Bhadukada - 56 in Hindi Fiction Stories by vandana A dubey books and stories PDF | भदूकड़ा - 56

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भदूकड़ा - 56

कुंती की समझ मे भी सुमित्रा जी की सलाह आ गयी थी शायद। गाँव पहुंचते ही उसने सबसे पहले ज़मीन के कागज़ात निकलवाये, दोनों लड़कों को बुलाया और अपने हिस्से की 35 एकड़ ज़मीन में से 15-15 एकड़ जमीन दोनों बेटों के नाम कर दी पांच एकड़ अपने लिए रख ली। मगर इस पूरी कार्यवाही ने भी कुंती के लड़कों- बहुओं-पोतों का हृदय परिवर्तन करने का काम न किया। ज़मीन हाथ में आते ही गाँव की 15-15 एकड़ ज़मीन बेच के उन्होंने वहीं शहरों में 5-5 एकड़ ज़मीन लेना उचित समझा। अब गांव से उनका एकदम ही नाता टूट गया।
इतनी बड़ी हवेली में अकेलीं कुंती..... अगले-पिछले हिस्सों में भी कोई नहीं। सभी अपने बेटे-बहुओं के पास चले गए थे। कभी-कभार आते थे अब। खेती सबने बटाई पर दे दी थी तो अब खेती के समय भी नहीं आते थे। उनके हिस्से का अनाज घर के भंडार में भरवा दिया जाता था। साल भर में जब कुलदेवी की पूजा होती तब सब आते और तभी ज़रूरत भर का अनाज भी ले जाते। घरों में एकाध नौकर आता और सफाई करके चला जाता। लेकिन कुंती कहाँ जाए? उसने तो कभी किसी से ऐसा रिश्ता रखा ही नहीं कि कोई उसे साथ रखना चाहे या उसके साथ रहना चाहे।
रोज़ सुबह- शाम बाहर चबूतरे पर कुर्सी डाले बैठी कुंती, रास्ते से निकलने वालों से खुद ही हालचाल पूछती रहती है। दुआ सलाम तो लोग कर लेते हैं, क्योंकि गांव में तिवारी जी के घर की पुरानी इज़्ज़त चली आ रही है। लेकिन नई पीढ़ी उनसे बच के ही निकलती है। कुंती के सवालों का जवाब देने का धैर्य उसमें नहीं है। यहां तक कि कामगार लोग भी अब उससे रुक के बात नहीं करते।
सामने से कहारिन ताई आ रहीं हों और कुंती उनसे पूछे-
"काय बऊ, कां जा रईं? कैसे हालचाल हैं? बहू लड़का सब मज़े में?"
तो कहारिन ताई बस
"सब ठीक है बड़ी बहूरानी" कह के आगे बढ़ जाती। जबकि कुंती की इच्छा होती कि वो थोड़ी देर उसके पास बैठे, गाँव भर की खबरें दे।
लेकिन सबके दिमाग़ में कुंती का वही कुटिल रूप भरा था जो किसी को भी लपेटे में ले लेता था। किस की कौन सी बात, क्या रूप ले ले, पता नहीं चलता था। सो सब कुंती से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते थे। अभी भी सब इसीलिये कुंती के पास न ठहरते थे, कि क्या जाने कुंती कौन सी बात से बतंगड़ बना दे।
"काय चच्चा, ई बार आम की फ़सल तौ अच्छी भई न?"
कुंती ने बात करने की गरज से सामने से आते पड़ोसी चच्चा को छेड़ा।
"बेटा, आम तो खूब फरे हैं , लेकिन ऊ सें का? तुमाय पेड़न कौ तौ टपको भओ आम भी कोउ नईं उठा सकत। गैया तक मौं नईं लगा सकत सो खूब फरें चाय कम हमें का करनै?"
चच्चा कुंती को ही लानतें भेज के आगे बढ़ लिए।
कुंती जब घर से बाहर, चबूतरे पर आई, तो सामने ही बच्चे 'हरा समंदर, गोपी चन्दर' खेल रहे थे। कुंती को देखते ही भागने लगे। कुंती ने लाख चाहा कि बच्चे रुक जाएं, पर क्यों रुकते वे? बच्चों को भागता देख, अपनी आवाज़ में भरसक मिठास घोलते कुंती बोली थी-
"अरे काय भग रय? खेलत रओ इतईं...!"
" आहाँ अम्मा दादी.... हमें कुटने नइयां तुम सें.... गारी सोई नईं खानै.... हम औरें उतै खेल लें नीम तरै। तुमाई बातन में नईं आउनै हमें."
यही बच्चे पिछले साल तक कुंती के हाथों पिटे हैं खेलने, शोर मचाने के कारण। खूब गालियां भी खाईं हैं। तो अब अचानक कैसे मान लें कि वो सचमुच उन्हें खेलने देगी?
क्रमशः