जय श्रीकृष्ण बंधुवर!भगवान श्रीकृष्ण और श्रीगीताजी के अशीम अनुकंपा से आज श्री गीताजी के सत्रहवें अध्यायय को लेकर आया हु। आप सभी बन्धुजन श्रीगीता जी अमृतय शब्दो को पढ़कर, सुनकर, सुनाकर अपना तथा उन सभी बन्धुजनों को इस जन्म-मरण के बंधन से छूटकारा दिलावें। ईश्वर की अशीम कृपा जैसे मुझपर बानी है तैसे आप सभी पर भी बनी रहे।
जय श्रीकृष्ण!~~~~~~~~~~~~~ॐ~~~~~~~~~~~~~~
🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-१७🙏अर्जुन ने पूछा- है माधव! शास्त्र विधि को छोड़, जो श्रद्धा के साथ पूजन करतें है। उनकी निष्ठा किस प्रकार है, सात्विकी है, राजसी है अथवा तामसी। श्री कृष्ण बोले- प्राणियों के स्वभाव से ही सात्विकी, राजसी और तामसी ये तीन प्रकार की श्रद्धा है सो सुनो! है अर्जुन! सबकी श्रद्धा अपनी प्रकृति के अनुसार होती है। पुरुष श्रद्धामय है, जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही होता है। सात्विकी पुरुष देवताओं को पूजतें है, रजो गुनी यक्ष राक्षसों को पूजतें है और तापसी जन भूत प्रेतों को पूजतें हैं। जो लोग कपट, अहंकार, कामविष्यानुराग और आग्रहयुक्त शास्त्र में नकहा हुआ उग्रतप करतें है, वह मूर्खता से केवल अपने शरीरस्थ आत्मा को बल्कि मुझे भी कष्ट देते हैं, उन्हें निश्चय पूर्वक आसुरी जानिए, प्रत्येक को तीन प्रकार के आहार प्रिय है
उसी तरह यज्ञ, तप और दान तीन प्रकार के हैं, भेद सुनिए। आयु, सत्वबल, आरोग्य सुख, और प्रोटी को बढाने वाले रस, घृतयुक्त पोषक और आनंददायक आहार सात्विकों को प्रिय हैं। कडवें, खट्टे, नमकीन, तीखे, रूखे, चरपते, तथा दुःख शोक और रोगजन्मक भोजन राजसी लोगो को प्रिय हैं। पहरों का रखा हुआ आनिरस, दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छीष्ट, अपवित्र भोजन तामसी लोगों को अच्छा लगता है। यज्ञ करना ही है ऐसा मन को दृढ़ करके फल की इच्छा बिना विधि पूर्वक जो यज्ञ किया जाता है, वह सात्विक है। हे भारत श्रेष्ठ! फल की कामना से और लोक को दिखाने के लिए जो यज्ञ किया जातक है उसे राजस जानो। शास्त्र के विधि से हीन, अन्नदान रहित, मन्त्रहीनं और बिना श्रद्धा के किया हुआ यज्ञ तामस कहलाता है , देवता, द्विज, गुरु और विद्वान इनका पूजन, पवित्रता, सरलता ब्रम्हाचार्य और अहिंसा का आचरण का शारिरिक तप है। जिस वाक्य से किसी का दिल न दुखे, सत्य प्रिय, हितकारी भाषण, स्वाध्याय का अभ्यास वक्चक तप है। मन की प्रसन्नता, चित्त की शांति, मौन आत्मा-निग्रह और निष्कपट रहना-यह मानसिक तप है। यह तीनों प्रकार का तप यदि श्रद्धा से फल की इच्छा त्यागकर और योगयुक्त होकर किया जायेतो सात्विक तप कहलाता है। जो अपना आदर और बड़ाई कराने के लिए दंभपूर्वक किया जाता है वह आन्तर्य और क्षणिक तप राजस है। जो दुराग्रह से आत्मा को कष्ट देकर या दूसरे के नाश के लिए किया जाए उसे तामस तप कहते हैं। जो दान फल की इच्छा त्याग, उत्तम स्थान में, सत्य पात्र के बदले में कोई वस्तु लेने की इच्छा बिना दिया जाता है, उसे सात्विक दान कहतें हैं। जो दान प्रत्युपकार अथवा किसी फल की इच्छा से क्लेश पूर्वक दिया जाता है उसे राजस दान कहते हैं। अयोग्य स्थान पर, अयोग्य समय में, अयोग्य पुरुषों को अस्तकार और निरादर के साथ जो दान दिया जाता है। उसे तामस दान कहते हैं। ॐ, तत और सत ये तीन ब्रम्हा के नाम हैं, इन्ही से आदि काल में ब्राम्हण यज्ञ और बने हैं। इसी से ज्ञानी पुरुष यज्ञ, दान और तप आदि शास्त्राक्त क्रियायें ओंकार उच्चारण के साथ कहते हैं। मुमुक्षु जन फल की इच्छा न करके सत् कहते हैं। और ईश्वर प्राप्ति अर्थ जो कर्म है यह भी सत् कहलातें हैं, हे पार्थ! श्रद्धा से रहित दान, तप और अन्य कर्म जो किए जातें हैं वे असत कहलाते हैं, वह न इस लोक में और न परलोक में हितकारी हैं।
अथ श्रीमद्भगवतगीता का सत्रहवां अध्यायय समाप्त।~~~~~~~~~~~~~ॐ~~~~~~~~~~~~~ 🙏अथ सत्रहवें अध्याय का महात्त्म्य🙏श्री भगवानजी जी बोले- मांडलीक नाम देश में दुशासन नामका राजा था। एक राजा किसी दूसरे देश का था जिन्होनें आपस में शर्त बांधी हाथी लड़ाये और कहा जिसका हाथी जीते सो ये अमुक धन लेवै। तब दूसरे राजा का हाथी जीता दुशासन का हाथी हारा कुछ दिन पीछे हाथी मर गया राजा को बड़ी चिंता हुई। एक द्रव्य गया दूसरे हाथी मरा तीसरे लोगो मे हंसी हुई। इससे निंदा चली इसी चिंता मर गया, यमदूत पकड़ कर धर्मराज के पास ले गये धर्मराज ने हुक्म दिया यह हाथी के मोह से मरा है इसको हाथी की योनि दो। हे लक्ष्मी! राजा दुशासन संगलद्वीप में जाकर हाथी हुआ वहां उस राजा के बहुत से हाथी थे जिनमें आया, उस पिछले जन्म की खबर थी मन में बारम्बार यही पछतावे कि मैं पिछले जन्म में राजा था अब हाथी हुआ हूँ बहुत रुदन करेबखावे पीवे कुछ नहीं इतने में एक साधु आया जिसने राजा को यह श्लोक सुनायक राजा बड़ा प्रसन्न हुआ, हे सन्तजी कुछ मांगो उसने कहा और मेरे पास सब कुछ है, एक हाथी नहीं है राजा ने सुनकर वही हाथी दिया ब्राम्हण अपने घर ले आया, दाना रात को दिया वह खावे नहीं पानी भी नहीं पिया रुदन कर मन में चितने कोई ऐसा होवे जो मुझे इस योनि से छोड़ावें। उस साधु ने महावत को बुलाया पूछा कि इस हाथी को क्या दुख है खाता पिता कुछ नहीं महावत ने देखकर कहा इसको कुछ रोग नहीं है तब साधु ने राजा से कहा हाथी खाता पिता कुछ नही बस खड़ा रुदन करता है यह सुन राजा आप देखने को आया राजा ने भले-२ वैघ बुलाये और महावत सदवाए सबको हाथी दिखाया उन्होंने देखकर कहा, राजा जी को मानसी कोई दुःख है। देह को कोई दुख नहीं तब राजा ने कहा हाथी तू ही बोल तुझे क्या दुख है। परमेश्वर की शक्ति से मनुष्यों की भाषा में हाथी ने कहा, राजा तू बड़ा धर्मज्ञ है यह ब्राम्हण भी बड़ा बुद्धिमान है, इसके घर का अन्न खावे जो बड़ा धर्मात्मा हो मुझेको क्यों मिलें, तब साधु ने कहा अपना हाथी फेरले राजा ने कहा दान दिया मैं नहीं फेरता। ये हाथी मरे या जीवे तब हाथी ने कहा- हे सन्तजी! तू मत कल्प तेरे घर मे कोई गीत की पोथी हो तो मुझे सत्रहवें अध्याय का पथ सुनाओ तब उस साधु ने ऐसा ही किया। हे लक्ष्मी! सत्रहवां अध्यायय सुनते ही तत्काल हाथी देह छूटी आकाश से विमान आये देव देह पाकर विमान पर चढ़ के राजा के सामने आ खड़ा हुआ राजा की स्तुति करी। राजन् तू धन्य है तेरी कृपा से में अधम देह से छूटा हूँ। राजा को अपनी पिछली कथा सुनाई। हे राजन्! मैं पिछले जन्म में राजा था। हाथी मैन लडाये थे मेरा हाथी हार गया, में उस चिंता में मर गया धर्मराज की आज्ञा से मैन हाथी का जन्म पाया। प्रार्थना करि मेरी गति कब होवेगी धर्मराज ने कहा गीता के सत्रहवें अध्यायय के सुनने से तेरी मुक्ति होएगी सो तेरी और सन्त जी की कृपा हुई, मैं वैकुण्ठ को जाता हूँ। देव देहि पाकर बैकुण्ठ गया राजा अपने घर आया।
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💝~Durgesh Tiwari~