UJALE KI OR - 2 in Hindi Motivational Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर - 2

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उजाले की ओर - 2

उजाले की ओर-2

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बात शुरू करती हूँ इस अजीबोग़रीब समय से जिसे न किसी ने आज तक देखा ,न सुना ,न जाना ,न पहचाना --बस ,एक साथ ही जैसे प्रकृति का आक्रोश पूरे विश्व पर आ पड़ा | गाज गिर गई जैसे ---

आज प्रकृति ने सोचने को विवश कर दिया कि भाई ,मत इतराओ ,मत एक-दूसरे पर लांछन लगाओ | मैं पूरी सृष्टि की माँ हूँ ,यदि सम्मान नहीं करोगे तो कभी न कभी ,किसी न किसी रूप में मैं तुम्हें सिखाऊंगी तो हूँ ही कि सम्मान किसे कहते हैं ? और यह कितना ज़रूरी है |

हम प्रकृति को माँ कहते हैं तो उसे माँ समझना भी उतना ही ज़रूरी है | बच्चा जब कभी ज़िद अथवा ग़लत व्यवहार करता है तो माँ उसे पहले प्यार से समझाती है फिर नाराज़ होती है और फिर भी नहीं समझता तो तमाचा भी लगा देती है | इसके पीछ उसकी कोई दुर्भावना नहीं होती ,वह बस उसे बेहतर बनते हुए देखना चाहती है |

हमने अपने माता-पिता को देखा है वे सूर्योदय से पहले बिस्तर से उठकर धरती पर पाँव रखने से पहले उसे प्रणाम करते थे | तब कहीं धरती पर पैर रखते थे | प्रकृति पूरे विश्व की माँ है ,उसके गर्भ से हम सबने जन्म लिया है | आपकी सोच शत-प्रतिशत सही है कि हम सब अपनी माँ के गर्भ से जन्म लेते हैं | हमारी माँ अपनी माँ से और उनकी माँ अपनी मॉं से ,यह सिलसिला सृष्टि के आदि से चलता रहा है और चलता रहेगा | चिंतन का विषय यह है कि पूरी सृष्टि का जन्म जिससे हुआ है ,उसके बारे में हम क्यों सचेत नहीं होते ? प्रकृति हम सबको जन्म देती है ,अपने भीतर अन्न व सब उपयोगी खाद्यान्न उगाकर ,जल के लिए नदियाँ व अन्य स्रोत बनाकर ,बादल के रूप में बरसाकर,पवन व सूर्य की ज्योति के रूप में हमें न जाने कितने-कितने आशीषों से भर देती है | तब यदि हम उसकी बात समझ नहीं पाते तब तमाचा खाने के अधिकारी भी हैं न ?

पेट तो हमारा सदा धरती ही भरती है ,हमारे कृषक उस पर अपने ख़ून पसीने से श्रम करते हैं तब जाकर हमें कहीं भोजन के लिए दाने मिलते हैं | उसके लिए हवा,पानी पर आधारित होना रहता है |कहीं भी देख लें प्रकृति के बिना हमारा अस्तित्व है क्या?

पांच तत्वों का शरीर अंत में उन्हीं तत्वों में समा जाता है |

जैसे-जैसे हम अपनी सभ्यता ,संस्कार भूलते गए ,प्रकृति भी हमसे नाखुश होती गई | यहाँ सवाल केवल धरती को प्रणाम करने ,उसको चूमने का नहीं है ,यहाँ सवाल है मन में उसका सम्मान करने का ! और वह सम्मान तभी हो सकता है जब हम उस भाव को ,उस संवेदना को महसूस करें |

यूं जीवन की आपाधापी ऐसे प्रश्नों को उठाकर ताक पर सजा देती है किन्तु जब ऐसा समय आता है तब क्या मन में अपनी गलतियों,भूलों के लिए पछतावा होना ज़रूरी नहीं ?

बिलकुल है साहब ,अन्यथा हमारी मनमानियों का प्रकृति क्या परिणाम देती है ,हम सब देख ही रहे हैं,भुगत रहे हैं |

हम सबको ही संभलना होगा ,समझना होगा ,सचेतन होना होगा | जो हो गया है ,उससे पाठ पढ़ना होगा अन्यथा हम अपनी आँखों से परिणाम देख ही रहे हैं |

किसी भी घटना का कोई कारण होता है,हम सब जानते हैं जो भी हो रहा है उसके पीछे गंभीर कारण हैं किन्तु यह भी उतना ही सच है कि कहीं न कहीं इसमें हम भी दोषी हैं |

तो सोचें,समझें प्रयास करें कि हम किसी भी गलत घटना का कारण न बनें |

स्वस्थ रहें ,रहें सुरक्षित

संवेदन को कर लें मुखरित

चार दिनों के जीवन को मिल

संवेदन से हम सब जी लें ---

आपकी मित्र

डॉ प्रणव भारती