Jine ke liye - 5 in Hindi Women Focused by Rama Sharma Manavi books and stories PDF | जीने के लिए - 5

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जीने के लिए - 5

पिछली कहानी जानने के लिए पिछले अध्याय अवश्य पढ़ें।
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पंचम अध्याय….
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समय अत्यंत धीमी गति से गुज़रता प्रतीत हो रहा था।जब खुशियां होती हैं तो समय भागता सा प्रतीत होता है, और दुःख के बोझिल पल पहाड़ से लगते हैं।
एक वर्ष पश्चात हृदयाघात से ससुर जी की मृत्यु अचानक से हो गई, ब्लड प्रेशर के मरीज तो थे ही।हालांकि आरती उनका काफ़ी ध्यान रखती थी, परन्तु मृत्यु पर तो किसी का वश नहीं होता है, जब जहां जिस विधि आनी होती है, आ ही जाती है।
पिता के अंतिम संस्कार पर दोनों भाई आए थे।त्रयोदशी के बाद राहुल ने मां से अपने साथ दिल्ली चलने को कहा तो माँ ने पति की इच्छा का वास्ता देकर साथ चलने से इनकार कर दिया, क्योंकि वे आरती एवं बच्चों के साथ ही रहना चाहते थे।
अब राहुल की व्यस्तता अत्यधिक बढ़ गई थी, इसलिए अब उसका आना काफ़ी कम हो गया था।ससुर के रहने से बाहर के कार्यों में अत्यधिक सहयोग मिल जाता था।फिर उनकी छत्रछाया में वह स्वयं को एवं अपने परिवार को सुरक्षित महसूस करती थी।जीवन का एक सत्य यह भी है कि एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा मार्ग समय खोल देता है।
अब आरती के जीवन का दूसरा अध्याय प्रारंभ होने का समय आ गया था।जो घटना घटित होने वाली होती है, उसकी भूमिका पहले से ही बंधनी प्रारंभ हो जाती है।
घर में एक वृद्धा सास,तेरह वर्ष की बेटी एवं दस साल के बेटे के साथ वह जीवन की चुनोतियों से जूझ रही थी।कुछ कार्य राहुल के इंतजार में टलते रहते, यदि विक्रम आ भी जाते तो उसका आहत स्वाभिमान उनसे कहने की इजाज़त नहीं देता।
राहुल के दोस्त के बड़े भाई विकास जी उन्हीं के मोहल्ले में दूसरी गली में अपनी पत्नी एवं एक बेटे के साथ रहते थे।राहुल के कारण उनसे भी ठीक ठाक पारिवारिक परिचय हो गया था,वे अत्यंत मिलनसार व्यक्ति थे।राहुल जब भी आता तो उनसे मिलने अवश्य जाता था।वे भी माह में एकाध बार सास-ससुर से मिलने आते रहते थे।ससुर जी भी उनसे खूब बातें करते थे।जब भी वे आते तो ससुर जी चाय-पकौड़ी जरूर बनवाते,आरती नाश्ता वगैरह रखकर चली जाती थी, कभी बातचीत की आवश्यकता ही नहीं थी।
ससुर जी की तबीयत जब रात में अचानक खराब हुई थी,तब पहली बार घबरा कर उसने विकास जी को फोन कर बुलाया था,उन्होंने ही तुरंत अपनी कार से उन्हें अस्पताल पहुंचाया था, किन्तु ससुर जी को बचाया नहीं जा सका था।क्रिया -कर्म की तैयारियों में राहुल के साथ उसका दोस्त एवं विकास जी भी लगातार सहायता में लगे रहे।
ससुर जी के जाने के बाद अब विकास जी का आना-जाना थोड़ा बढ़ गया था, क्योंकि अब 10-15 दिन बीतते ही कभी वे स्वयं कुशल क्षेम पूछने आ जाते या सास फोन कर बुलवा लेतीं।अब आरती भी साथ बैठकर कुछ बातें करने लगी थी, होती तो सामान्य बातें ही,पर अब परिचय मित्रता की ओर अग्रसर लगी थी।परिणामतः किसी भी आवश्यक कार्य में विकास जी की सहायता ले लेना उसे असहज नहीं करता था।
समय सरिता अपनी गति से अविरल प्रवाहमान थी।आरती एवं विकास जी की मित्रता अब गहराने लगी थी।दीपक,ज्योति के भी वे प्रिय ताऊजी बन गए थे,बच्चे उनसे अत्यधिक घुल-मिल चुके थे।वैसे भी बच्चों को प्यार की भाषा खूब समझ आती है, जो स्नेह-दुलार अपने पिता से मिलना चाहिए था, उसकी क्षतिपूर्ति तो कदापि हो ही नहीं सकती थी, परन्तु विकास जी से प्राप्त स्नेह बच्चों को उनसे जोड़ चुका था।परिणामतः बच्चों की आंखों में पहले जो अपूर्णता दिखाई देती थी वह अब समाप्तप्राय थी।बच्चों की उपस्थिति में जब विकास जी आते थे तो बच्चों की आंखों में चमक आ जाती थी क्योंकि कभी विकास जी उनके साथ साँप-सीढ़ी ,कभी लूडो, कभी कैरम, कभी चेस खेलते, कभी सभी बैडमिंटन, बॉल खेलते और वे मंत्रमुग्ध सी उन्हें निहारती रह जाती थीं।जिंदगी से उन्होंने चांद सितारे तो नहीं मांगे थे, बस इन्हीं छोटी छोटी खुशियों की तमन्ना की थी।
इसी तरह दो-तीन साल और व्यतीत हो गए।अब उनके मध्य फोन पर भी देर तक बातें होने लगी थीं।वे दोनों पूर्ण परिपक्व ,प्रौढ़ावस्था की ओर अग्रसर महिला-पुरूष थे, वे अपने मध्य बढ़ते आकर्षक से अनभिज्ञ नहीं थे।
विकास जी जितने ही शांत एवं समझदार व्यक्ति थे, उनकी पत्नी उतनी ही उग्र स्वभाव की महिला थीं।जहां आस-पड़ोस के लोग विकास जी का सम्मान करते थे, वहीं उनकी पत्नी से सभी कन्नी काटते थे।दोनों अकेले व्यक्ति एक दूसरे के मानसिक अवलम्ब बन अपना दुख-सुख एक दूसरे से बांटकर सुकून महसूस करते थे।पर वे अपने परिवार के समस्त कर्तव्यों का निर्वहन पूर्ण जिम्मेदारी से कर रहे थे।
हालांकि आरती-विकास ने कभी भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया था, परन्तु जमाना उंगली उठाने से कब चूकता है।यह वही समाज है जिसने सती सीता को भी नहीं बख्शा था, फिर वे तो सामान्य इंसान थे।उनके रिश्ते को लेकर पास-पड़ोस में कानाफूसी प्रारंभ हो चुकी थी।ये वही लोग होते हैं जो किसी के दुख में साथ नहीं देते, परन्तु बात का बतंगड़ बनाने में सबसे आगे रहते हैं।
खैर, जब रहना इसी समाज में है तो इसकी कालिख से स्वयं को बचा कर रखना ही उचित होता है।आरती ने जब धुँआ उठता हुआ महसूस किया तो उसने एक बार पुनः मां ही बनकर निर्णय लेते हुए विकास जी से थोड़ी दूरी बनाने में ही भलाई समझी।
वह नहीं चाहती थी कि उसके बच्चों के भविष्य पर कोई आंच आए और न ही विकास जी की गृहस्थी को दूसरी औरत बनकर बिखेरना चाहती थी।आरती-विकास ने इस संदर्भ में आपस में विस्तृत वार्तालाप किया।अब वे फोन पर बातें कर लिया करते, किन्तु आरती के घर वे तभी आते जब कोई आवश्यक कार्य होता।बच्चे जब कभी पूछते कि ताऊजी अब क्यों नहीं आते तो वह उनकी व्यस्तता का बहाना बना देती।
जमाने की जुबान तो बन्द कर दिया, परन्तु अपने मन की व्याकुलता पर नियंत्रण करना आसान तो नहीं था।यूं ही जिंदगी खरामा खरामा आगे बढ़ रही थी।एक दिन विकास जी ने बताया कि उनकी पत्नी सरला के पेट में दर्द रहने लगा था।डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि बच्चेदानी में काफी बड़ी रसौली बन गई है, अतिशीघ्र ऑपरेशन करवाना अत्यावश्यक है, किंतु सरला तैयार नहीं हो रही है, उसे वहम हो गया है कि वह ऑपरेशन कराने पर बचेगी नहीं।

क्रमशः …….
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शेष अगले अध्याय में
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