Ram Rachi Rakha - 1 - 10 in Hindi Moral Stories by Pratap Narayan Singh books and stories PDF | राम रचि राखा - 1 - 10

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राम रचि राखा - 1 - 10

राम रचि राखा

अपराजिता

(10)

मैं अनुराग को लेकर अब थोड़ी सतर्क हो गई थी। चाहती थी कि ऐसी स्थितयाँ न उत्पन्न हों जिससे हम दोनों को किसी तरह का भी मानसिक कष्ट हो। सामान्य स्थितियों में वह बहुत सदय होता था। मेरा बहुत ख़याल रखता था। बहुत प्यार करता था।

किन्तु नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था।

उस दिन हम एक मूवी देखने गये थे। टिकेट के लिए लम्बी कतार थी। हमारे पास पहले से ही टिकेट था। अभी मूवी शरू होने में थोड़ा समय बाकी था। टिकेट खिड़की से थोड़ी दूर हटकर एक चबूतरा सा था। हम उसपर बैठ कर बातें कर रहे थे। तभी देखा कि एक सुन्दर युवती के आग्रह पर एक युवक ने उसे टिकेट लाकर दिया। वह बहुत ही विनम्रता से व्यवहार कर रहा था।

अनौराग अचनाक बोल पड़ा, “ब्यूटी डिज़र्व इट।" उसके होठों पर एक अर्थपूर्ण मुस्कान थी।

"क्या कहना चाहते हो ?"

"कुछ नहीं, बस यही कि सुन्दर लड़की को देखते ही लड़कों के मन में कितनी उदारता और विनम्रता आ जाती है।" हँसते हुए बोला।

"इसमे गलत क्या है?"

"गलत कुछ नहीं हैं, बशर्ते इस उदारता और विनम्रता में रुप-लोलुपता न शामिल हो।"

"अब ये क्या बात हुई। कोई किसी की मदद कर रहा है उसमें भी तुम्हें बुराई दिख रही है। एक अनजान लड़की से कोई किस प्राप्ति की अपेक्षा रख सकता है। क्या वह उसकी सहज विनम्रता नहीं हो सकती।"

“बिल्कुल हो सकती है। किन्तु अधिकतर मामले में विनम्रता, लालसा से प्रेरित होती है।" फिर कुछ रुक कर कहा, "अच्छा ये बताओ तुम्हारे अधिकतर मित्र पुरुष ही क्यों हैं?" मैं इस प्रश्न के लिए बिल्कुल भी तैयार न थी और न ही कभी इस बारे में सोचा था।

'क्या मतलब है तुम्हारा?" जो बात चल रही थी उसकी दिशा इस तरह से मेरी तरफ मोड़ देने से मन में थोड़ा रोष उत्पन्न हो गया था।

"मैंने एक सीधा सा प्रश्न पूछा है कि तुम्हारे अधिकतर मित्र पुरुष ही क्यों हैं।"

"क्योंकि मैं जहाँ काम करती हूँ वहाँ अधिकतर पुरुष ही हैं। पुरुषों के ही संपर्क में ज्यादा आती हूँ। दूसरे, मैं पुरुष मित्रों के साथ अधिक कम्फर्टेबल महसूस करती हूँ। मेरे जो भी मित्र हैं वे मेरे कार्य क्षेत्र के हैं या फिर मेरे लास्ट एडुकेशन के समय के हैं। लेकिन इसका सम्बन्ध मेरे मित्रों से कैसे है?"

"दूसरी बात अधिक महत्त्वपूर्ण है कि तुम पुरुष मित्रों के साथ अधिक कम्फर्टेबल महसूस करती हो...क्यों?...क्या इसलिए नहीं कि वे तुम्हारे प्रति अधिक सदय रहते हैं। तुम्हारी इच्छा के अनुरूप काम करते हैं।"

उसकी बात ने मुझे बुरी तरह से आहत कर दिया। मैं बिफर उठी "क्या कहना चाहते हो, कि मेरे मित्र रूप-लोलुपता के कारण मेरे प्रति सदय रहते हैं? क्या मेरा व्यक्तित्व इसके लिए कोई कारण नहीं है?...और जो लडकियाँ मेरी मित्र हैं वे किस कारण से हैं? उनका क्या स्वार्थ ह?। तुम्हारे अपने मित्रों का क्या स्वार्थ है, तुमसे जो तुमसे जुड़े हैं?" मैं लगातार बोले जा रही थी, "क्या तुम कभी भी पोजिटिव नहीं सोच सकते। हर बात में इतनी नकारात्मकता क्यों?”

"देखो मैंने अपना विचार रखा है। इसमे इतना गुस्सा होने कि कोई बात नहीं है।"

"तुम मेरे व्यक्तित्व पर सवालिया निशान लगा रहे हो और कह रहे हो कि गुस्सा होने कि कोई बात नहीं हैं। अपना विचार रखने का क्या मतलब है कि तुम किसी को भी आहत करने के लिए स्वतंत्र हो।"

हम मूवी देखे बिना ही लौट आए। उसके शब्द बार-बार मेरे अंतह को पीड़ित कर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि उनकी नज़र में मैं एक सुन्दर युवती से अधिक कुछ नहीं थी। कई प्रश्न उठ रहे थे। क्या उसका मेरी तरफ आकर्षित होना, मुझसे प्रेम करना, मात्र दैहिक लालसा से प्रेरित है? क्या मेरी बौद्धिकता, मेरा व्यक्तित्व कुछ भी नहीं है उनके लिए?

इस बार मन बहुत ज्यादा दुखी था। किसी से कुछ भी बात करने का मन नहीं कर था। एक उदासीनता ने घेर लिया था। हम पूर्ववत ही मिलते और बात करते लेकिन हमारे बीच एक रिक्तता सी बनी रहती।

अनुराग का जन्म दिन भी आने वाला था। मैं चाहती थी कि उससे पहले सब कुछ सामान्य और पूर्ववत हो जाए।

*****

शनिवार का दिन था। अनुराग ने फोन किया कि शाम को कहीं घूमने चलते हैं। मैंने कहा, “आज कहीं नही जा पाऊँगी, मुझे डाक्टर के पास जाना है।“ वास्तव में मुझे रुटीन चेकअप के लिये जाना था।

वह बोला, “क्या हुआ, तबियत नही ठीक है? मैं आ जाऊँ?”

"तबियत ठीक है, बस पेट मे कुछ प्राब्लम है। सीरिअस नहीं है। मैं दिखा लूँगी, तुम चिन्ता न करो। वैसे भी घर का काफी काम पड़ा है। आज रहने दो प्लीज। कल चलेंगे।"

"ठीक है फिर तुम आराम करो। डाक्टर के यहाँ से लौटकर मुझे फोन करना"

डाक्टर के यहाँ से लौटी तो घर पर अंकित और विनोद आये थे। अंकित कहीं से सरोद वादक अमज़द अली के लाइव कन्सर्ट का चार-पाँच पास ले आया था। दोनों चलने के लिए जिद करने लगे। मैने अनुराग को फोन किया तो वह घर पर नहीं था। मैं चाहती थी कि वह भी साथ चलता। पूर्वी को एक प्रोजेक्ट पूरा करना था इसलिए वह नहीं जा सकी। हम लोग चले गये।

कन्सर्ट से लौटते-लौटते साढ़े ग्यारह बज गए थे। अंकित और विनोद मेरे साथ मुझे छोड़ने आये थे। अभी हम अंकित की कार से उतरे ही थे कि पास में खड़ी कार का दरवाजा खुला। देखा अनुराग निकल कर बाहर आया। उसे देखकर मैं अवाक रह गयी।

"अनुराग, तुम इस समय यहाँ?" मैने विस्मय से पूछा। अंकित और विनोद भी अचम्भित थे।

"हाँ, मैं यहाँ...क्यों आश्चर्य हो रहा है मुझे देखकर...?" उसके प्रश्न में व्यंग का पुट था। शराब पी रखी थी। मुँह से गन्ध आ रही थी। मैंने इस स्थिति की कभी कल्पना नहीं की थी। कभी नहीं सोचा था कि जिसे मैं प्यार करती हूँ वह इस तरह आधी रात को शराब के नशे में मेरे फ्लैट के बाहर बैठकर मेरा इन्तजार करेगा। मेरे दोस्तों और जानने वालों के सामने इस तरह से ड्रामा करेगा।

मैंने गुस्से से कहा - "आश्चर्य भी हो रहा है और तुम्हारी हालत पर दुख भी।"

"मुझे भी दुख हुआ जब तुमने मुझसे झूठ बोला...बहुत दुख हुआ।" वह मेरे काफ़ी पास आ गया था। उसकी जबान भी थोड़ी लड़खड़ा रही थी।

"अनुराग प्लीज, यहाँ सड़क पर कोई सीन मत क्रिएट करो। चलो ऊपर चलकर बात करते हैं।" मैंने कहा।

"आइए, ऊपर चलकर बातें करते हैं।" अंकित ने उसे सहारा देने के लिए उसकी बाहों को पकड़ते हुये कहा।

"डोन्ट टच मी, प्लीज’ अनुराग ने उसका हाथ झटक दिया, "मुझे ऊपर नहीं जाना है।" फिर मुझसे बोला, "शर्म आ रही है न तुम्हें मेरी इस हालत पर...तुम्हें तो मेरी हर बात पर शर्म आने लगी है...मेरे हर व्यवहार पर शर्म आने लगी है...मेरी हर सोच पर शर्म आने लगी है...मैं तो तुम्हें देखने आया था। तुम्हारी तबियत खराब थी न...।" अनुराग बोले जा रहा था। मैं चुपचाप खड़ी थी। लग रहा था जैसे मेरी चेतना लुप्त हो गयी हो। मैं जड़ हो गयी थी। समझ मे नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। जब अनुराग की कार वहाँ से गयी तब भी मैं खड़ी होकर शून्य मे देख रही थी।

विनोद और अंकित मुझे ऊपर तक ले आये।

"तुम ठीक तो हो न?" विनोद ने पूछा।

"हाँ, मैं ठीक हूँ। तुम लोग अब जाओ, काफ़ी देर हो चुकी है।" मैंने अपने आँसुओं को रोकते हुये कहा। वे दोनों चले गये।

पूर्वी ने बताया कि अनुराग शाम को आया था। ममेरे बारे में पूछा और चला गया। उसे यह पता नहीं था कि यहाँ से निकलकर अनुराग घर नहीं गया बल्कि शराब पीकर नीचे मेरे आने का इन्तजार कर रहा था।

मैं कमरे में आकर बिस्तर पर औंधे मुँह लेट गयी। मेरी आँखों से आँसुओं की धार बह निकली। पूर्वी हैरान थी।

अगले दिन अनुराग ने फोन किया। पूर्वी से बात हुयी। मैं फोन पर नहीं आयी। पूरे दिन मैं बिस्तर पर ही पड़ी रही। कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था। शाम को वह घर आ गया। मुझसे बात करना चाह रहा था। मैं बिल्कुल खामोश थी। सिर्फ़ मेरी आँखों के कोरों से आँसू के कुछ कतरे ढुलक गए।

लगभग एक सप्ताह बीत गया, हमारे बीच कोई बात नहीं हुई। इस बीच अनुराग का एक मेल आया था जिसमें उन्होने उस रात की घटना के लिए माफ़ी माँगी थी। मैने कोई उत्तर नहीं दिया। उसके बाद भी उसने कुछ मेल किए और फोन भी। बात करने का मेरा मन ही नहीं हो रहा था। हमारे बीच पूरी तरह से संवादहीनता हो गई।

अगले दिन अनुराग का जन्मदिन था। मैं स्वयं को समझा रही थी कि जो भी हुआ उसे भूल जाना चाहिए। साथ में बिताये गए पहले के सुखद पलों को याद करके आँखें नम हो गयीं।

दोपहर को जब अपना मेल बाक्स खोला तो अनुराग का मेल था-

वाणी,

हमारे प्रेम की यह परणति होगी ऐसा कभी भी नहीं सोचा था। तुम्हें, मुझसे दुख और अपमान के सिवाय और कुछ भी न हासिल हो सका। शायद मैं तुम्हारा अभीष्ट नहीं हूँ। हमारे बीच भावनात्मक स्तर पर तो कुछ हद तक सामन्जस्य बन भी जाता है, किन्तु वैचारिक स्तर पर हम बिल्कुल भिन्न हैं। यही कारण है कि हम प्राय: एक दूसरे से सहमत नहीं हो पाते हैं और हमारे बीच का टकराव हमारे दुखों का कारण बनता है।

मैने बहुत कोशिश की स्वयं को तुम्हारे अनुरूप ढालने की, किन्तु सफल न हो सका। मुझसे हमेशा कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है जो तुम्हें कष्ट देता है। मैं जानता हूँ तुम मेरे बार-बार के आघातों से उकता चुकी हो। इससे पहले कि मैं तुम्हारे लिए और दु:खों का कारण बनूँ, हमारा अलग हो जाना ही श्रेयष्कर होगा।

कंपनी के द्वारा बाम्बे ओफिस ज्वाइन करने का प्रस्ताव, जिसे मैं बहुत दिनों से टाल रहा था, स्वीकार कर लिया है। अगले दो-तीन दिनों मे मैं वहाँ चला जाऊँगा। यह सच है कि मैने तुमसे बहुत प्यार किया है और उस प्यार को भूल पाना सम्भव नहीं है। उन सुखद पलों की याद सदैव मेरे मानस मे विद्यमान रहेगी।

अनुराग

मुझे लगा कि मेरी नसों का सारा खून निचुड़ गया है। वेदना की एक लहर शिख से नख तक दौड़ गयी। किन्तु, शीघ्र ही वह वेदना क्रोध में परिवर्तित हो गयी। अनुराग ने सच ही लिखा है कि वैचारिक रूप से हम बिल्कुल भिन्न हैं। उसके इस अविवेकपूर्ण फैसले ने मेरे दबे हुए क्रोध को भड़का दिया। जाना चाहता है तो चला जाए, मैं नहीं रोकूँगी।

अनुराग चला गया। मैंने उसे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। उसके साथ ही मेरे अन्दर से बहुत कुछ चला गया था। पीड़ा के आधिक्य ने मुझे जड़ सा कर दिया। सब कुछ ऐसा लग रहा था जैसे कोई भयानक स्वप्न चल रहा हो। मैं अपने आस-पास की गतिविधियों और अपनी अनुभूतियों से भी तटस्थ सी हो गयी।

अगले आठ-दस महीने मेरे लिये बहुत कठिन थे। मन के अंतर्द्वंद के अतिरिक्त सामाजिक रण को भी पार करना था। उन कठिन दिनों ने मुझे और अधिक सख्त बना दिया।

जब पहली बार ध्रुव को अपनी गोद में लिया तो लम्बें समय के बाद मन ने कुछ महसूस किया। धीरे-धीरे मैं ध्रुव में खुद को जीने लगी।

मैंने स्वयं को ध्रुव और नौकरी तक समेट लिया। कहीं भी आना-जाना बन्द कर दिया। बिना शादी के माँ बनना, खून के रिश्तों को भी लगभग खत्म कर चुका था। सामाजिक रिश्ते तो सबसे पहले खंडित हुए थे। पूर्वी और मेरे दोस्तों ने मेरा बहुत साथ दिया। ध्रुव के पैदा होने के लगभग एक साल बाद पूर्वी की शादी हो गयी और वो चली गयी।

क्रमश..