केसरिया बालम
डॉ. हंसा दीप
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बदलती नज़रें, बदलता नज़रिया
कुछ भी बोलने के लिये शब्दों को तौलना पड़ता था धानी को। एक समय था जब बगैर सोचे जो ‘जी’ में आता, बाली से कह देती थी। कैसा जीवन होता जा रहा था, जहाँ से “जी” हट गया था और अब सिर्फ सुनसान “वन” शेष रह गया था, साँय-साँय करता। जब मन हरा-भरा था तो सब अच्छा लगता था। घर की हर चीज जीवंत लगती थी। वही चीजें जो दिल को कभी खुशियाँ देती थीं, अब एक अलग अर्थ के साथ सामने आने लगी थीं।
एक बड़ी, प्यारी-सी महंगी तस्वीर जिसे उसने बहुत शौक से खरीदा था। तस्वीर में यहाँ की सर्दियों का एक खूबसूरत चित्र था। चित्रकार ने अपने कौशल से उसमें जैसे जान डाल दी थी। बर्फीले अंधड़ सहने के बाद, बदलते मौसम के संकेत देता नज़ारा जब हरियाली फूटने को होती और वृक्ष इंतजार कर रहे होते कि कब उनकी डालियाँ फिर से लदेंगी, फूल-पत्तों के साथ। लेकिन वह चित्र अब एक तीखा व्यंग्य बन गया था। पेड़ थे मगर पत्तों के बगैर। टहनियाँ थीं मगर फूलों के बगैर। लॉन में न हरी घास थी, न सफेद बर्फ। मुडेरें सूनी थीं, पक्षियों के बगैर। आज उस तस्वीर के टुकड़े-टुकड़े करने को जी कर रहा था। उसे देखकर लगता जैसे किसी ने उसका हरा-भरा घर ऐसे ही बियाबान में बदल दिया हो।
क्यों इस चित्र को खरीदकर दीवार पर टाँगते हुए यह अहसास नहीं हुआ कि ऐसी तस्वीरें समृद्धि का प्रतीक नहीं बल्कि विनाश का प्रतीक होती हैं। ऐसे दृश्य पहले कभी तंग नहीं करते थे। ध्यान भी नहीं जाता था इन अनर्गल बातों पर, मगर अब सकारात्मकता को तरसती आँखें किसी भी नकारात्मकता को स्वीकार नहीं कर पातीं। पहले कभी अंधविश्वासों पर भरोसा नहीं होता था मगर अब जाने क्या होता जा रहा था। अनहोनी को होनी करती ऐसी कई चीजें संदेह के घेरे में आकर उसे विचलित करतीं तो वह किसी काम में स्वयं को व्यस्त कर लेती।
एक चादर की मानिंद, चारों छोरों से अपने घर को धूप-हवा से बचाने की कोशिश करती रही धानी। ढँकती रही वह सब कुछ, एक चादर बन कर।
बाली का जिगरी दोस्त सोहम उसके सुख-दु:ख का साथी रहा। शादी के कुछ वर्षों बाद का बाली का यह बदला रूप सोहम के लिये भी नया था। वह दु:खी होता धानी के लिये किन्तु चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता। इतनी अच्छी भाभी को बाली तकलीफ दे रहा है यह देखकर दु:खी होता सोहम।
“सोहम भैया, आप बताइए। क्या करूँ मैं?”
“भाभी, आपको सख्ती बरतनी होगी।”
“सख्ती!”
“आप उसे डाँटिए, उससे पूछिए कि वह क्या-क्या कर रहा है।”
“लेकिन वो बताते ही नहीं, कई बार पूछ चुकी हूँ।”
खास दोस्त की पत्नी होने के कारण उसका पूरा सम्मान करता था। घर जाता तो धानी को देखते ही मन प्रसन्न हो जाता। बाली से मिलने के बहाने कभी कभार घर चला जाता।
सोहम मक्खनबाजी का कोई मौका न छोड़ता – “भाभी, एक बात बताइए।”
“एक क्यों, दस पूछिए।”
“क्या कोई ऐसा काम भी है जो आप नहीं कर पातीं?”
“हाँ है न, अपने कई सवालों के जवाब नहीं ढूँढ पाती।”
चेहरे के खालीपन को छुपाती और बाली को देखती उसकी निगाहों से। सोहम समझ जाता कि वे कौनसे सवाल हैं, कहता – “मास्टर जी का डंडा हर सवाल का जवाब उगलवा लेता है भाभी।”
“न तो मैं मास्टर हूँ और न ही डंडा चलाना मुझे आता है। वैसे भी भैया, यहाँ के मास्टर हमारे कस्बे की तरह डंडा चलाएँ तो अपनी नौकरी से हाथ धो बैठें।”
“अरे हाँ, यह तो मैं भूल ही गया था।”
बात घुमाने की कोशिश करता सोहम चुपचाप सोचने लगता – “काश मैं आपकी मदद कर पाता भाभी!”
यह तो दो लोगों के आपसी रिश्तों का ऐसा शीत युद्ध था जिसमें न किसी की हार होती दिखती थी न जीत, परन्तु युद्ध विराम भी नहीं दिखता। किसी तीसरे का वहाँ कोई दखल न हो सकता था, न होना चाहिए था। सोहम सोचता कि बाली ने अपनी ज़िद पूरी करने के लिये इस लड़की की अच्छाइयों को ढाल बना लिया है। बाली-धानी के रिश्ते की इस मौन जंग को देखकर कभी-कभी उसे लगता कि वह अपनी आत्मीयता से धानी के मन में जगह बना सकता है। सोहम की कमजोरी थी धानी। शुरू से ही उसे बहुत अच्छी लगती थी। सोहम ने बहुत चाहा धानी के करीब जाने का, अपने लिये नहीं सिर्फ धानी के लिये, लेकिन यह संभव न हुआ।
उसे ये चिन्ता भी हुई कि एक तो पहले ही भाभी परेशान हैं और किसी लांछन को झेलना पड़े उसके पहले ही उसे हट जाना चाहिए। आखिर क्यों धानी नहीं समझ पाती कि बाली ने उससे बहुत कुछ छिपाया है। अपना कमाया सब कुछ बरबाद कर चुका है वह।
जिसे एक हँसता-खेलता परिवार होना चाहिए था वह एक मौन परिवार बन कर रह गया था। सोहम का यह दु:ख बाली को देखकर क्रोध में बदलता, धानी को देखकर सहानुभूति से घिर जाता। इसी दोहरी मानसिकता के साथ जीता वह उसके घर जाता। आर्या के साथ खेलता किन्तु सहज नहीं हो पाता। धानी को सहारा देने को संकल्पित मन बहुत कुछ करना चाहता किन्तु वह जानता था कि इससे धानी की तकलीफें और बढ़ सकती थीं।
अपनी कमजोरी जब खुद पर हावी होने लगी तो वह सँभल गया। इस तरह हट गया वहाँ से, जैसे कभी था ही नहीं वहाँ। बाली से उसका रिश्ता खत्म-सा हो गया था। धानी से बनाना चाहा रिश्ता पर बन न सका। एक हाथ से बजती ताली के वैसे भी कोई मायने नहीं होते। उसके प्रयास बेकार गए। धानी ने कभी उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। बाली में खोयी धानी को और कुछ नज़र ही न आता। उसका ऐसा प्रेम जो बाली के लिये था, लबालब भरा हुआ, न कभी छलकता न कभी कम होता।
क्रमश...