Chhuta hua kuchh - 1 in Hindi Love Stories by Ramakant Sharma books and stories PDF | छूटा हुआ कुछ - 1

Featured Books
  • ભીતરમન - 58

    અમારો આખો પરિવાર પોતપોતાના રૂમમાં ઊંઘવા માટે જતો રહ્યો હતો....

  • ખજાનો - 86

    " હા, તેને જોઈ શકાય છે. સામાન્ય રીતે રેડ કોલંબસ મંકી માનવ જા...

  • ફરે તે ફરફરે - 41

      "આજ ફિર જીનેકી તમન્ના હૈ ,આજ ફિર મરનેકા ઇરાદા હૈ "ખબર...

  • ભાગવત રહસ્ય - 119

    ભાગવત રહસ્ય-૧૧૯   વીરભદ્ર દક્ષના યજ્ઞ સ્થાને આવ્યો છે. મોટો...

  • પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 21

    સગાઈ"મમ્મી હું મારા મિત્રો સાથે મોલમાં જાવ છું. તારે કંઈ લાવ...

Categories
Share

छूटा हुआ कुछ - 1

छूटा हुआ कुछ

डा. रमाकांत शर्मा

1.

‘उफ, क्या कहानी है’ – उमा जी ने उस पेज का कोना मोड़कर किताब बंद की और अपना चश्मा पास की मेज पर रखकर तकिये पर सिर रखते हुए अपने दोनों पैर पलंग पर पूरे फैला लिये। वे कुछ देर तक वैसे ही लेटी रहीं। कहानी को आगे पढ़ने से पहले वे कहानी के अब तक के घटनाक्रम को अपने मस्तिष्क में सिलसिलेवार लगा लेना चाहती थीं।

किशोरावस्था की प्रेम कहानी थी वह। जिस मकान की पहली मंजिल पर वह किशोर (किरदार मैं) किराए पर रहता था, उसी मकान की दूसरी मंजिल पर दुआ परिवार रहता था। दुआ आंटी अपने दो बच्चों के साथ रहती थीं। उनके पति मिलिट्री में थे और फिलहाल अपने परिवार को अपने साथ नहीं रख सकते थे। आंटी की बेटी थी नवीं कक्षा में पढ़ने वाली सरिता। चुपचाप रहने वाली और किसी से ज्यादा न घुलने-मिलने वाली सरिता ज्यादातर अपनी पढ़ाई में लगी रहती। मकान मालिक का लड़का सतीश उसे मन ही मन चाहता और उसके घर जाकर आंटी से इधर-उधर की बातें करता रहता, पर उस लड़की से बात करने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती। वह अकसर अपने दोस्त किशोर से कहता – ‘यार, लड़कियां मुझसे बात करने को तरसती हैं, पर यह लड़की तो मेरी तरफ नजर उठाकर भी नहीं देखती। पता नहीं, उससे अपने दिल की बात कहने में मेरा साहस क्यों जवाब दे जाता है’।

किशोर उससे कहता तुम सचमुच उसे चाहते हो तो पत्र लिखकर उसे बता दो। मकान मालिक का लड़का सतीश कई पत्र लिख-लिख कर फाड़ चुका था, पर उसे देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

उमा जी ने अभी कहानी यहीं तक पढ़ी थी। पलंग पर लेटे-लेटे वे सोचने लगीं, पता नहीं सतीश उस लड़की से अपने मन की बात कह पाएगा या नहीं। वह उसे पत्र देकर अपना प्रेम प्रदर्शित कर पाएगा या नहीं। उनकी उत्सुकता बढ़ने लगी तो उन्होंने किताब फिर से उठा ली। कोना मुड़ा हुआ पृष्ठ खोला और पढ़ने लगीं –

‘एक दिन हम आंटी के घर में बैठे हुए थे। हमेशा की तरह बातों का दौर चल रहा था और सरिता वहीं पास में बैठी अपना होमवर्क कर रही थी। मैं अंग्रेजी साहित्य का विद्यार्थी था। आंटी को यह पता था। अचानक वे बोलीं – “बेटा तुम सरिता को थोड़ी देर अंग्रेजी पढ़ा दिया करो, एक यही विषय ऐसा है, जिसमें यह कमजोर है, बाकी सभी विषयों में अच्छे नंबर लाती है।“

मैं थोड़ा हिचक रहा था पर सतीश ने तुरंत ही मेरी ओर से हां कर दी और बोला – “इसमें क्या है, यह जरूर इसे अंग्रेजी पढ़ा दिया करेगा।“

आंटी ने मेरी ओर देखा तो मैं मना नहीं कर पाया और वे खुश हो गईं। मैंने कनखियों से सरिता की ओर देखा, वह वैसे ही सिर झुकाए काम कर रही थी। उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नजर नहीं आ रही थी।

कॉलेज से लौटने के बाद मैं सरिता को पढ़ाने जाने लगा। सतीश मेरे साथ ही होता। आंटी से उसकी गप्पें और सरिता को देखना साथ-साथ चलता रहता। सरिता वैसे ही सिर झुकाए पढ़ती रहती।‘

उमा जी को लगा कहानी आगे बढ़ ही नहीं रही है। उन्होंने कहानी पढ़ना बंद कर दिया और सोचने लगीं - सरिता तो वैसे ही सिर झुकाए पढ़ती रहती है, सतीश की तरफ देखती भी नहीं। फिर, उन दोनों के बीच प्यार पनपेगा कैसे? शायद आगे चल कर कुछ हो। अभी तो कहानी के काफी पेज बचे हैं। उन्होंने फिर से कहानी पढ़नी शुरू कर दी –

‘एक दिन सतीश ने मुझसे कहा – “यार तू मेरा अच्छा दोस्त है, तू मेरी सहायता क्यों नहीं करता? तू सरिता को बता कि मैं उसके लिए मन में क्या भावना रखता हूं। एक बार उसे पता चल जाएगा तो वह फिर मुझे नजरअंदाज नहीं कर पाएगी। मुझे पता है वह भी मुझे अंदर ही अंदर चाहती है, बस अपने स्वभाव के कारण बोल नहीं पाती। यह सच था कि पढ़ाई को लेकर मेरी बात सरिता से होती रहती थी, पर क्या सतीश के बारे में उससे बात करना इतना आसान था’।

उमा जी को अब कहानी कुछ-कुछ समझ में आने लगी थी। इस कहानी का किरदार ‘मैं’ आखिर सतीश का जिगरी दोस्त था। वह जरूर उसकी भावना सरिता तक पहुंचा देगा। सरिता उसके मन की बात समझ कर उसकी तरफ आकर्षित होगी और उसे चाहने लगेगी। मकान मालिक के बेटे से अपनी लड़की की शादी करने में सरिता की मां को क्यों कोई ऐतराज होने लगा। उनकी बेटी किराएदार से मकान-मालकिन बन जाएगी और वे सब खुशी-खुशी रहने लगेंगे। कहानी के अंत की उनकी इस कल्पना ने कहानी पढ़ने में उनकी रुचि को खत्म कर दिया और उस पेज का कोना मोड़कर किताब बंद करके वे उठ गईं। उन्हें दोपहर की चाय बनानी थी।

उनके पति डाइनिंग टेबिल को ही लिखने-पढ़ने की मेज की तरह इस्तेमाल करते। अदालत से बड़े बाबू के पद से रिटायर होने के बाद कुछ मन लगाने और कुछ आय का जरिया बनाए रखने के लिए वे ड्राफ्टिंग का काम करने लगे। उनकी अंग्रेजी की ड्राफ्टिंग बहुत अच्छी थी, इसलिए उनके जान-पहचान के कई अहलकार और वकील उन्हें घर बैठे ही काम दे जाते। उनके पास काम काफी रहने लगा, वे सुबह फ्रेश होने के बाद चाय-नाश्ता करते और फिर लैपटॉप खोल कर काम से लग जाते। दोपहर के लगभग बारह बजे उमा जी उन्हें जबरदस्ती उठातीं। वे नहा-धोकर और खाना खाकर फिर से काम पर बैठ जाते। पत्रों, अपीलों और ऐसे ही समय पर प्रस्तुत किए जाने वाले अन्य दस्तावेजों के ड्राफ्ट उन्हें समय पर बना कर जो देने होते थे।

उमा जी चाय बना कर ले लाईं और उसे डाइनिंग टेबिल पर रखते हुए कहा – ‘सुनो जी, चाय रख दी है’।

‘हूं, तुम समय की बड़ी पाबंद हो। ठीक साढ़े तीन बजे चाय बना लाती हो।‘

‘वो तो ठीक है, पर उसे समय से पी भी लिया करो’।

‘क्या करूं, ये अर्जेंट काम है। कल सुबह ही इसे वकील साहब को कोर्ट में पेश करना है।‘

‘मैंने कब कहा कि अर्जेंट काम मत करो, पर चाय तो पी लो’।

‘बस, दो मिनट – उन्होंने तेजी से की-बोर्ड पर उंगलियां दौड़ाते हुए कहा।‘

‘ठंडी हो जाएगी।‘

‘तुम पीना शुरू करो, बस लास्ट की ये दो लाइन टाइप कर लूं।‘

उमा जी को ठंडी चाय पीना जरा भी पसंद नहीं था। उन्होंने अपना कप उठाया और उसकी सिप लेने लगीं। चाय की गर्म-गर्म भाप उनके चेहरे से टकराई तो उन्हें बहुत अच्छा लगा।

‘बिस्किट कहां हैं? उनके पति ने भी तब तक चाय का कप उठा लिया था।‘

‘ये रखे, आपके लैपटॉप के पीछे। रुको मैं प्लैट उठाकर देती हूं आपको’।

उन्होंने प्लैट से बिस्किट उठा लिये तो उमा जी ने भी एक बिस्किट उठाया और चाय में डुबो कर खाने लगीं। उन्हें चाय में डुबो-डुबो कर बिस्किट खाने में ही मजा आता था। उनकी यह आदत उनके पति को अच्छी नहीं लगती थी। शुरू-शुरू में तो वे उन्हें टोक भी दिया करते थे, पर जब उन्हें लगा कि उमा जी की यह आदत नहीं बदलेगी तो उन्होंने कहना बंद कर दिया।

जल्दी-जल्दी चाय खत्म करके उनके पतिदेव फिर से काम में लग गए तो उमा जी ने कप-प्लैट उठाए और उन्हें सिंक में रख आई। रात के खाने के बाद वे एकसाथ ही सारे बर्तन साफ करती थीं। वे फिर से बेडरूम में जाकर पलंग पर बैठ गईं। बगल की तिपाई पर कहानी की किताब वैसी ही पड़ी थी जैसी वे उसे रखकर गई थीं। थोड़ी देर तक उन्होंने उसे वैसे ही पड़े रहने दिया। एक बार कहानी का अंत समझ में आ जाए तो फिर उसे पढ़ने से मन उचट जाता है। पर, पता नहीं कब उन्होंने वह किताब उठा ली और अनमने ढंग से उसे पढ़ने लगीं-

‘उस दिन जब हम आंटी के घर पहुंचे तो वे बहुत खुश नजर आ रही थीं। खुशी उनके चेहरे से छलकी पड़ रही थी। हमें देखते ही उन्होंने प्रसाद के लड्डू हमारे हाथ पर रख दिए और बोलीं – “आखिर भगवान ने मेरी प्रर्थना सुन ली। मालूम है, तुम्हारे अंकल की पोस्टिंग नासिक में हो गई है और वे अपनी फेमिली को अपने साथ रख सकते हैं। बस, कुछ दिनों में आकर वे हमें ले जाएंगे। आंटी अपनी रौ में बोले चली जा रही थीं और हम उनका मुंह देख रहे थे। सतीश की हालत तो देखने लायक हो गई थी।

सतीश मेरे साथ मेरे कमरे में ही आ गया। वह बहुत परेशान था। कहने लगा - “देख तू मेरा अच्छा दोस्त है तो मेरा यह काम कर दे। अब तो वह जा ही रही है। वह चाहे हां करे या ना, पर मुझे यह संतोष रहेगा कि मेरी बात उस तक पहुंची।“

मेरे बार-बार मना करने पर भी वह मुझे दोस्ती का वास्ता देता रहा तो आखिर मुझे मानना ही पड़ा।‘

उमा जी कहानी पढ़ते-पढ़ते रुक गईँ। सरिता और उसके परिवार के वहां से हमेशा के लिए चले जाने का प्रसंग अचानक सामने आ गया। वे सोचने लगीं, कहीं सतीश के मन की बात मन में ही तो नहीं रह जाएगी। यह तो सतीश के साथ अन्याय हो जाएगा। कितना अच्छा हो यदि सतीश का दोस्त उसकी मनोभावना सरिता तक पहुंचा दे और फिर कहानी का सुखद अंत हो जाए। उन्होंने खुद को समझाया - सतीश के दोस्त ने उसकी बात मान ली है तो अब सरिता तक सतीश की बात पहुंच ही जाएगी। पहुंच भी जानी चाहिए क्योंकि यह उसके पास आखिरी मौका था। देखते हैं, क्या होता है के अंदाज में उन्होंने कहानी को आगे पढ़ना शुरू किया –

‘इस बात को हुए दो दिन गुजर चुके थे। सतीश मुझे बार-बार इसकी याद दिला रहा था। सच तो यह है कि मैं इस काम को अंजाम देने के लिए हिम्मत जुटा रहा था। हिम्मत तब और भी जवाब दे गई जब पता चला कि अंकल उन्हें लेने आ पहुंचे हैं।

हम दोनों अंकल से मिलने गए। बातों ही बातों में पता चला कि बस दो दिन बाद ही वे यहां से नासिक के लिए निकल जाएंगे। परसों सुबह उनके सामान का ट्रक रवाना हो जाएगा और शाम की गाड़ी से वे भी चले जाएंगे। यह भी पता चला कि सरिता कल आखिरी बार अपने स्कूल जाएगी और स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट लेकर आएगी।

मैंने बहुत सोचा, घर में तो सतीश का काम हो नहीं सकता था। मैंने तय किया कि सरिता के स्कूल के रास्ते में ही बात की जाए। वह पैदल ही स्कूल जाती थी, इसलिए रास्ते में उससे बात करना सबसे आसान था। जब मैंने सतीश को यह बताया तो उसने भी इससे सहमति जताई।

दूसरे दिन मैं बहुत जल्दी उठ कर तैयार हो गया क्योंकि वह काफी सुबह स्कूल के लिए निकल जाती थी। जैसे ही वह घर से निकली मैं भी निकल लिया। वह गली में थोड़ी दूर पर जाती नजर आई। गली में से मुख्य सड़क पर आते समय उसने स्वाभाविक रूप से पीछे मुड़ कर देखा तो मुझे देखकर कुछ चौंकी और फिर आगे बढ़ गई।

मुख्य सड़क पर थोड़ा चलने के बाद फिर से एक गली में जाना था और गली समाप्त होते ही उसका स्कूल था। उस गली में मुड़ते समय भी जब उसने मुझे अपने पीछे पाया तो कुछ असमंजस लिए वह रुक गई।

मैं एक बार तो ठिठका फिर सीधा उसके पास जाकर खड़ा हो गया। वह फिर से चलने लगी और मैं भी उसके साथ चलने लगा। चलते-चलते ही उसने पूछा – “कोई काम है मुझसे?” मैंने कहा – “मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं।“ वह रुक गई और बोली – “कहिए, क्या कहना है?” मैंने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और उसे बता दिया कि सतीश उसके लिए क्या भावना रखता है और वह इसका जवाब चाहता है।‘

उमा जी ने सोचा – चलो, अच्छा हुआ सतीश के मन की बात सरिता तक आखिर पहुंच ही गई। वो तो पहुंचनी ही थी। लेकिन, सतीश ने उस तक अपनी बात पहुंचाने में काफी देर नहीं कर दी? अब सरिता चाह कर भी कुछ नहीं कर पाएगी। हां, सतीश और सरिता दोनों अपने-अपने परिवारों को सबकुछ बता कर उनका आशीर्वाद ले सकते हैं। कहानी यहीं समाप्त हो जानी चाहिए। होगा भी और क्या, ऐसी कहानियों का अंत अकसर ऐसा ही तो होता है। उमा जी ने एक बार फिर पेज का कोना मोड़कर किताब तिपाई पर रख दी और तकिए पर सिर रखकर लेट गईं।

पता नहीं कब उन्हें नींद आ गई। उन्हें सपने बहुत कम आते, पर इस बार सोते ही उनका सपना शुरू हो गया। सरिता और सतीश दोनों की सगाई हो रही है। वे खुद उस समारोह में शामिल हैं और उन दोनों को आशीर्वाद दे रही हैं। पर, अचानक ही ऐसा कुछ हुआ कि सरिता सतीश का हाथ झटक कर भागती चली गई। एक कुहराम सा मच गया। उमा जी घबरा कर उठ बैठीँ। जागने पर उन्हें खुद पर ही हंसी आ गई। वे तो सपना भी उसी कहानी का देख रही थीं।

उठकर उन्होंने बाथरूम में जाकर ठंडे पानी से खूब मुंह धोया। घड़ी देखी, अभी तो शाम के पांच भी नहीं बजे थे। दरवाजे से झांक कर देखा तो पतिदेव उतनी ही तल्लीनता से अपने काम में व्यस्त थे। उन्हें लगा जो कहानी उनके सपने तक पहुंच गई है, उसे अब पूरा पढ़ ही लेना चाहिए। तिपाई पर रखी किताब का कोना मुड़ा पेज वैसे ही खुला रखा था। उन्होंने उसे उठाया और इस बार कुर्सी पर बैठकर पढ़ने लगीं –

‘वह विस्मय से मेरी ओर देखने लगी। कुछ क्षण चुप रहने के बाद बोली – “बस यही कहना था आपको? ठीक है, आप सतीश जी को बताइये कि मैंने उन्हें हमेशा अपना बड़ा भाई माना है और हमेशा मानती रहूंगी। ओ.के. अब जा सकते हैं आप।“ यह कह कर वह तेज-तेज कदम उठाते हुए चली गई।

मुझे लगा था कि सतीश इसे सह नहीं पाएगा और पता नहीं क्या-क्या कहेगा और क्या कर बैठेगा। पर, उसने अनपेक्षित शांति के साथ सबकुछ सुना और फिर बोला – “ठीक है, कम से कम बात तो साफ हो गई।“

उमा जी की सोच से कहानी कुछ अलग चलने लगी थी। सरिता ने तो सतीश को अपना बड़ा भाई मान लिया और यह सुनकर सतीश ने कोई कड़ी प्रतिक्रिया भी नहीं व्यक्त की, वह ना तो रोया-चिल्लाया और न ही उसने खुद को या सरिता को कोसा था। इसका मतलब यह हुआ कि वह सरिता को दिल से नहीं चाहता था, बस उसके साथ खेल खेलने में लगा था। उमा जी को सरिता के लिए बुरा लगा था और जिस सतीश से उन्हें अब तक सहानुभूति हो रही थी, उससे उन्हें वितृष्णा होने लगी। कहानी को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें कथानक नजर नहीं आ रहा था। शायद कहानी समाप्त हो गई थी। पर, अभी भी कहानी के कई पृष्ठ बाकी थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि कहानी में अब बचा ही क्या है। उनकी उत्सुकता ने अपने पर तोले और वह शेष पृष्ठों की पंक्तियों पर फड़फड़ाने लगीं।

‘रात को नींद नहीं भरी इसलिए अपने कमरे में जाते ही मैं सो गया। कुछ देर बाद दरवाजे पर खटखट हुई तो मैंने सोचा सतीश होगा और उठ कर दरवाजा खोल दिया। पर, मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि वहां सतीश की भाभी खड़ी थीं। वे पहले कभी मेरे कमरे में नहीं आई थीं। मैंने उन्हें अंदर आने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया और कहा – “भैया आज शाम को छह बजे जरा छत पर आ जाना।“ मेरे चेहरे पर हैरानी देख कर उन्होंने कहा – “घबराने की कोई बात नहीं है, बस समय पर आ जाना और अकेले ही आना। सतीश भैया या और किसी को साथ लेकर मत चले आना।“ मैं कुछ बोल पाता उससे पहले ही वे चुप रहने का इशारा करती हुई तेजी से चली गईं।

जैसे-जैसे छह बजने का समय नजदीक आ रहा था, मेरे दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थी। पता नहीं, भाभी ने मुझे इस तरह क्यों बुलाया है। हालांकि उन्होंने कहा था कि घबराने वाली कोई बात नहीं थी, पर मेरी घबराहट थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी।‘

अब ये क्या हो रहा था इस कहानी में, उमा जी तो यह सब सोच ही नहीं पाई थीं। यह कहानी तो अजीब मोड़ लेती जा रही थी। उस किरदार ‘मैं’ के साथ-साथ उमा जी को घबराहट होने लगी। पता नहीं सतीश की भाभी ने किशोर को शाम छह बजे छत पर क्यों बुलाया था। इस रहस्य को जानने के लिए कहानी को आगे पढ़ने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था, सो उमा जी कहानी के पृष्ठों पर नजरें दौड़ाने लगीं।

‘छह बजते ही मैं सतीश और बाकी सभी की नजर बचा कर छत पर जाने वाली सीढ़ियों की ओर बढ़ा। मेरी सांसें तेज हो गई थीं और दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। सीढ़यां चढ़ता हुआ ऊपर पहुंचा तो देखा अंतिम सीढ़ी पर भाभी खड़ी हुई थीं। जैसे ही मैं उनके पास पहुंचा उन्होंने छत पर जाने वाले दरवाजे से अंदर जाने का इशारा किया। मेरे जाते ही उन्होंने बाहर से दरवाजा बंद कर लिया।

सर्दियों के दिन थे, छह बजे ही छत पर शाम गहरा गई थी। मैंने देखा दीवार का सहारा लिए कोई खड़ा है। कौन है यह? इससे पहले कि मैं कोई सवाल करता, सरिता की आवाज सुन कर चौंक पड़ा। हां, वह सरिता ही थी। मैं सकपका गया – “तुम यहां क्या कर रही हो? मुझे भाभी ने बुलाया था, वो कहां गईं?”

वह तब तक मेरे पास आ चुकी थी। उसने जवाब दिया – “मैंने ही भाभी से तुम्हें यहां बुलाने के लिए कहा था। सुनो, मेरे पास समय बहुत कम है। पता नहीं कब कोई यहां आ जाए। इसलिए मुझे जो कहना है, वह कहने दो।“ हमेशा कम बोलने वाली सरिता कह रही थी कि उसे बोलने दिया जाए। मैं चुप रह कर उसे सुनने लगा।

“तुम्हें बहुत आश्चर्य हो रहा होगा न कि मैंने तुम्हें इस तरह बुलाया है। पर इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं था मेरे पास। तुम आज जब सुबह स्कूल जाते समय मेरे पीछे आ रहे थे तो मुझे लगा था शायद तुम वह कहोगे जो मैं कब से सुनना चाहती थी। पर, तुम तो सतीश भैया की वकालत करने आए थे। तुम्हें पता है कल मैं यहां से हमेशा के लिए चली जाऊंगी। हो सकता है हम फिर कभी भी ना मिल पाएं। इसलिए मैंने यह सब कहने की हिम्मत की है। तुमने सिर्फ मेरी खामोशी देखी, उस खामोशी के पीछे कभी झांकने की कोशिश नहीं की। मेरी नजरें पता नहीं क्यों हमेशा तुम्हें ढूंढ़ने लगी थीं। अचानक यहां से जाने की बात ने मुझे इतनी हिम्मत दी है कि मैं तुमसे यह सब कह पा रही हूं, और हां, तुम्हारी कुछ चीजें तुम्हें लौटाना चाहती थी।“ यह कह कर उसने एक छोटा सा प्लास्टिक का डिब्बा मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने पूछा “क्या है इस डिब्बे में?” तो उसने कहा “तुम्हीं देख लेना। तुम्हारी ही चीजें हैं इसमें। मैं इसलिए लौटा रही हूं कि जब यहां से जाऊं तो सबकुछ यहीं रह जाए। मैं चाहती हूं तुम्हारी याद भी मेरे साथ न जाए।“ यह कहते-कहते वह रोने लगी। उसने मेरे कंधे पर अपना सिर रख दिया था और मैं उस सिर पर अपना हाथ रख कर सिर्फ इतना ही कह पाया – “अब कह रही हो यह सबकुछ, जब फिर न आने के लिए जा रही हो।“ उसने मुझे कस कर पकड़ लिया था और उसकी हिचकियां बंध गईं।

इतने में ही भाभी ने धीरे से दरवाजा खटखटा कर कुछ संकेत किया। वह तुरंत ही मुझसे अलग हो गई। उसने झुक कर मेरे पैर छुए और फिर खुले दरवाजे से भागते हुए सीढ़ियां उतर गई। मैं वह डिब्बा हाथ में लिए अवाक खड़ा था। जो कुछ भी घटा था, वह अकल्पनीय था और सपने जैसा लग रहा था।

वाकई यह सब तो अकल्पनीय ही था। उमा जी इस घटनाक्रम के लिए तैयार नहीं थी। कहानी का इस मोड़ पर पहुंच जाना उन्हें हतप्रभ कर गया। वह किशोर सही ही तो कह रहा था कि सरिता ने यह सबकुछ उसे तब बताया था जब वह फिर न आने के लिए जा रही थी। उमा जी को किशोर और सरिता दोनों से सहानुभूति होने लगी । पर, वे कर ही क्या कर सकती थीं। लेकिन, सरिता ने उसे उस प्लास्टिक के डिब्बे में रख कर क्या दिया होगा, इस उत्सुकता ने उन्हें कहानी आगे पढ़ने के लिए बाध्य कर दिया।

‘अपने कमरे में आने के बाद मैंने भीतर से कुंडी लगा ली और धड़कते दिल और कांपते हाथों से वह डिब्बा खोल डाला। उस डिब्बे की चीजें देखकर मेरा मन कैसा-कैसा तो होने लगा। उसमें मेरा एक जेब कंघा और रूमाल था, जिन्हें मैं कब से ढूंढ़ रहा था। शायद भूलवश कभी आंटी के घर छोड़ आया था। कुछ छोटे-छोटे कागजों के टुकड़े थे, जिन पर मेरी राइटिंग में कुछ लिखा था। सरिता को पढ़ाते समय उसे समझाने के लिए मैंने कभी किसी कागज पर या उसकी कॉपी में जो कुछ कहीं लिख दिया था, उसे कैंची से बहुत सफाई से काट कर उसने अपने पास रख लिया था। न जाने कब से वह इस सबको खजाने की तरह संभाल कर अपने पास रखे हुए थी। मेरा मन भर आया और डिब्बे को मैंने चूम लिया।‘

अनजाने में उमा जी के मुंह से आह निकल गई । कितनी भोली और प्रेम में पागल थी सरिता। उसने जिस तरह किशोर की वे छोटी-छोटी चीजें संभाल कर रखी हुई थीं, वे किसी के भी दिल को छू सकती थीं। सरिता का निश्च्छल प्रेम शांत बहती नदी की तरह था जिसके भीतर बहते जल का प्रवाह नजर नहीं आता, पर जिसकी तरंगें भीतर ही भीतर उद्वेलित करती रहती हैं। प्रेम का इतना पवित्र रूप उमा जी को भावविह्वल कर गया था। कहानी का अंत हो रहा था, पता नहीं अब वे दोनों क्या करेंगे। उमा जी की नजरें कहानी के उस अंतिम पृष्ठ को चूमने लगीं।

‘मैं बिना खाए-पिए ही लेट गया। पूरी रात नींद नहीं आई। सुबह होते-होते कुछ झपकी सी आई ही थी कि ट्रक की कर्कश आवाज से नींद खुल गई। बाहर निकल कर देखा तो पाया कि सूरज काफी चढ़ आया था और आंटी का सामान ले जाने के लिए ट्रक आ चुका था। मैं जल्दी-जल्दी तैयार हुआ। तब तक सतीश भी आ गया। हम आंटी के घर पहुंचे। सारा सामान बंधा रखा था। सरिता और सुनील जमीन पर अखबार बिछाए कमरे में बैठे थे। सरिता अपने स्वभाव के अनुसार नजरें झुकाए बैठी थी। मैं सोच रहा था काश मैं एक बार उसकी आंखों में देख लूं या उससे बात ही कर लूं। पर, यह संभव नहीं लग रहा था। “

उस दिन आंटी के परिवार के लिए लंच सतीश के घर पर ही बना। खाते-खाते दोपहर के तीन-साढ़े तीन बज गए। सरिता सतीश की मां और भाभी के पास ही बैठी रही थी। मैं चाह कर भी उससे बात नहीं कर पाया और न ही उसने मुझसे संपर्क करने की कोई कोशिश की। कुछ ही समय बाद उनके स्टेशन जाने का समय हो गया। अंकल तांगा ले आए थे।

तांगा चला तो मैं और सतीश साइकिल पर उसके पीछे-पीछे चल दिए। वह गाड़ी इसी स्टेशन से बन कर रवाना होती थी। स्टेशन पहुंच कर हमने उनका सामान गाड़ी में रखवा दिया। उनकी सीटें पहले से रिज़र्व थीं, इसलिए कोई कठिनाई नहीं हुई। जब तक गाड़ी रवाना नहीं हुई, हम वहीं खड़े रहे। आंटी और अंकल ने हमें ढ़ेरों आशीर्वाद दिए। जब गाड़ी चलने लगी तो सरिता ने मेरी ओर देखा। न जाने क्या था उन आंखों में कि मैं अंदर तक हिल गया। हम हाथ हिलाते रहे और गाड़ी फ्लेटफार्म छोड़ कर आगे निकल गई।

घर पहुंचने के बाद बहुत अजीब सा लग रहा था। सतीश किसी काम से बाजार चला गया था। पता नहीं मुझे क्या हुआ मैं आंटी के घर जा पहुंचा। खाली मकान में सन्नाटा पसरा था। घर बहुत सूना-सूना लग रहा था। जिस अखबार पर सरिता बैठी थी, वह अब भी वैसा ही बिछा हुआ था। मैं उसी अखबार पर जाकर बैठ गया और बड़ी देर तक बेआवाज रोता रहा।‘

कहानी खत्म हो गई। उमा जी उस कहानी में इतना डूब गई थीं कि बहुत देर तक उसे हाथ में लेकर वैसे ही बैठी रहीं। उन्होंने महसूस किया कि उनकी आंखों की कोर से कुछ बूंदें ढुलककर उनके गालों तक चली आई थीं। उन्होंने पास पड़े रूमाल से अपनी आंखें पौंछी और इस बार बिना किसी पृष्ठ का कोना मोड़े किताब को बंद करके रख दिया। अब वह खुद को कुछ देर शांत पड़े रहने देना चाहती थीं।