dekhna fir milenge - 2 in Hindi Love Stories by Sushma Tiwari books and stories PDF | देखना फिर मिलेंगे - 2 - यादो का कारवाँ

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देखना फिर मिलेंगे - 2 - यादो का कारवाँ

छुट्टन किताब लेकर सीट पर अभी बैठा ही था कि बस वाले लोग चांय चांय करने लगे, सराय आ चुका था। सबको उतरने की होड़ लगी हुई थी।
साफ साफ दिख रहा था वह कोई सितारों वाला होटल नहीं बल्कि चार कमरों का यात्री धर्मशाला था और पास में ही एक मंदिर नजर आ रहा था। छोटी सी चाय की दुकान जिसने हमारी आपदा को अवसर बना कर फटाफट चूल्हा सुलगा लिया था। सारे यात्री अलग अलग कमरों में हो लिए। छुट्टन ने सोचा अब खाट पर लेट कर थोड़ा किताब पढ़ी जाए पर वही चांय चांय फिर शुरू हुई कि रोशनी आंख पर आ रही है और नींद में बाधा पहुंच रही है। जाने कौन से ज़माने का कुंभकर्णी नींद लेकर चलते है सब। अब अंधेरे में दिमाग वापस वही दौड़ गया जहां छुट्टन नहीं चाहता था। जिंदगी से जद्दोजहद और यह बस की ठेलमठेल, कभी ऐसा तो नहीं चाहा था। सपना था खुद भी एक दिन बढ़िया वाली किताब लिख कर ऐसे ही रातों रात चमकता सितारा बनना।
पर पिताजी ने साफ कह दिया था " ये झोला ले कर कविताएं करने से पेट नहीं भरत है भईया, कुछ काम सीख लो.. दुकान पर आ जाओ। हम और तुम्हारे भईया रगड़ रहे हैं और तुम्हें पुस्तक लिखनी है "
..सही तो कहे पिताजी 'छज्जन लाल' कहीं सुना है ऐसा कोई लेखक का नाम? सबने मना ही किया सिवाय रंगीली के।
रंगीली जैसा उसका नाम बिल्कुल वैसी ही रंगीन सी। जाने उदासी नामक पँछी उसके इर्द गिर्द घूमता ही नहीं। खैर नाम का असर होना होता तो हम भी अपना नाम छुट्टन से प्रेमचंद रख लेते, पर होना कुछ नहीं था।
" छुट्टन! इतना निराशावादी काहे हो बे " बेबाक बात करती थी रंगीली.. मोहल्ले वाले छुटकी डॉन कहते उसे।
निराशावादी नहीं था छुट्टन बस उसकी आशाओं के पंख तुरंत कुतर दिए जाते थे। रोज लिखता कुछ ना कुछ और पुराने मन्दिर के पीछे पेड़ के पास रंगीली को सुनाता था। रंगीली बड़े धैर्य से सुनती थी। छुट्टन कभी कभी उकता जाता था " रंगीली! खुद ही काहे नहीं पढ़ती, एक तो हम लिखे फिर तुम को बांच कर सुनाए?"
" देखो छुट्टन! आ गया ना स्टार वाला एटिट्यूड? हैं!.. हमसे ई पढ़ना लिखना नहीं होता है.. इतना पढ़ना होता तो कहीं कलक्टर होते हम। जो तुम बांच सको तो बोलो वर्ना हमे और भी काम है।"
छुट्टन हाथ पकड़ कर रंगीली को रोक लेता था। एक वही तो थी जो उसे प्रोत्साहन देती थी। सुनते सुनाते कब दिल के तार जुड़ गए पता ही ना चला।
" ए छुट्टन! गलत जगह दिल लगा लिए यार तुम .. हम तो बहती हवा है कहाँ बांधोंगे? और इस गांव में तो हमे कोई अपनी बहु ना बनाए.. तुम ठहरे कलाकार आदमी कहां किन समस्याओं को न्यौता दे रहे हो? गोलियां चल जायेंगी.. बामन के लड़के हो। हमारा दिल तो झेल लेगा तुम छलनी हो जाओगे "
उस शाम आखिरी बार छुआ था उसे। मुस्कराती हुई चली गई। फिर कभी ना आई। सुनने में आया दूसरे गांव चली गई अपनी बुआ के घर और वही से शादी कर के कलकत्ता बस गई। पता था छुट्टन को यह सब उसने छुट्टन को बचाने के लिए किया था। पर छुट्टन कहाँ बच पाया?