वाभाविक सिद्ध कर्म हैं। बहादुरी, तेजस्विता, धैर्य, चतुराई, युद्ध में स्थिरता, उदारता और प्रभुता, ये क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं। खेती, गौ-रक्षा और व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं। तीनों वर्णो की सेवा शुद्र के स्वाभाविक कर्म हैं। जो लोग अपने-२ गुणों प्रवृत्तियों के अनुसार कर्म करतें है उनको जो सिद्धी प्राप्त होती है, वह सुनो-जिससे सब प्राणियों की प्रवत्ति हुई है और जिसने सब जगत का विस्तार किया है, उस ईश्वर को कर्मों के द्वारा आराधना करके मनुष्य शिद्धि को पाता है। दूसरे के उत्तम धर्म से अपना धर्म ही श्रेष्ठ है। स्वाभाविक कर्म करने से पाप नहीं लगता। हे कौन्तेय! दोष-युक्त भी स्वाभाविक धर्म का त्याग न न करें, क्योंकि धर्म सेअग्नि की तरह दोष से कर्म व्यावत है। सर्वत्र आसक्ति को छोड़ने वाला, आत्मा को जीतने वाला, इच्छा रहित मनुष्य, सन्यास के द्वारा सर्व कर्म निवृत्ति रूप सिध्दि को पाता है। हे अर्जुन! इस प्रकार जो पुरुष शिद्धि को पाता है वह फ़ॉर किस तरह ब्रम्हा से प्राप्त होता है? सो मुझसे सुनो, यही इस ज्ञान का परानिष्ठा है। शुद्ध बुद्धि से युक्त होकर धरती द्वक़रा मन को वश में लाकर, शब्दादि विषयों को छोड़कर , रागद्वेष से रहित होकर्ज़ एकांत में रहने वाला, मिताहारी, वाणी और मन को जीतने वाला, नित्य ध्यान युक्त और वैराग्यवान, अहंकार, बल घमंड, काम क्रोध तथा परिग्रहण छोड़कर ममताहिं और शांत मनुष्य ब्रम्हा भाव के योग्य होता है। ब्रम्हा को ओराप्त हुआ पुरुष प्रसन्नचित्त होकर शोक या अभिलाषा को नहीं करता और जीवमात्र में समदर्शी होकर मुझमें परम भक्ति पाता है। इस प्रकार ज्ञानी मुझमें निवास करता हुआ नेरे इस अनुग्रह से अविनाशी सनातन मोक्ष पड़ को प्रॉपर होता है इस अनुग्रह से अविनाशी सनातन मोक्ष पद को प्राप्त होता है इस भांति ज्ञानी पुरुष वास्तव में जैसा मैं हूँ वयसक ही ठीक जनता है। तदन्तर तत्व से मुझको जानकर फिर मुझमें ही प्रवेश करता है। सावधानी से अपना मन मुझमें स्थिर कर और सब कर्मों को मुझी में अर्पण कर, बुद्धि योग के आश्रय से निरन्तर अपने चित्त को मुझमें लगा दे। मेरे में चित्त लगाकर , मेरी कृपा से सब दुर्गम कष्टों से तर जाओगे। यदि अहंकार से मेरी बात सुनोगे तो नधत हो जाओगे। यदि अहंकार का आश्रय लेकर युद्ध नहीं करूंगा, ऐसा मानते हो तो तुम्हारा यह निश्चय झूठा है, क्योंकि स्वभाव तुम्हें युद्ध में लगाएगा। हे कौन्तेय! जिस कर्म को अब तू मोह से करना नहीं चाहता वही अपने स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ विवश हुआ करेगा। हे अर्जुन प्राणियों के हृदय में स्थित ईश्वर उनको माया से इस प्रकार भ्रम रहा है। मानो सब यंत्र पर चढ़े है। हे भारत! सब भावों से उसकी कृपा से परमशक्ति और मुक्ति को पाओगें। यह गूढ़ से गूढ़ ज्ञान मैनें तुमसे कहा है। इस भली-भाँति विचार कर जैसा चाहते हो वैसा करो। सबसे गूढ़ वचन को और सुक्योंकी तू मेरा परम पवित्र मित्र है इससे तेरे हिट की बात कहूँगाम मेरे में मन लगाओ, मेरे भक्त हो , मेरा यज्ञ करो, और मुझे ही नमस्कार करो, इसी प्रकार मुझे पाओगे, यह में सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ। क्योंकि तुम मेरे मित्र हो। सब धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हे सब पापों से छुड़ा दूंगा, सोच न करो। यह मेरा रहस्य ऐसे पुरुष से जो मावरा तप न करता हो मेरा भक्त न हो, सेवक न हो और मेरा निंदक हो, कभी न कहना चाहिए। जो इस परम् गुप्त ज्ञान को मेरे भक्तों में रक्त करेगा वह मेरी परम भक्ति को मेरे भक्तों में प्रकट करेगा वह मेरे परम भक्ति को पाकर अंत में निश्चय ही मुझमें लीन हो जाएगा। इससे अधिक मेरे लिए प्यारा काम करने वाला मनुषयन में दूसरा कोई नही इससे बढ़कर मुझे कोई प्यारा भी बहिन होगा। हमारे इस धर्म संवाद को जो कोई पढ़ेगा, में समझूँगा की उसने ज्ञान यज्ञ से मेरी पूजा की। जो श्रद्धावान पुरुष दोष ढूंढे बिना इसको स्नेगा, वह भी मुक्त होकर पुण्यात्माओं को मिलने वाले शुभ लोकों को प्राप्त होगा। हे पार्थ! तुमने एकाग्रचित से मेरे कहे हुए उपदेश को सुना या नहों? हे धनंजय! तुम्हारा अज्ञान उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हो गया या नहीं? अर्जुन ने कहा- हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और स्मृति प्राप्त हुई। मैं निःसन्देह आप की आज्ञा में स्थित हूं और जैसा आपने कहा है वैसा ही करूँगा। संजय कहते हैं- हे धृतराष्ट्र! मैंने महात्मा वासुदेव और रजं का यह रोमांचित करने वाला अद्भूत सम्वाद सुना। व्यास जी की कृपा से साक्षात योगेशश्वर श्रीकृष्ण जी के मुख से इस परम गुह्रा सम्वाद को मैंने सुना। हे राजन्! श्रीकृष्ण और रजं के अद्भूत पुण्यकारक सम्वाद को स्मरण करके में बारम्बार प्रसन्न होता हूँ। श्री कृष्ण भगवान के उस अद्भुत रूप को स्मरण करके मुझे बड़ा ही विस्मय होता है। हे राजन्! मैं बारम्बार हर्षित होता हूँ। मेरी ऐसी धारणा है कि जहां योगेश्वर श्री कृष्ण जी हैं और जहां धनुषधारी पार्थ हैं, वहां राजलक्ष्मी, विजय और एश्वर्य अटल रहते हैं।
अथ श्रीमद्भगतगीता का अट्ठारहवां अध्याय समाप्त।
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🙏अथ अट्ठारहवें अध्याय का महात्त्म्य🙏
श्रीनारायणजी बोले- हे लक्ष्मी! अठारहवें अध्याय का महात्त्म्य सुन जैसे सब नदियों में गंगाजी, गौआँ में कपिला, कामधेनु, और ऋषियों में नारद श्रष्ठ हैं उसी तरह सब अध्यायों में गीताजी का अठारहवां अध्यायय श्रेष्ठ है। एक समय सुमेर पर्वत पर देवलोक में इंद्र अपनी सभा लगाए बैठे था, उर्वशी नित्य करती थी बड़ी प्रसन्नता में बैठे थे, इतने में एक चतुर्भुज रूप पार्षद ले आये, इंद्र से सब देवताओं के सामने कहा तू उठ इसको बैठने दे, यह सुनके इंद्र सह न सका तेजस्वी को बैठा दिया इंद्र ने अपने गुरु बृहस्पतिजी से पुछक गुरुजी तुम त्रिकालदर्शी हो देंखो इसने कौन सापुण्य किया है जिस पर यह इन्द्रासन का अधिकारी हुआ है मेरे जाने उसने तीर्थ व्रत यज्ञ दान कोई नहीं किया, विश्वेश्वर तथा ठाकुर मंदिर भी नही बनाया तालाब नहीं लगाया सोई बात बृहस्पति जी ने भगवान से कही तब प्रभु ने बृहस्पति से कहा कि इसके मन में भोगों की वासना था परन्तु यह गीता के अठारहवें अध्याय का नित्य पाठ करता था। उस से जब इसने देह छोड़ी तब मैंने आज्ञा करी की हे पार्षदों! तुम इसको पहले लेजाकर इन्द्र लोक के सुख भोगावों जब इसका मनोरथ पूरा हो जाय तब मेरी सायुज मुक्ति को पहुँचावो सो तुम जाकर भोगों की सामग्री इकट्ठी कर दो। तब इन्द्र और सब देवता आये आकर इन्द्र ने सब भोगों की वस्तु एकत्र कर दी और कहा इंद्रलोक के सुखों को भोगों। कई काल इंद्रपुरी के सुख भोग कर फिर श्रीभगवान की कृपा से सायुज मुक्ति वाकर बैकुण्ठ का अधिकारी हुआ। श्रीनारायणजी कहतें है- हे लक्ष्मी! यह अठारहवें अध्याय का महात्त्म्य है।
गंगा, गीता, गायत्री यह तीनों कलियुग में मुक्ति की दाता हैं।
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💝~Durgesh Tiwari~