Anjane lakshy ki yatra pe - 24 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 24

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 24

अबतक आप ने पढ़ा

व्यापारी अपनी पत्नी के साथ अपने परिवार के बीच पहुंचता है। आगे...

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 24

हाँ भी और ना भी

अतीत की यात्रा पूरी कर मैं अपने परिवार में वापस लौटा तो एक जलपरी, एक मत्स्यकन्या, पत्नि मेरे के रूप में मेरे साथ थी। मैं रोमांचित था कि मेरी इतनी बड़ी उपलब्धि पर मैं न केवल अपने घर में, अपितु सारे शहर में ही प्रशंसा का पात्र बनूंगा।

किंतु...

अपने घर पहुंचकर मैं हैरान था। यह मेरा घर है? टूटी फूटी जर्जर सी यह हवेली मेरा घर नहीं हो सकती। मैंने अपने पीछे जो घर छोड़ कर गया था वह सजा धजा, साफ सुथरा था। यहाँ तो दीवारों में जगह जगह दरारें और बरसात के पानी के निशान थे। जगह जगह काई जैसे हरे निशान और दीवारों में झाड़ झंखाड़ उग आये थे। दरवाज़े के किवाड़ का रंग उतर चुका था। छत जैसे अब गिरी कि अब गिरी। मैं स्तब्ध था। मैंने तो कल्पना भी नहीं की थी कि यह सब देखने मिलेगा।

लेकिन हैरानियों की श्रृन्खला अभी प्रारम्भ हुई थी।

मैं अपने पिता के रूप में शेर जैसी गरजती आवाज़ वाले जिस जिंदादिल व्यक्ति को छोड़ गया था, उसका तो यहाँ पता ही नहीं था। उसकी जगह सफेद बालों वाला एक कमज़ोर बूढ़ा था, जो मेरे सिर को अपने सीने पर इस जोर से चिपटाये हुये था कि उसका बस चले तो मेरे सिर को अपने सीने के अंदर धंसा ले। उसकी आवाज़ भी बड़ी मुश्किल से उसके गले से निकलती थी। मैं यहाँ उजली रंगत और खिले खिले चेहरे वाली अपनी माँ को खोज रहा था और माँ के नाम पर एक सफेद बाल और उजड़ी रंगत वाली एक महिला मुझसे लिपट लिपट कर रोये जा रही थी। भाई बहन ज़रूर बड़े हो गये थे, लेकिन उनके कमज़ोर सूखे शरीर पर ढंग के कपड़े भी नहीं थे।

लेकिन वे बहुत ही खुश थे जैसे उन्हें कोई खोया हुआ खजाना मिल गया हो। हाँ, उनकी आंखें ज़रूर मुझसे पूछ रही थीं कि इस वीरान बेरौनक घर में कदम रखने वाली यह अप्सरा कौन है जो मेरे साथ आई है। मेरे यह बताने पर कि यह मेरी पत्नि है मेरी दोनो बहनें तो जैसे उसपर टूट पड़ीं। वे उसे छू छू कर तसल्ली कर लेना चाहती थीं कि यह सचमुच की हैं या कोई भ्रम तो नहीं।

“माँ, देखो तो भाभी कितनी सुंदर है। माँ भाभी के हाथ तो देखो कितने मुलायम हैं? भाभी क्या आप मलाई से नहाती हो?...” कितने ही सवाल वे कर रही थीं और माँ उन्हे झिड़क रही थीं,

“हटो, तुम लोग नज़र न लगाओ...”

“माँ ऐसी भाभी को पाकर तो भैया बहुत अमीर हो गये होंगे। देखो तो भाभी के बाल तो सोने के हैं और आंखों में नीलम जड़े हैं। दांत मोतियों से है और हाथ चांदी के हैं। भाभी क्या आप देवलोक से आई हैं। क्या आप कोई अप्सरा हैं?...”

“क्या सचमुच इतनी सुंदर है?” माँ ने पूछा।

“माँ, सचमुच हमने तो इतनी सुंदर नारी आज से पहले न देखी न सुनी...”

“देखते हो? क्या कह रही हैं छोरियाँ...” माँ ने पिताजी से कहा।

“कह रही हैं तो झूठ थोड़ी कहेंगी...”

मैं हैरान था, “माँ आप लोग ऐसे क्यों बात कर रहे हो जैसे आप लोग उसे देख ही नहीं पा रहे हों।”

“अरे नहीं बेटा देख तो पा रहे हैं लेकिन अब इतना साफ कहाँ दिखता है...”

यह सब क्या हो गया?

मैंने फटी फटी नज़रों से भाई की तरफ देखा।

“भाई, आपका जहाज़ डूबने के समाचार से माँ पिताजी एक दम टूट गये थे। माँ को विश्वास ही नहीं होता और न पिताजी को। बाद में लोगों के कहने पर आपका क्रियाकर्म तो कर दिया लेकिन आस नहीं छोड़ी रोते-रोते आंखें सूख गईं। पिताजी ने व्यापार की तरफ ध्यान देना छोड़कर शहर-शहर, गांव-गांव, एक देश से दूसरे देश आपको ढूंढते फिरते रहे, जब तक धन समाप्त नहीं हो गया। हम लोग छोटे थे कुछ कर नहीं सकते थे। दुख और चिंता ने उन्हे समय से पहले ही बूढ़ा कर दिया...”

“व्यापार और धन तो लौट आयेंगे,” मैंने कहा लेकिन समय को मैं नहीं लौटा सकता...”

इसके बाद मैंने अपनी सारी आप बीति सुनाई और साथ लाये हीरे जवाहरात पिता के सामने धर दिये।

“अब ये मेरे किस काम के? अब मैं पहले की तरह व्यापार नहीं कर सकता। हाँ, तुम्हारा मार्गदर्शन अवश्य कर सकता हूँ। वैसे तो यह धन जीवन भर बैठकर खाने पीने के लिये पर्याप्त है किंतु जिस तरह बहता हुआ जल ही पवित्र होता है उसी तरह बहता हुआ धन ही पवित्र होता है। इसी लिये जब तक पुरुषार्थ पूर्वक कमाते रहोगे चरित्र और मन मस्तिष्क पवित्र रहेंगे और बैठकर खाओगे तो मन, विचार और चरित्र दूषित हो जायेंगे। सो इस धन को व्यापार में लगाकर अपने पुरुषार्थ से धन कमाओ और मेरे अनुभओं का लाभ तुम्हे अवश्य ही काम आयेगा। तो इस घर और इस परिवार के मान-सम्मान की पुनर्स्थापना का उत्तरदायित्व अब तुम्हारे कंधों पर है...”

“पिताजी माता जी क्यों न हम सब मेरे उस द्वीप पर चलकर रहें। वहाँ तो हम राजा महाराजाओं का जीवन जी सकते हैं।” मेरी इस बात से तीनो भाई बहन बहुत उत्साहित हो गये और वे माता पिता से मेरी बात मानने का आग्रह करने लगे; लेकिन अंततः पिताजी के उत्तर ने सबके उत्साह पर पानी फेर दिया-

“जिस स्थान पर मान सम्मान कमाया, मान सम्मान गंवाया, बिना मान सम्मान की पुनर्स्थापना के उस स्थान से जाना तो पलायन के समान है। पुत्र तुम अपना धन लेकर अपने राजपाट के साथ वहाँ रह सकते हो किंतु मुझे अपने परिवार के मान सम्मान की पुनर्स्थापना हेतु संघर्ष करना ही होगा। पुत्र यह मेरी कर्मभूमि है और मेरा संघर्ष यहीं चलता रहेगा। भले मैं हार जाऊँ लेकिन पीठ दिखा कर भाग नहीं सकता।”

पिता के शब्द मेरे पैरों की बेड़ी बन चुके थे।

मैं दुविधा में था। मैं जानता था मैं यहाँ स्थाई रूप से निवास करने नहीं आया था। एक सुखमय जीवन, वहाँ उस टापू पर मेरी प्रतीक्षा में था और पिता मुझे यहाँ बांध लेना चाहते थे। क्या अब यहाँ रहना मेरे लिये सम्भव होगा? और... मेरी पत्नि? क्या वह यहाँ रहना चाहेगी? क्या वह यहाँ रह भी पायेगी? वह तो एक बिल्कुल दूसरे ही जगत की निवासी है।

मैंने कुछ नहीं कहा...

मैंने पत्नि से सलाह किया।

“पिता के द्वारा अर्जित मान सम्मान पर तो सभी इतराते हैं। किंतु जो पिता को पुत्र द्वारा अर्जित मान सम्मान पर इतराने का अवसर प्रदान करे वही असली पुरुष है। और भी शास्त्रों में कहा गया है कि वह पुत्र ही क्या जो पिता का मान न बढ़ाये। उससे तो वह पालतु पशु अच्छा है जो समय आने पर अपने स्वामी के काम आता है।” उसने कहा। मुझे अपने अभियान सहायक द्वारा कही गई बातें याद आ गईं।

“पिता ने सिखाया न?” मैंने पूछा।

“तुम्हे कैसे पता?”

“कुछ इसी प्रकार की उनकी कुछ बातें मुझे याद आ गईं।”

“तुम्हारे माता पिता ने तुम्हे जीवन दिया, पालन पोषण किया और तुम्हारे ही वियोग में अपना मान सम्मान और धन और स्वास्थ, सब कुछ खो बैठे हैं। कहा गया है कि माता पिता का ऋण कभी उतारा नहीं जा सकता, किंतु तुम्हें उसका बोझ हल्का करने का अवसर प्राप्त हो रहा है तो फिर यह दुविधा क्यों?”

“मैं तुम्हारे बारे में चिंतित हूँ। तुम मेरी अर्धांगिनी हो, तुम्हारे सुख दुख का ध्यान रखना मेरा कर्तव्य है। तुम मेरे साथ यहाँ तक आई किंतु तुम सागर की वासिनी हो और यहाँ दूर दूर सागर के दर्शन भी दुर्लभ हैं। तुम यहाँ किस प्रकार जीवन व्यतीत कर सकोगी?”

“मैंने तुमसे प्रेम किया है और यही मेरी शक्ति का स्त्रोत है। वैसे भी पत्नि का हर कर्तव्य पति के लिये भी कर्तव्य होता है, ठीक उसी प्रकार पति का कर्तव्य भी पत्नि के लिये कर्तव्य ही होता है। अब यदि कर्तव्य निभाने का समय आ ही गया है तो विचलित न होओ, हम दोनो एक दूसरे की सहायता से हर कष्ट उठाने की क्षमता रखते हैं।”

इस प्रकार हम वहीं ठहर गये। मैंने सबसे पहले घर की मरम्मत और रखरखाव पर ध्यान दिया। कुछ ही समय में घर की शोभा नये घर की तुलना में भी दुगुनी हो गई। पिता पर चढ़े सारे ऋण चुकता करने के बाद भी रत्नाभूषण के रूप में हमारे पास इतना धन बचा था कि सारी ज़िंदगी बैठकर खाते तो भी खत्म न होता; किंतु वह पुरुष ही क्या जिसका मन धनार्जन में न लगे। अतः पिता का पुराना व्यापार फिर प्रारम्भ किया। भाई को प्रशिक्षित किया। देखते देखते घर में हँसी खुशी लौटने लगी थी। व्यापार भी धीरे धीरे पटरी पर आने लगा था। बहनो के ब्याह की बातें चलाई और उनके ब्याह की तैयारियाँ भी शुरू कर दी।

किंतु भाग्य को सामान्य जीवन कहाँ स्वीकार होता है? कुछ ही दिनो में पत्नि को एक अजीब सी बिमारी ने घेर लिया। पहले तो वह अनमनी रहने लगी फिर अवसाद ने घेर लिया। फिर वह बेचैन रहने लगी। पानी देख कर जैसे उसे कुछ हो जाता। पहले तो वह खूब पानी ही पानी पीती जाती लेकिन उससे कोई राहत नहीं मिलती तो अपने ऊपर खूब पानी ही पानी डालती रहती। यहाँ तक कि घर का सारा पानी खत्म हो जाता। लेकिन उसे चैन न आता। घर में दिन में कई बार पानी भरना पड़ता किंतु वह सारा पानी खत्म कर देती। दो तीन बार तो वह कुंये में ही कूद गई। बहुत मुश्किल से उसे बाहर निकाला जाता। फिर उसके लिये घर में पानी का एक हौज बना दिया गया। वह सारा सारा दिन उसी में पड़ी रहती किंतु उसे चैन नहीं मिलता।

इस बात से घर में सभी परेशान रहने लगे। माँ को बहु के इस व्यव्हार से बहुत चिढ़ होने लगी। वह मुझे ही कोसने लगी, “कहाँ से ले आया यह जलपरी। ज़िंदगी भर पानी में रही है, धरती पर कोई लड़की नहीं मिली थी? कोई देखेगा तो क्या कहेगा? लड़कियों के सम्बंध के लिये अतिथी आयेंगे जायेंगे, यह सब देखकर क्या सोचेंगे? ऐसे में मेरी लड़कियों को कौन ब्याहेगा?”

मैं समझाने की कोशिश करता कि, “ऐसी बात नहीं है माँ। वहाँ भी वह कोई चौबीसों घंटे पानी में ही थोड़ी रहती थी...”

किंतु माँ के आगे तो अपनी पुत्रियों के विवाह की चिंता खड़ी थी। इस स्थिति में उसे कुछ और सोंचने समझने में कोई कोई रूचि न थी। पहले पिता तो माँ को समझाते रहे पर फिर वे भी माँ के सुर में सुर मिलाने लगे। अपने विवाह में विघ्न आने के भय के कारण अब बहने भी माँ की ओर से बोलने लगी। घर का पूरा वातावरण ही कलहमय हो गया।

मैं समझ रहा था कि उसे कोई रोग हुआ है जो शायद हमारे महाद्वीपीय पर्यावरण में नहीं होता; किंतु कितने ही वैद्य थक हार गये किसी को यह रोग समझ में ही नहीं आ रहा था। अब माता और बहनों को एक और आशंका ने भी घेर लिया कि यह रोग कहीं संक्रामक तो नहीं है? अब वे खुलकर तो कुछ न कहतीं किंतु उनके कहने का तात्पर्य यही होता कि इस जी के जंजाल को जहाँ से लाया है वहीं भिजवा दे। उनकी चर्चाओं से आसपास पड़ोसियों में भी यह भय व्याप्त हो गया। वे तो पहले ही इतनी सुंदर बहु के कारण जले भुने बैठे थे, अब तो उन्हें अवसर ही मिल गया। और हमारे ही परिवार से समर्थन भी। अब वे लोग मेरे माता पिता और बहनों की ओर से मुझपर दबाव डालने लगे कि इससे पहले कि सारा शहर इस रहस्यमय बीमारी की चपेट में आकर कुँये और तालाबों में कूदकर मरने लगे इस बला को यहाँ से हटाओ।

एक दिन एक बहुत ही बूढ़े और पहुंचे हुये वैद्य का पता चला जो अपने कार्य के लिये पूरी दुनिया घूमें हुये हैं। उन्हे बग्घी भेजकर उनके शहर से बुलवाया गया। उन्हे यहाँ पहुंचने में ही चार दिन लग गये। वे अनुभवी थे, देखते ही रोग को ताड़ गये,

"पुत्र, यह पुत्री तो किसी महासगर के अंतःप्रदेश की है।" वे बोले।

"हाँ बाबा," मैंने कहा,"यह एक मत्स्यद्वीप की वासी एक मत्स्यकन्या है जिसे जलपरी भी कहते हैं। किंतु आपको कैसे ज्ञात है?"

"क्योंकि यह रोग उसी प्रकार के वातावरण में सम्भव है। इस प्रकार के गहरे सागर के मध्य में एक प्रकार के सूक्ष्म जीव पाये जाते हैं जो आंखों से दिखाई नहीं देते। उन्हे अपने अंडे सेने के लिये गर्म रक्त की आवश्यक्ता होती है जो सागर में सम्भव नहीं है अतः जब कोई धरती का गर्म खून वाला प्राणी पानी में उतरता है तो ये जीव, रोम्छिद्र से होते हुये उस जीव के शरीर में घुसकर अंडे देकर बाहर आ जाते हैं। वह अंडे उस गर्म खून वाले जीव के रक्त में ही विकसित होते हैं। और जब वे विकसित हो जाते हैं तब उस जीव के मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र पर कब्ज़ा कर, उस जीव को उसी सागर के जल की ओर ले जाते हैं और उस जीव के सागर में उतरते ही वे जीव के रोम्छिद्रों से होकर वापस सागर के जल में उतर जाते हैं।"

“इसका उपचार, वैद्यराज?... सम्भव तो है न?”

“इसके दो उत्तर हैं पुत्र एक है, न; और दूसरा है, हाँ।”

**

जारी...

एक ही सवाल के दो जवाब, हां भी और न भी... कैसे संभव है?

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अनजाने लक्ष्य की राह पे - भाग 25

डाकू का पत्नी प्रेम

(मिर्ज़ा हफीज बेग की कृति)