Sendha Namak - 3 in Hindi Moral Stories by Sudha Trivedi books and stories PDF | सेंधा नमक - 3

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सेंधा नमक - 3

सेंधा नमक

सुधा त्रिवेदी

(3)

अगली सुबह सासरानी को लेकर वन्या को नेत्रालय जाना था। उसके पिता नेत्रालय के सीनियर डॉक्टर, डॉ.सुजीत अरोडा को जानते थे । वन्या ने अपने पिता से कहलवा कर सासुरानी के लिए ‘अप्वाइंटमेंट’ ले ली थी। वन्या के ऑफिस में आज लंदन से सुपरवाइजरी टीम आ रही थी और उसका आज ऑफिस जाना अत्यावश्यक था, पर साहिल के शहर से बाहर होने के कारण उसके पास सासरानी को नेत्रालय ले जाने के अलावा कोई चारा न था। उसने रजिल को सारी बात समझाकर सुबह की पारी की छुट्टी ले ली और दोपहर बाद आने का विश्वास दिलाया। उसने चंद्रा - अपनी कामवाली, की सहायता से जल्दी-जल्दी रसोई के सारे काम निबटाए और अस्पताल जाने के लिए तैयार होने लगी। सासु मां के कई टेस्ट होने थे और इसीलिए उन्हें खाली पेट ही अस्पताल जाना था। वह उनके लिए दोपहर का खाना वगैरह तैयार कर चंद्रा को आवश्यक निर्देश दे ही रही थी कि सासु मां ने तैयार होकर रसोई में प्रवेश किया -

“इसे रसोई क्यों छूने देती हो ? खुद से खाना भी नहीं बना सकतीं क्या ?”

वन्या – “नहीं खाना तो मैं ही बनाती हूं, यह हाथ बंटा देती है।”

सासु – “तो दोपहर में यह परोसेगी मुझे ? एक दिन छुटटी ले लोगी तो कौन सा पहाड टूट पडेगा ? तुमलोगों को तो कैसे भी करके घर से भागने का मौका मिलना चाहिए !”

वन्या समझ न पाई कि यह ‘लोगों’ कौन है ? वह धीमी आवाज में बोली – “आज ऑफिस में बहुत जरूरी काम है । अभी ही बडी मुश्किल से छुटटी ले पाई हूं!”

सासु मां ने भुनभुनाते हुए कहा – “इतना एहसान लादने की क्या जरूरत थी ? न लेतीं छुटटी ! साहिल ने तो जान छुडा ही ली है, तुम भी चली जातीं । मैं शीला के बेटे को लेकर जाने ही वाली थी अस्पताल । मैं तो रह भी जाती शीला के यहां । उसकी बहू को तो कोई काम पर नहीं जाना है कि मुझे नौकरानी के हवाले करके जाने की उसे उतावली हो। जोधपुर की लडकी है वह । कितनी संस्कारी है। मजाल है कि बडों के सामने साडी का पल्लू सिर से उतर जाए ? मगर लोग तो तुम्हीं लोगों के उपर थूकते कि बेटे-बहू के रहते बहन के यहां रही, इसीसे यहां आना पडा। अरे, मैं तो इज्जत रखकर चलनेवाली हूं सबकी। हमें यही संस्कार दिए गए हैं।”

वन्या की आंखों में आंसू आ गए ! उसने मुस्कुराहट से उन्हें छिपाने का विफल प्रयास करते हुए चंद्रा की ओर देखा जो थोडे गुस्से से माताजी की ओर देख रही थी। वन्या, चंद्रा को अपने घर के सदस्य की तरह स्नेह से रखती थी और कभी भी उसके लिए नौकरानी शब्द का प्रयोग नहीं करती थी। वन्या से निगाह मिलते ही चंद्रा ने सासुमां से छिपाकर थोडा मुंह बिचकाकर उनके प्रति अपनी नापसंदगी का इजहार भी कर दिया। वन्या ने गाडी की चाभी उठायी और सासु मां की बातों को अनसुना करते हुए कहा-“चलिए, देर हो रही है ! नौ बजे का ही अप्वाइंटमेंट है।”

मुंह सुजाए सास मां पीछे-पीछे आकर गाडी में पिछली सीट पर बैठ गईं। वन्या भी चुप रही। रास्ते भर कोई कुछ नहीं बोला!वन्या सोचती जा रही थी- जब से आई हैं, एक बार भी बहन या बहन के बेटे ने फोन नहीं किया है, फिर भी उन्हीं का गीत गा रही हैं। और वह पूरे समय सेवा में लगी है, फिर भी मुंह सुजाए हुई हैं। क्या पंजाबी होना या काम करना कोई गुनाह है क्या ?उन्हें तो बल्कि प्रसन्न होना चाहिए कि इतनी कमाउ बहू है।

अस्पताल में डॉक्टर से मिलने और कई टेस्ट वगैरह कराने में ही उसे बारह बज गए! इस बीच सासु मां फोन पर लगातार मौका मिलते ही साहिल, शीला मौसी और उनकी बहू से वन्या की शिकायत करती रहीं कि वह उनसे बात नहीं कर रही, कि नौकरानी के हवाले करके ऑफिस जा रही है, कि कपडे-लत्ते पहनने तक का शउर नहीं है, कि नौकरानी को भी सिर चढा रखा है जो केवल वन्या की ही बात सुनती है वगैरह, वगैरह! इस पर जले पर नमक छिडकने जैसा काम यह हो गया कि वन्या को देर हो रही थी, इसीलिए उसने टेस्ट वगैरह होने के बाद सासु मां को कैंटीन न ले जाकर टैक्सी करके सीधा घर भेज दिया और खुद ऑफिस भागी ! चंद्रा को कह दिया कि उनके घर पहुंचते ही उनके लिए खाना लगा दे ! लेकिन जब वह शाम को घर पहुची तो चंद्रा ने बताया कि उन्होंने दोपहर में कुछ भी नहीं खाया है। अपने साथ जो मठरियां लाई थीं, वही खाकर दवा खाई है और अपने कमरे में चली गई हैं। दो-एक बार चंद्रा ने जब जोर देकर कुछ खाने को कहा तो उसे डांट भी लगा दी है।

शाम की चाय पर शीला मौसी भी आ गईं और उनका पुलिस ऑफिसर लडका -चेतन भी। उसकी पोस्टिंग इस शहर में हुई थी। शीला मौसी और उनकी बहू कोमल दोनों से देर तक माताजी दबी आवाज में जाने क्या बातें करती रहीं । उनलोगों के हाव-भाव और बीच बीच में वन्या की ओर कनखियों से देखने के अंदाज से वन्या को लग गया कि उसी की बुराई हो रही है। चेतन का वन्या के प्रति आदर और स्नेह का भाव ही रहता था, हालांकि उसके इस स्नेह के कारण उसे अपनी पत्नी के ताने अकसर सुनने को मिल जाते थे- जिन्हें वह हंसी में उडा दिया करता था। टीवी पर भारत पाकिस्तान का मैच चल रहा था और अभी वह अपनी माताजी और पत्नी की बातों से बेखबर टीवी देख रहा था।

वन्या ने चाय लगवाकर सबको आवाज दी । बहन और उनकी बहू और खासकर चेतन के बहुत कहने से माताजी भी टेबल पर आईं। चेतन ने ही उन्हें परोस परोसकर ढोकले खिलाए और फिर इसरार करके चाय पिलाई। वैसे तो चेतन की बहू अपने पुलिस अफसर पति के मातहतों पर पूरा रौब झाडती थी और हाथ से शायद ही कोई काम करती थी, पर अभी दो-चार महीनों के लिए आई सास और महीने भर के लिए आई मौसी सास के सामने अपने सुसंस्कारों के प्रदर्शन में कोई कसर नहीं छोडना चाहती थी। साहिल से केवल पंद्रह दिन छोटा चेतन, हमेशा वन्या की तारीफें करता था, उसे कमतर दिखाने का यह अच्छा मौका था। इसी लिए कोमल नीचे जमीन पर ही बैठकर चाय पीने लगी।

माताजी चेतन की बात मान रही हैं, यह देखकर वन्या को आत्मिक संतोष हुआ ! कुछ दवाएं लेने के बाद माताजी के कुछ टेस्ट, कल होने थे। वन्या ने पूछा – “चेतन कल फ्री हो ?”

चेतन – “आपकी सेवा के लिए हमेशा फ्री हूं, आप आदेश दीजिए !”

वन्या – “कल माताजी के कुछ टेस्ट होने हैं। कल मैं छुटटी नहीं ले सकती। क्या आप उन्हें लेकर चले जाओगे अस्पताल ?”

चेतन चहककर बोला – “इट्स माइ प्लेजर ! जरूर ले जाउंगा ! आप आराम से ऑफिस जाइए !”

चेतन की पत्नी ने कनखियों से उसे देखा पर चेतन ने उसकी अनदेखी कर दी। तय हुआ कि कल माताजी को सुबह नौ बजे चेतन आकर अस्पताल ले जाएगा।

लेकिन उनलोगों के विदा होते ही माताजी ने तूफान खडा कर दिया ! रो-रोकर साहिल को फोन करने लगीं कि तेरी बीवी तो मुझे लग्गी से घास खिला रही है। वह जब विक्टोरया महारानी ही थी तो मुझे बुलाया क्यों ? आज मैं पूरे दिन भूखी रही पर उसे कोई फिक्र नहीं। चेतन और उसकी पत्नी नहीं आते तो वह तो शाम में भी नहीं पूछती।

फोन से छूटकर फिर वन्या पर बरसने लगीं –“तुझे जब अपने ही मौज मजे इतने प्रिय हैं तो पहले बता देतीं ! चेतन के हवाले कर दिया। वो क्या निठल्ला बैठा है ?इतना बडा ऑफिसर है पर वह समय निकाल सकता है। तू अपनी प्राइवेट नौकरी से छुट्टी नहीं ले सकती। इतनी भारी हूं कि किसी के माथे फेंकने के लिए तैयार हो ? मुझे नहीं कराना ऑपरेशन । आने दो साहिल को ! मैं वापस चली जाउंगी । अभी फोन करके मना कर दो चेतन को । मुझे नहीं करवाना टेस्ट वेस्ट !”

इसी बीच चंद्रा भुनी हुई मूंगफली लेकर आ गई। उसे देखते ही माताजी का गुस्सा और सातवें आसमान पर पहुंच गया । उन्होंने प्लेट झन्नाटे से फेंका तो बाहर अहाते के पास जाकर गिरा। चंद्रा ने कहा – “अरे, नहीं खाना था तो नहीं खातीं, फेंक क्यों दिया माताजी ? इतना गुस्सा करने से घर नहीं चलता !”

कोमल के जाने के बाद माताजी को अपनी पंजाबी बहू और खटक रही थी। शीला मौसी अपनी बहन से बचपन से ईर्ष्या रखती थीं, पर व्यवहारकुशल, मीठी बातचीत के कारण वह छिपी ईर्ष्या कभी प्रकट न हो पाती थी। वह नौकरों की फौज के बल पर घर चलानेवाली अपनी बहू से ज्यादा प्रसन्न नहीं रहती थीं, बल्कि अप टू डेट वन्या की मोटी कमाई के कारण बहन और उसके बेटे से ईर्ष्या ही रखती थीं, पर प्रकट में अपनी हेठी न होने देने के लिए बहन के सामने अपनी बहू की प्रशंसा किया करती थीं। आज उसी गुप्त ईर्ष्या ने बहन के कान भरने और उनके गुस्से की आग में मॉडर्न लोगों के कारनामों के किस्सों वाला घी डालने में उन्होंने कोई कसर न छोडी थी। उसी का असर था कि चंद्रा के मुंह खोलते ही वन्या की सासरानी पागलों की तरह चिल्लाने लगीं -

“अब घर चलाना मैं तुम्हारे जैसी दो कौडी की नौकरानी से सीखूंगी। निकल यहां से और जब तक मैं यहां रहूं अपनी शक्ल न दिखाना ।”

कहते हुए उन्होने पानी सहित गिलास दीवार की तरफ फेंका । पूरे घर में पानी फैल गया। चंद्रा ने ही उसे साफ किया और आंसू पोंछती हुई रसोई में जाकर बोली – “मैं जा रही हूं दीदी। जब भइयाजी आ जाएं तब बुलाना ।”

चंद्रा ही वन्या की हाथ-पांव थी । उसके जाने की बात सुनकर उसके हाथ-पांव फूल गए, पर कुछ बोली नहीं। डबडबाई आंखों से उसे देखती रही। उसके जाने के बाद चेतन को फोन लगाया- “चेतन जी, आपके साथ माताजी को अस्पताल जाने की बात कहकर मैंने बडी गलती की । वे तो बडी गुस्सा हो रही हैं। आप रहने दो, मैं ही छुटटी ले लूंगी ।”

चेतन ने हंसते हुए कहा –“ठीक है आप भी छुटटी ले लें पर मैं भी आउंगा। उनके कहने से मना थोडी मान लूंगा । मैं मना लूंगा उन्हें ।”

चेतन की बातों से वन्या को बडी तसल्ली हुई। पर साहिल ने मां की बातों का ही यकीन किया और उससे कोई बात नहीं की, इससे उसे बडी चोट पहुंची। वन्या की मां को पहले ही जैन लडके से वन्या की शादी की बात करना नापसंद था, इसीलिए उनसे कोई दुख तकलीफ बांटना, मतलब और बात बिगाडना ही होता । ऐसे में वन्या को स्नेही राजबाला जी और उनके पितृतुल्य पति की बडी याद आई। अगले रोज जब चेतन माताजी को लेकर इस डॉक्टर से उस डॉक्टर तक टेस्ट करवाने के लिए दौड भाग कर रहा था, वन्या ने विजिटर्स चेयर पर बैठे-बैठे फोन पर सारी बात तफसील से राजबाला जी को बताई । राजबाला जी ने बडे धैर्य से सारी बातें सुनीं और कहा कि चिंता न करे, वह जल्दी ही उससे मिलने उसके घर आएंगी और उसकी सासु मां से बातें करेंगी। राजबाला जी की मातृत्व भरी बातें सुनकर तो वन्या रोने भी लगी।

शाम में साहिल अपनी ट्रिप बीच में ही छोडकर लौट आया । उसने भी वन्या से सीधे मुंह बात नहीं की। रात में जब वन्या ने अपने आप ही अपनी सफाई पेश करनी चाही तो और रोष भरी आवाज में कहने लगा – “दो दिनों तुम निभा नहीं सकतीं ? एक दिन साडी ही पहन लेतीं तो क्या बिगडता ? और चंद्रा को भी माताजी से झगडने पर फटकार लगाने की बजाए तुमने उसे बढावा दिया ? मैं तुम्हारी मां की कितनी कद्र करता हूं, कम से कम उसी का मान रखकर मेरी मां की कद्र की होती ?”

वन्या – “अरे ? कहना क्या चाहते हो साहिल ? मैंने उनकी कद्र नहीं की ? उनके लिए फ्लाइट की टिकिट किसने कराई थी ? तुमने या मैंने ?”

साहिल- “तो उसका ताव है तुम्हें ? कितने पैसे हुए टिकिट के ? ले लेना मुझसे ? मेरी मां हैं तो उनके लिए खर्च करना भी मेरी ही जिम्मेदारी है !”

वन्या आहत होकर बोली – “बोलने से पहले कुछ सोच लिया करो साहिल ! एक तो जब से माताजी आई हैं, मेरे उपर खार खाए बैठी हैं, उपर से तुम भी बरस रहे हो ?”

साहिल - खार खाए बैठी हैं ? कांट यू माइंड योर लैंग्वेज ? वे पूरे दिन भूखी रहीं, तुमसे इतना तक न हुआ कि उन्हें कैंटीन में कुछ खिलाकर फिर घर भेजतीं, और उपर से कहती हो कि खार खाए बैठी हैं ?

वन्या – “चिल्लाकर और सबको सुनाओ कि तुम भी मुझे डांटते हो ।”

साहिल- “मैं डांट रहा हूं ? मैं चिल्ला रहा हूं ? सब कौन है ? मेरी मां ही तो हैं ? उनसे ही तुम्हारी सबसे ज्यादा परदादारी है ?”

वन्या को साहिल के इस बदले रूप से बेहद तकलीफ हुई। वह रोती हुई मुंह फेरकर सोने का उपक्रम करने लगी। उधर से माताजी साहिल को आवाज लगा रही थीं –“साहिल ! क्या हुआ रे ? मेरे यहां आने से झगडा हो रहा है तुमलोगों का तो लो, मैं कल ही चली जाउंगी ।”

साहिल – “तुम क्यों जाओगी मां, जिन्हें तुम्हारे रहने से तकलीफ होगी वे अपना राजमहल ढूंढे न ?”

वन्या के कलेजे में तीर लगा ! ये साहिल कैसे मां के आते ही एकदम से बदल गया ? अगले रोज घर में अबोला रहा । चंद्रा आई ही नहीं थी। झाडू-पोछा-बरतन-कपडे- सब वन्या ने किए। माताजी ने रसोई बनाई और पूछ-पूछकर साहिल को खिलाती रहीं। साहिल ने भी सोचा कि वन्या काम खत्म होने पर खा लेगी, इसीलिए उसने उससे नाश्ते के लिए पूछा भी नहीं। उसे यह भी डर था कि पत्नी को नाश्ते के लिए पूछने पर मां कहीं फिर न नाराज हो जाएं । उसने राजा बेटा बने रहने में भलाई समझी। वन्या बिना कुछ खाए-पिए ऑफिस चली गई। ऑफिस से थोडी देर के लिए राजबाला जी के यहां होकर आई। घर जाने का उसका बिल्कुल मन नहीं हो रहा था।

अगले रोज माताजी की आंखों का ऑपरेशन हुआ। उसी दिन उन्हें अस्पताल से छुटटी भी मिल गई। इसके बाद माताजी एक महीनों तक और रहीं । उस दौरान हर रोज साहिल और वन्या के बीच किसी न किसी बात को लेकर इसी तरह का झगडा होता रहा। माताजी साहिल के आते ही वन्या-पुराण खोलकर बैठ जातीं। वन्या कितना भी उनका ध्यान रखती, उन्हें शिकायत का कोई- न- कोई बहाना मिल ही जाता था। साहिल भी मां की बातों का ही विश्वास कर लेता था। शीला मौसीजी ने भी इस नाटक में ‘वैम्पायर’ का रोल बखूबी निभाया । इस तरह वन्या और साहिल के बीच जैसे एक दरार पड गई जो माताजी के वापस जाने पर भी पट न सकी।

क्रमश..