उठते क्यों नहीं कासिम भाई?
प्रियदर्शन
मुर्गे की तेज़ बांग से अकचका कर उठे कासिम भाई। कमबख़्त इस महानगर में कब से बोलने लगा मुर्गा। आदतन घड़ी पर नज़र पड़ी- अरे, वह भी सुबह के साढ़े आठ बजे? फौरन माज़रा समझ में आ गया। मुर्गा नहीं, उनका मोबाइल बोला था। कमबख़्त उनके छोटे बेटे ने चुपके से उनके मोबाइल पर अपनी पसंदीदा रिंग टोन लगा दी थी। सातवीं में पढ़ता है और मोबाइल कंप्यूटर के कल-पुर्जे से लेकर प्रोग्राम तक ऐसे जोड़ता बदलता है जैसे अम्मी की कोख से सीख कर निकला हो।
मुर्गा अब भी बोल रहा था। कासिम मियां को सहसा समझ में आया कि कमबख़्त ये तो फोन है जो बज रहा है। कौन कमबख़्त इस वक़्त फोन कर रहा है। उन्होंने झपट कर फोन उठाया और नंबर देखते उनके होश उड़ गए। किसी ऐरे-गैरे ने नहीं, जिस ग्रेट इंडिया टीवी में वे काम करते हैं, उसके मैनेजिंग एडिटर ने फोन किया है। उनकी आवाज़ में ह़डबड़ी के साथ हकलाहट भी चली आई- ‘जी सर, जी सर, रात देर से सोया था..।‘
लेकिन उनसे ज़्यादा ह़डबड़ी और हकलाहट दूसरी तरफ़ थी, `सलीम भाई, नहीं, कासिम भाई, फौरन ऑफिस पहुंचिए, ओबामा मारा गया है।‘
होश उड़ गए कासिम भाई के। ओबामा या बुश? कहीं बॉस हड़बड़ी में गलत नाम तो नहीं ले बैठे? कमबख़्त मरना तो बुश को चाहिए था, ओबामा बेचारा क्यों मारा गया? अमेरिका का राष्ट्रपति होना उसका गुनाह हो गया?
खैर, जल्दी-जल्दी मुंह पर छींटे मारते और तहमद की जगह पैंट-शर्ट चढ़ाते उन्होंने बाएं हाथ से रिमोट कंट्रोल उठाया और टीवी चलाया। जैसे ही परदे पर तस्वीर उभरी, शर्ट के बटन लगाते उनके हाथ थम गए। ये तो ख़बर ही कुछ और है। बॉस ने गलती की लेकिन ओबामा और बुश वाली नहीं, ओबामा और ओसामा वाली। ओसामा मारा गया है। कहां? कैसे? एक नई तरह की सनसनी उनके जिस्म में दौड़ गई। ये क्या किया अमेरिका ने। दस साल बाद खोजकर निकाल ही लिया। और कमबख्त ये भी कहां छुपा था? दुनिया समझती रही कि किसी जंगल, किसी गुफा में होगा और ये कमबख़्त ऐबटाबाद में ऐश करता रहा? ये पाकिस्तानी भी साले कम हरामी नहीं होते। ओबामा से पेमेंट लेते रहे और ओसामा को छुपाए रखा।
बहरहाल, ऑफिस पहुंच गए कासिम भाई। वे वहां गेस्ट कॉर्डिनेशन का काम देखते हैं। यानी टीवी पर बहस के लिए मेहमानों को बुलाते हैं।
पूरे ऑफिस में यही सवाल थे, यही सनसनी थी, यही माहौल था। ख़बर पर ख़बर आ रही थी। कैसे हेलीकॉप्टर आए, कैसे नेवी सील के कमांडो उतरे और कैसे ओसामा मारा गया?
और इसी बीच आई एक और ख़बर। ओसामा की लाश भी नहीं छोड़ी अमेरिकियों ने। उसे गहरे समंदर में दफ़न कर दिया। बिल्कुल इस्लामी तौर-तरीकों से।
‘कासिम भाई, क्या ऐसा भी होता है? क्या इस्लाम में समंदर में भी दफनाने का रिवाज है?’
कासिम भाई के पास फिर कोई जवाब नहीं था। वे मुसलमान ज़रूर थे, लेकिन इस्लामी रीति-रिवाजों के कोई बड़े जानकार नहीं थे। बस चलन से जो देख लिया, वही समझा दिया करते थे। उन्हें अपने परिवार, पास-पड़ोस, आसपास, देश-दुनिया में कोई याद नहीं आया जिसे इस तरह इस्लामी रिवाज के नाम पर समंदर में दफ़न कर दिया गया हो।
‘नहीं तो, ऐसा तो कोई इस्लामी रिवाज नहीं है...’ बोलते-बोलते अचानक सहम से गए कासिम भाई। कहीं उन्हें अमेरिका विरोधी और ओसामा का हमदर्द न समझ लिया जाए। कमबख़्त मुसलमान होने की यही मुश्किल है। इस चैनल में साले या तो पूछते हैं कि उर्दू शब्दों में कहां नुक्ता लगता है, या फिर ईद, बकरीद और शबे बारात में क्या फर्क होता है, कैसे मय्यत होती है, कैसे मुर्दा दफ़नाया जाता है।
किसी ने खोज कर निकाला कि पुरानी समुद्र यात्राओं के दौरान किसी की मौत हो जाने पर लाशों को समंदर में फेंक देने का रिवाज था, क्योंकि उन्हें महीनों तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता।
लेकिन कमबख़्त ये इस्लामी रिवाज कैसे हो गया? जो भी समंदर के सफ़र में मारा जाता होगा, ऐसे ही फेंक दिया जाता होगा? लेकिन ये सवाल भी किससे पूछते कासिम भाई।
`कासिम भाई, फोन क्यों नहीं उठा रहे हैं?’ झुंझलाए हुए रमेश कुमार आए। रमेश कुमार चैनल में ऐंकर हैं- मुसलमानों का मुद्दा उन्हें कुछ ज़्यादा लुभाता है। कासिम भाई ने ह़ड़बड़ी में देखा, वाकई फोन बज रहा था। घर से निकलते मुर्गे की बांग की जगह जल्दी में कुछ बदल लिया था और पहचान नहीं पाए कि उनकी मेज के पास पड़ा उन्हीं का फोन बज रहा है।
`जल्दी से दो-तीन एक्सपर्ट बुलाइए जो बताएंगे कि ओसामा की मौत के बाद मुसलमानों का एलियिनेशन बढेगा या घटेगा। अल क़ायदा की ताकत बढ़ेगी या घटेगी?’
कासिम भाई का जी हुआ कि बोलें कि हिंदुस्तान के मुसलमानों को कमबख़्त ओसामा से क्यों जोड़ते हैं। लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। सबका हिसाब पक्का है। फौरन बताने लगते कि भारत में जो धमाके हुए, वे कैसे लश्कर के स्लीपिंग सेल ने कराए, और लश्कर पाकिस्तान में बैठा है जहां तालिबान और अल क़ायदा से उसकी दोस्ती है।
`और हां, याद रखिएगा, जो गेस्ट आएं, वे दाढ़ी वाले मुसलमान हों, यानी ऐसे नहीं जो मुसलमान न दिखते हों’।
रमेश कुमार के साथ सब हो-हो करके हंसने लगे। कासिम भाई भी ही-ही करते रहे। खुद न उन्होंने दाढ़ी बढ़ाई न टोपी पहनी, उनके बहुत सारे दोस्त दाढ़ी-टोपी नहीं हैं, लेकिन इन्हें दाढ़ी-टोपी वाला मुसलमान चाहिए- ताकि वे दिखा सकें कि देखो ये मुसलमान है और ओसामा पर क्या बोल रहा है।
लेकिन कासिम भाई ने खुद से सवाल किया- तुझे इतनी झल्लाहट क्यों हो रही है। आखिर मसला मुसलमानों का है और टीवी चैनल पर आना है तो इन सब बातों का खयाल तो रखना ही होगा।
लेकिन कुछ ऐसा था कि कासिम भाई खुद को ओसामा के ज़िक्र से बचाने लगे। ओसामा की मौत से उन्हें तकलीफ न थी। उसकी वजह से दुनिया भर के मुसलमान बदनाम हुए। मुसलमान को सब आतंकवादी समझने लगे। लेकिन ओसामा को बनाया किसने था? मुसलमान को बदनाम किसने किया? फिर जिसे ख़ुद बनाया, उसे मारा क्यों? वो भी एक दूसरे मुल्क में घुस कर? जितने लोगों को ओसामा ने मारा, उससे कम लोग बुश और अमेरिका की वजह से नहीं मरे। लेकिन अमेरिका को कौन सज़ा देगा? अमेरिका ने तो अफगानिस्तान और इराक पर भी हमला किया। वहां बेगुनाह लोग नहीं मरे? सद्दाम हुसैन को तो उसने फांसी पर लटका दिया। बुश को कौन लटकाएगा? और अमेरिका का यही रवैया रहा तो वो कुछ भी कर सकता है। कल को वो किसी बहाने हिंदुस्तान पर टूट पड़े तो?
मगर यह सब बोलते तो सबको उनकी मुस्लिम पहचान याद आ जाती। इसलिए चुप रहे और अपने काम में जुटे रहे। एक्सपर्ट आते, मुंडी हिलाते हुए पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्तों पर बात करते और चले जाते।
शाम को स्नैक्स के लिए कैंटीन पहुंचे तो एक गर्मजोशी भरी आवाज़ ने पुकारा, ‘अरे कासिम भाई, ये जवाहिरी कहां छुपा हुआ है? कहीं आपके जामिया नगर में तो नहीं? अमेरिका वहां भी बम मारेगा।‘
सनाका खा गए कासिम भाई। लोग इस तरह भी सोच सकते हैं, उन्होंने सोचा भी नहीं था। लेकिन फिर किसने सोचा था कि ओसामा ऐबटाबाद के महफ़ूज़ इलाके में छुपा होगा। ज़वाहिरी अगर हिंदुस्तान में चला ही आया होगा तो कौन जानता होगा। जैसा पाकिस्तान वैसा हिंदुस्तान। जैसे ढीले वहां के हुक्मरान वैसे ढीले यहां के हुक्मरान। जैसी हताशाएं वहां, वैसी वहां। हो सकता है, यहां भी किसी महफ़ूज़ इलाके में छुपा हो ज़वाहिरी। ये खयाल उन्होंने मज़हर से साझा किया तो वो ठठाकर हंस पड़े। फौरन जुटा ली भीड़, ‘सुनिए, सुनिए, क्या कह रहे हैं कासिम भाई। कहीं जामियानगर में न छुपा हो ज़वाहिरी।‘
`फिर मुल्ला उमर चांदनी चौक में छुपा होगा’, किसी के इस ताने पर ठहाका और तेज़ हो गया।
कासिम भाई तय नहीं कर पाए कि इसे राहत की तरह लें या मुसीबत की तरह। उन्होंने तय किया कि इस खयाल को दिमाग से निकाल बाहर करेंगे। यह भी तय किया कि कमबख़्त ओसामा की बात किसी से नहीं करेंगे।
लेकिन बात थी कि ख़त्म होती नहीं थी। खयाल था कि दिल से जाता नहीं था। जैसे कोई सूई चुभी हो, ज़वाहिरी का ख़ौफ़ उनके दिमाग में बैठ गया था।
इस ख़ौफ़ की एक वजह भी थी। महज तीन साल पहले उनका जाना-पहचाना मुहल्ला एक सुबह अचानक अजनबी हो उठा था। जामियानगर की सुबह की गहमागहमी फौजी बूटों के तले दब गई थी और सब सहमे-सहमे से अपनी खिड़कियों से देख रहे थे, या अल्ला, ये पुलिसवाले धड़ाधड़ कहां उतर रहे हैं।
वे उतरे और एल-18 में चले गए। सीढ़ियों पर उनके धपाधप चढ़ने की आवाज़ आने लगी।
इसके बाद वे कुछ देख नहीं पाए थे। घबराई हुई बीवी उन्हें खिड़की से खींच कर कमरे में ले गई थी और उसने खिडकी बंद कर दी थी।
अगले दो घंटे तक कुछ समझ में नहीं आया था। बीच-बीच में सिर्फ गोलियों की आवाज़ सुनाई देती रही थी।
टीवी देखकर समझ में आया कि उनके पड़ोस के बटला हाउस में आतंकवादी छुपे थे जिन्होंने एक पुलिस अफ़सर को भी मार गिराया। पुलिसवालों ने दो आतंकवादियों को मार दिया, जबकि 2 फरार हैं।
कासिम भाई सन्न थे। और उनकी बीवी तो थरथर कांप रही थी। उसने टीवी पर देखा था, पुलिस दो-तीन आतंकवादियों को सीढ़ियों पर उतार रही थी। चैनल वालों ने आतंकवादियों के चेहरों पर गोल घेरा बना रखा था।
‘अल्ला, ये तो सैफ़ है...अपना सैफ़’, वे बड़बड़ाईं। घबराए हुए कासिम भाई ने देखा, गया में रह रहे उनके चचाजात भाई का बेटा था जो पड़ोस में रहकर पढ़ाई कर रहा था।
`अल्ला, क्या ये भी आतंकवादी है?’
कुछ भी बोलने की हालत में नहीं रह गए थे कासिम भाई। टीवी चीख-चीख कर बता रहा था कि पुलिस ने आतंकवादियों को पकड़ा है। एक पुलिस अफ़सर का मारा जाना बता रहा था कि वाकई ये मासूम लड़के नहीं थे। इसके बावजूद कासिम भाई का दिल गवाही नहीं दे रहा था। वो इन बच्चों को रोज़ गली में आते-जाते देखते रहे हैं, दुकान पर सौदा लेते और हंसते-खिलखिलाते भी।
`एक दिन उसने पूछा था, आंटी कोई ट्यूशन पढ़ने वाला है।‘ उनकी बीवी थरथराती हुई बता रही थीं।
‘किसी और को ये बात मत बताना।‘ सिहर से गए कासिम भाई।
धीरे-धीरे सामने आ रही थी कहानी। या कहानियां। एक-दूसरे को काटती हुई। टीवी कुछ बता रहे थे, पड़ोस के लोग कुछ बता रहे थे, हर जगह सनसनी थी, हर जगह सवाल थे।
धीरे-धीरे कई धागे जोड़कर एक सिलसिला बना पाए कासिम भाई। ये सच है कि बटला हाउस में जो लड़के थे, उनमें कोई एक दहशतगर्दों से मिला हुआ होगा। लेकिन बाकी तो बेख़बर और मासूम थे। एक तो दो दिन पहले ही आया था। सबसे अहम बात ये थी कि इस पूरे वाकये में पूरा मोहल्ला जामियानगर बदनाम हो गया। बल्कि पूरा एक शहर- यानी आजमगढ़- हालांकि उनका उससे कोई वास्ता नहीं था, वे ख़ुद तो गया के थे।
बाद में यह भी पता चला कि टीवी चैनल सीढ़ियों पर उतर रहे जो आतंकवादी दिखा रहे थे, वे असल में आतंकवादी नहीं थे। पुलिस ने बिल्डिंग खाली कराई थी और लड़कों को लेकर उतर रही थी। उसने उन्हें दो घंटे की पूछताछ के बाद छोड़ दिया। लेकिन आतंकवादी खोजने निकले टीवी चैनलों को ये लड़के दिख गए। बस वे बन गए आतंकवादी। टीवी चैनलों के दफ्तर जाकर इन लोगों को नारे लगाने पड़े तब जाकर इन लड़कों की तस्वीर हटाई गई। कासिम भाई ने राहत की सांस ली कि उनका भतीजा सैफ आतंकवादी नहीं निकला।
लेकिन इससे क्या हुआ। टीवी चैनल वालों ने तो उसे आतंकवादी बना डाला है। इस वाकये को 4 साल हो गए हैं। लेकिन अब भी टीवी चैनल जामिया के आतंकवादियों को दिखाते हैं तो उन्हीं मासूम लड़कों को दिखाते हैं। अब तो जामिया एनकाउंटर बोलने पर उन्हीं की तस्वीर याद आती है। शुरू के दो साल लोग चैनलों के दफ्तर जाते रहे, चैनल वाले माफी मांग कर उन्हें हटाते रहे, लेकिन हर छह महीने, साल भर बाद वे फिर से दिखाई पड जाते। दरअसल टीवी चैनल से जुड़े होने के नाते कासिम भाई समझ गए कि वे शॉट आर्काइव में चले गए हैं जहां से डिलिट नहीं हो पा रहे। जब भी किसी को जामिया मुठभेड के शॉट चाहिए होते हैं, वह बेख़बरी में उन्हें ही निकाल लेता है, क्योंकि सबसे पहले शॉट वही हैं। उन्होंने लंबी सांस ली, बेचारे मुसलमान, बेमतलब आतंकवादी बनाए जा रहे हैं।
`कासिम भाई, फोन क्यों नहीं उठा रहे?’ साथ काम करने वाली सुनीता दौड़ी-दौड़ी आई। `तबीयत ठीक तो है?’ कासिम भाई ने हैरानी से देखा, सुनीता के दो मिस कॉल पड़े थे। फिर भी राहत की सांस ली कि ब़ॉस का नहीं हैं।
`कहां खोए हुए हैं आप? थक गए हैं क्या? रात को नींद पूरी नहीं हुई थी?’
कासिम भाई खिसियानी सी हंसी हंसते दिखाई पड़े। बोले, सोच रहा था, जवाहिरी कहां छुपा होगा?
`अरे कासिम भाई, आप अब भूल जाइए, जहां छुपा होगा, अमेरिका खोज निकालेगा।‘
यही तो डर था कासिम भाई को। अमेरिका खोज निकालेगा। और वहीं खोज निकालेगा, जहां वह चाहेगा। यानी जामियानगर तक में। अमेरिका पर कैसे यकीन करें कासिम भाई। अमेरिका तो हमेशा से एक दगाबाज़ मुल्क रहा है। जिस पीठ पर हाथ रखता है, उसी पर खंजर मारता है।
`लेकिन कासिम भाई, आप क्यों डरे हुए हैं?’ सुनीता ने कुछ हैरानी से पूछा, `अमेरिका जो करेगा सो करेगा। हिंदुस्तान जो भरेगा सो भरेगा। जो होगा, सबके साथ होगा, आप छोड़िए और चलिए खाना खाने। खाने के बाद गुलाब जामुन भी है।‘
वाकई कासिम भाई को लगने लगा, सुनीता इतनी बेफिक्र है तो उन्हें किस बात की फ़िक्र है। वे क्यों इस कदर डरे हुए हैं?
वे उठे, टहलते हुए बाहर निकले, अरसे बाद एक सिगरेट पी और कोशिश की कि उसके धुएं के साथ अपनी फिक्र भी निकाल दें।
लेकिन धुआं अटका रह गया, वे खांस रहे थे। कमबख्त सिगरेट पीने की आदत नहीं थी। कुछ भी पीने की आदत नहीं थी। शरीफ़ और दीन वाले मुसलमान थे जो अब कहीं नहीं मिलते। या ज़्यादा होने लगे हैं?
जब लौट कर वे न्यूज़ रूम में आए तो हर तरफ दिखीं ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टियां- क्या भारत भी कार्रवाई करेगा? कासिम भाई पहली बार कुछ समझ नहीं पाए। अब भारत क्या करेगा। थोड़ी देर में ख़बर समझ में आई। जब अमेरिका ओसामा को मारने के लिए ऐबटाबाद में घुस सकता है तो भारत दाऊद को मारने के लिए कराची में क्यों नहीं घुस सकता है। सारे ऐंकर पूछ रहे थे, सारे नेता जवाब दे रहे थे- बीजेपी कुछ जोर-शोर से याद दिला रही थी, भारत को भी अपने आतंकवादी चाहिए। भारत को अपनी तरफ से कार्रवाई का हक है।
‘हक है तो कर ले कमबख़्त।‘, कासिम भाई ने मुंह बिचकाते हुए कहा, ‘ये ताकत का खेल है, जिसके पास ताकत होगी, वह अपनी चलाएगा। अमेरिका के पास ताकत है, उसने मनमानी कर ली। भारत क्या खाकर करेगा?’
‘देखिए, बोलने लगे कासिम भाई दिल की बात। ओसामा के मारे जाने की तकलीफ है मन में कहीं।‘
कासिम भाई सकते में आ गए। या ख़ुदा ये क्या निकल गया ज़ुबान से। जिसने उन पर ताना कसा था, बिल्कुल दोस्ताना लहजे में कसा था। उसके दिल में कासिम भाई को लेकर कहीं कोई शिकवा या अलगाव का एहसास नहीं था। लेकिन यह समझते हुए भी कासिम भाई देख पा रहे थे कि बहुत सारे लोग वाकई इसी तरह सोचते हैं। आखिर दिल्ली या मुंबई में रेड अलर्ट की ज़रूरत क्यों पड़ गई? किसके उत्तेजित होने का ख़तरा है?’
न पूछने की ज़रूरत थी न बताने की। टीवी चैनलों पर हर तरफ दिख रहा था इसका जवाब। लेकिन दबा-छुपा सा। ओसामा के मरने की खुशी में जैसे सब मिठाई बांटने पर आमादा थे। दो और खुशियां इसमें शामिल थीं। एक तो यही कि पाकिस्तान की पोल खुल गई- उसकी ताकत की भी और उसके इरादे की भी। दूसरी यह कि साले मुसलमान भी एक्सपोज हो गए। आखिर इन्हीं लोगों ने तो छुपा रखा था ओसामा को।
रात के 12 बजे थे और चैनलों की गहमागहमी खत्म नहीं हो रही थी। कासिम भाई सिर खुजाते हुए सुनीता से बोले, `मुझे बटला हाउस कांड याद आ रहा है।‘
सुनीता कुछ हैरान दिखी। कहा, `क्या तब भी यही मारामारी थी?’
‘अरे, मारामारी तो इससे भी ज़्यादा थी। इससे ज़्यादा मारामारी के मौके तो पहले भी खूब आए हैं।‘
‘फिर आपको बटला हाउस ही क्यों याद आ रहा है?’
‘हां, बात तो सही है, क्यों याद आ रहा है?’ फीकी सी हंसी हसते हुए बोले कासिम भाई।
लेकिन तभी उनकी हंसी पर ब्रेक लग गया।
अचानक उन्हें याद आ गया, वह कौन सी चीज़ है जिसकी वजह से बटला हाउस की उन्हें यद आ रही है।
और वह कौन सी चीज है जिसकी वजह से वे सुबह से परेशान हैं।
वे निगाहें, जो उन्हें देख रही हैं।
य़े चोर निगाहें थीं- जब बटला हाउस कांड हुआ था, तब भी उनकी ओर कुछ संदेह से देखती थीं। जैसे कासिम भाई आतंकवादियों के मारे जाने के उनके जश्न में ठीक से शामिल नहीं हो रहे हैं।
कासिम भाई को तब यह भांपते देर नहीं लगी थी। लेकिन तब वे वाकई भीतर से आहत थे। सब जिसे आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ बता रहे थे, उसे वे ज्यों का त्यों कबूल करने को तैयार नहीं थे। आखिर वह मंज़र उन्होंने देखा था। उनमें से कुछ लड़कों को उन्होंने देखा था। वे सब आतंकी नहीं हो सकते।
उन्हें याद आया कि चैनल की एक मुस्लिम ऐंकर ने ये बात कुछ तल्ख लहजे में ऑन एयर कह भी दी थी। अगले कई महीने तक सब याद करते रहे और छुपाते-छुपाते भी बताते रहे कि देखो, वह कितनी कट्टर लड़की है। कुछ अरसे बाद जब छंटनी का दौर चला, तो उसे भी साथ-साथ छांट दिया गया।
कासिम भाई न कटना चाहते थे न छंटना चाहते थे। इसलिए वे भी सबके साथ हां में हां मिलाते रहे कि जामियानगर में जो हुआ सो ठीक हुआ।
लेकिन यह तो ओसामा बिन लादेन का मामला है? इससे तो हिंदुस्तानियों का कोई सीधा वास्ता भी नहीं है? उसकी मौत पर उनके भीतर कोई अफ़सोस भी नहीं उमड़ा है।
लेकिन फिर भी उन्हें चोर निगाहों से देखा जा रहा है। मानो, समझने की कोशिश हो रही हो कि ये मुसलमान क्या सोचता है। क्या ये असली हिंदुस्तानी या अमनपसंद है? या इसका असली चोला कुछ और है?
उन्होंने अपने चारों तरफ सिर उठाकर देखा। असली हिंदुस्तानी लोग टीवी चैनलों पर दिख रहे थे।
कमबख़्त हिसाब लगाते हुए कि भारत वैसी सर्जिकल स्ट्राइक कर सकता है या नहीं, जैसी अमेरिका ने की।
अफ़सोस करते हुए कि फौज ऐसे हमले के लिए तैयार भी हो तो भारत के पास राजनीतिक हौसला नहीं है।
इसरार करते हुए कि भारत को पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा देना चाहिए और किसी हद तक जाने को तैयार रहना चाहिए।
न्यूज रूम में चारों तरफ सिर घुमा कर देखा कासिम भाई ने। हर तरफ ऐसी ही आवाज़ें थीं। पूरे हॉल में दीवारों पर चारों तरफ लगे टीवी सेट्स पर जंग के एलान हो रहे थे। फिर अचानक उनका सिर अपने आप घूमने लगा। उन्हें महसूस हुआ कि तमाम चैनलों से निकल कर नेता और जानकार उन पर झपट पड़े हैं।
और वे कासिम भाई नहीं रह गए हैं, पाकिस्तान हो गए हैं, जिसे सबक सिखा दिया जाना है।
इसके बाद कासिम भाई को कुछ याद नहीं रहा। वे ज़मीन पर गिरे पड़े थे।
और उनके दोस्त उन्हें उठाने की कोशिश में लगे रहे।
कोशिश अब भी जारी है। इस बीच ज़वाहिरी अल क़ायदा का नया नेता बन गया है और अमेरिका कसम खा रहा है कि ज़वाहिरी जहां कहीं होगा, उसे भी उसी तरह मारा जाएगा।
टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ की नई पट्टी चल रही है और सब कासिम भाई को उठाने में लगे हैं, `कासिम भाई, कहां खोए हैं, फोन क्यों नहीं उठा रहे? आप उठते क्यों नहीं?’
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