एक अप्रेषित-पत्र
महेन्द्र भीष्म
एक रुपया
‘‘राम नाम सत्य है।''
‘‘राम नाम सत्य है।'' सेठ राम किशोरजी की शवयात्रा में सम्मिलित दूसरोें के साथ मैंने भी दुहराया।
स्वर्गीय सेठ रामकिशोरजी ग्यारहवीं कक्षा के मेरे सहपाठी अनूप के पिता थे। वह न तो वृद्ध थे और न ही वयोवृद्ध, बल्कि पचासेक बरस की उम्र के रहे होंगे। वह बीमारियों से दूर इकहरे शरीर के मालिक थे। मेरे अलावा उनकी मृत्यु को सभी काल की नियति मान रहे हैं। सच, वह बच सकते थे, सोलह आने।
अनूप के अग्रज घुटे सिर, सफेद धोती बांधे, बाँए हाथ में आग की हाण्डी लिए अर्थी के आगे—आगे सिर झुकाये चल रहे थे।
अनूप अर्थी को कंधा दिये गमगीन था। मैंने उसे हटाकर अपना कंधा देना चाहा ही था कि पीछे से कोई बुुजुर्ग बोल पड़े ‘‘रुको........ क्या करते हो........? अर्थी को कंधा चप्पल पहने नहीं देते हैं।''
मैं असमंजस की स्थिति में कुछ देर अपने स्थान पर स्थिर हो गया, फलस्वरूप अन्य लोग मुझसे आगे आ गये। मैं विचारों में खोया शवयात्रा के पीछे—पीछे चलने लगा।
हमारे कस्बे की ख्याति प्राप्त परचून की दुकान के मालिक थे सेठ राम किशोर जी। कहने के लिए उनकी दुकान परचून की थी, जबकि रोजमर्रे के अलावा जड़ी—बूटियों से लेकर सिरदर्द, पेटदर्द की दवाएँ भी उनके यहाँ से मिल जाती थीं। कहने का तात्पर्य, जो सामान पूरे बाजार में न मिले वह सेठ रामकिशोरजी की दुकान में अवश्य मिल जाता था।
मुझे याद है, जब मैं प्राइमरी कक्षा का विद्यार्थी था, तब कस्बे के रूप में विकसित हो रहे हमारे गाँव में शासन द्वारा तहसील मुख्यालय खोला गया। स्वाभाविक है, तहसील के अधिकारी—कर्मचारियों का रहन—सहन शहरी माहौल लिये हुए था, जिनके उपयोग की विभिन्न सामग्रियाँ सेठजी की दुकान में सर्वप्रथम उपलब्ध होनी शुरू हुई।
डबलरोटी का सर्वप्रथम स्वाद मैंने सेठजी की दुकान से क्रय की गयीं डबल रोटियों से जाना था।
डबल रोटी का स्वाद मेरे जैसे देहाती लड़कों को तब खूब सुहाता था। जब तब मैं भी माँ से पैसे माँग सेठजी की दुकान से डबल रोटी का पैकिट खरीद लाता और भाई—बहनों से छिपाकर दूध में चीनी मिला उसमें डबल रोटी बोर कर खूब स्वाद ले लेकर खाया करता था।
अनूप से मेरी दोस्ती बचपन से रही है। अतः उसका मेरे घर आना या मेरा उसके घर जाना लगा रहता था। सेठजी मेरी पंसद जान अक्सर शहर से डबल रोटी आने पर एक पैकिट घर दे जाते थे। पैसे का लेन देन बाद में पिताजी से होता रहता था। इस तरह हमारे गाँव में डबल रोटी की तरह अनेक चीजों का प्रचलन सर्वप्रथम सेठ रामकिशोरजी के द्वारा ही कराया गया।
मेरे घर के सामने पीपल के वृक्ष के नीचे भगवान शंकर का छोटा—सा मंदिर कुएँ की जगत के बराबर बना हुआ है! सीताराम भई सीताराम....... राधेश्याम भई राधेश्याम, भजन का उच्चारण सूर्योदय से बहुत पहले करते हुए सेठ जी मंदिर में आ जाते। मंदिर की सफाई करने के बाद कुएँ के जल से स्नान करते, फिर शिवलिंग पर जल चढ़ाते। ये सेठ जी का नित्य प्रति का नियम था......... जाड़ा हो या गर्मी—बरसात। बारहों महीनें उनकी यह दिनचर्या बिना नागा चलती रहती थी। ऐसे नियम—संयम वाले ईश्वर भक्त सेठ रामकिशोरजी मध्यायु को प्राप्त हुए थे।
ऐसा क्यों हुआ?....... कह सकते हैं..... मृत्यु पर भला किसी का कभी वश रहा है क्या?.... अरे.... अच्छे—अच्छे सेहतमंद पहलवान भी पलक झपकते चले जाते हैं। पर कोई माने चाहे न माने मेरी दृष्टि से तो सेठ रामकिशोरजी की मृत्यु का कारण बना मात्र ‘एक रुपया।' वह कैसे?...... क्या सेठ जी कंजूस थे?...... कदापि नहीं...... हाँ मितव्ययी जरूर थे..... फिर....?.....
एक अवकाश के दिन, जब बाजार बंद रहता था, सेठजी किसी कार्य से अपनी दुकान आये। दुकान में ही कहीं किसी कोने में मूँगफली से भरा एक जूट का बोरा रखा हुआ था। सेठजी उसे कहीं और रखना चाहते थे, उन्होंने बोरा खिसकाने की भरसक कोशिश की, जिसमें वह सफल नहीं हुए, तो दुकान से बाहर आ गये। कुछ देर में ही उन्हें एक पल्लेदार दिखाई दे गया। सेठजी ने उसे पुकार कर अपने पास बुलाया और उससे बोरा दूसरी जगह रख देने के लिए कहा। पल्लेदार ने इस कार्य के बदले सेठजी से पहले एक रुपया माँगा।
सेठजी बोखला उठे, ‘‘इतने जरा से काम के लिए एक रुपया? क्या
अंधेरगर्दी मचा रखी है, तुम लोगों ने......... हे भगवान! कैसा जमाना आ गया है?....लूट मची है क्या?.... चल भाग यहाँ से।''
सेठजी ने मोल—भाव किये बिना उस पल्लेदार को अपनी दुकान से लगभग दुत्कारते हुए भगा दिया और ताव में आकर स्वयं मूँगफली से भरे उस बोरे को दूसरे कोने तक घसीटकर ले गए। वह बोरे को जैसे ही दीवार से टिकाने लगे, तभी उन्हें अपनी कमर में कुछ चटखने जैसा महसूस हुआ।
सेठजी तमाम कोशिशों के बावजूद सीधे खड़े न हो सके। गुस्साये और भुनभुनाए वह पहले से थे ही, उस पल्लेदार की सात पुश्तों तक की खबर लेने लगे, ‘‘उस ससुरे के कारण चिक चली गयी।''
खैर! सेठजी बोरे को वैसे ही छोड़ जैसे—तैसे दुकान में ताला लगा अपनी कमर सँभालते घर आ गये। ‘‘कौन पहली बार चिक गयी है..... अपने आप नहीं तो थोड़ी बहुत मालिश या बैठाने के बाद ठीक हो ही जायेगी।'' पत्नी के बार—बार कहने पर सेठ जी बड़बड़ाये और खा—पीकर थोड़ा परेशानी के साथ सो गये।
अगले दिन भोर, सोने के बाद तक, सेठ जी कल बीती सारी घटना भुला चुके थे। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि उनकी चिक चली गयी है। प्रतिदिन की तरह जैसे ही वह चारपाई से उठे चीख मारकर पुनः लेट गये। उनकी कमर में तेज दर्द की लहर उठी, वह कराह उठे। चीख व कराह सुन सर्वप्रथम उनकी धर्मपत्नी, फिर दोनों बेटे एक के बाद एक चारपाई के आजू—बाजू घबराये से खड़े हो गये।
‘‘क्या हुआ?''
‘‘उठा नहीं जा रहा......... कमर में बहुत दर्द है........ बड़े मुन्ना तुम मत्ती साहू को बुला लाओ........ चिक चली गयी है........ वह बैठा देगा.......''। सेठ जी ने दर्द को दाँतोें से भींचते हुए अपने बड़े बेटे से कहा।
चिक बैठाने से लेकर....... किसी भी तरह की नस सही करने में मत्ती साहू का सानी दूर—दूर तक के गाँवोें में नहीं था। सेठजी की दुकान की तरह उसका नाम भी अपने हुनर के कारण लोगों की जुबान पर रहता था।
मत्ती साहू सूचना पा तुरन्त आ पहुँचा। तमाम दाँव—पेंच, उठक—बैठक कराहते सेठजी पर वह आजमाता रहा। इस दौरान उसने दो—तीन लाते भी सेठ जी की पीठ पर जमायी। कहा जाता है कि जो अपनी माँ के पेट से उल्टा जन्म लेता है, वह अगर अपना पैर चिक चली जाने वाले की कमर पर लगाए, तो खराब से खराब चिक भी सही हो जाती है...... मत्ती साहू उल्टा ही पैदा हुआ था।
एक दिन बीता, दूसरा दिन भी बीता और जब पूरे सप्ताह के बीत जाने के बाद भी सेठजी को आराम नहीं मिला, तब घर के सभी सदस्य घबराये।
सेठजी जब तक बैठे या लेटे रहते तब तक तो ठीक रहते, परन्तु जैसे ही वह उठने या बैठने का उपक्रम करते उन्हंें ऐसा तीव्र दर्द होने लगता मानो उन्हंें गर्भवती स्त्री की भाँति प्रसव वेदना झेलनी पड़ रही हो। अब बैठे या लेटे ही सारे काम तो हो नहीं जाते। उठना—बैठना तो पड़ता ही है।
सारे कस्बे में, ‘सेठ रामकिशोरजी की चिक चली गयीं' की चर्चा होने लगी। आखिर एक माह जो बीत चुका था।
धीरे—धीरे सेठजी परवश होते चले गये। अन्ततः उन्हें शहर के बड़े अस्पताल की शरण में जाना पड़ा; जहाँ विलम्ब से पहुँचने के कारण डॉक्टर की फटकार सभी को झेलनी पड़ी।
सेठजी को कई चिकित्सकीय जाँचों से गुजरना पड़ा और जब एक्स—रे रिपोर्ट आयी तब सभी के होश उड़ गये। डॉक्टर ने सेठ जी व उनके परिवार के लोगों को झिड़का —डाँटा ‘‘इतने दिन क्या करते रहे, कूल्हें की टूटी हड्डी रीढ़ की हड्डी में जा फँसी है.......... ऑपरेशन करना होगा''।
पता नहीं ऐसा मूँगफली से भरा बोरा खिसकाने से हुआ था या फिर मत्ती साहू की लात से....... भगवान जाने। हाँ सेठजी का ऑपरेशन अवश्यम्भावी हो गया था।
उस पल्लेदार और मूँगफली के बोरे को घसीटने के मनहूस पल को कोसते हुए सेठजी बहुत मुश्किल से ऑपरेशन कराने के लिए राजी हुए।
पहला ऑपरेशन पूरी तरह सफल न हो पाया, फलस्वरूप तीन माह बाद सेठजी का पुनः ऑपरेशन हुआ।
सेठजी तीन माह में आधे से भी कम वजन के रह गये और आगे के छः माह बीतते—बीतते वे हडि्डयों का ढाँचा मात्र होकर रह गए थे।
बिस्तर पर ही सारी दैनिक क्रियाएँ होने लगीं थीं। लेटे रहने के कारण हडि्डयों के उभरे हिस्सों पर भी घाव हो चले थे। सबसे विकट स्थिति ऑपरेशन के स्थान पर थी, जहाँ से हमेशा रिसते दुर्गन्धयुुक्त मवाद ने उनके पास दूसरों का कुछ पल के लिए भी बैठना दूभर कर दिया था।
सेठजी से मिलने आने वाले, उनकी इस दशा पर मन ही मन ईश्वर से उन्हें अपने पास बुला लेने की विनती करते और प्रकट में, जल्दी ठीक हो जाने की झूठी दिलासा दे चलते बनते।
सेठ जी के बड़े बेटे ने दुकान संभाल ली थी, जिसके साथ मेरा सहपाठी अनूप भी लगा रहता था। फलस्वरूप उससे स्कूल में बहुत कम भेंट हो पाती थी।
क्रमशः सेठजी के हाल—चाल लेने जाने वालों की संख्या कम होती चली गयी। धीरे—धीरे लोग उन्हें भूलने से लगे थे। गाहे—बगाहे दुकान से सामान खरीदते समय जरूर नजदीकी—परिचित उनके बड़े बेटे से सेठजी के बारे में औपचारिक रूप से पूछ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते। कृषकाय सेठजी के घावों से भरे दुर्गन्धयुक्त शरीर को देख उनके ऊपर सभी को बहुत दया आती। अब सभी उनकी मृत्यु ईश्वर से चाहने लगे थे, ‘‘भगवान्....! अब तो इन्हें मौत दे दे....... अपने भगत को इतना न तड़पा........... बेचारे ने बिना नागा रोज शंकर जी ढारे हैं।''
फिर एक दिन सुबह—सवेरे सारे कस्बे में खबर फैल गयी, ‘‘ईश्वर को सेठजी के ऊपर दया आ गयी........''
स्वर्गीय सेठ रामकिशोरजी की अंतिम यात्रा का अंग बने, गर्दन पर तौलिया डाले, हाथ में तुलसी के सूखे झाड़ को पकड़े....... ‘‘राम नाम सत्य है'' औपचारिक से पड़ते उद्घोष का श्रवण करते हुए मेरे मन मस्तिष्क में रह—रह कर एक ही बात कौंघ रही है...... ''काश सेठजी ने उस पल्लेदार को एक रुपया दे दिया होता........''
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