tum na jane kis jaha me kho gaye - 16 in Hindi Love Stories by Medha Jha books and stories PDF | तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 16 - कब आओगे हर्ष

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तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 16 - कब आओगे हर्ष



कुछ दिन बैठने के बाद एक मित्र के सहयोग से दुबारा नौकरी मिल गई मुझे।

मशीनी जिंदगी हो गई थी मेरी यहां। और इतना करके भी कुछ नहीं बचता था। लगता था सब छोड़ कर भाग जाऊं। फिर याद आता कि मम्मी पापा ने इतना खर्च किया मेरी पढ़ाई में। दिल्ली मेरी पसंदीदा जगह थी, पर आने के बाद से अब तक कहीं गई नहीं थी मैं। सारे जगहों से परिचित थी मैं यहां, लेकिन सिर्फ किताबों के द्वारा।

१५ अगस्त की वह लंबी छुट्टी वाला सप्ताहांत और विनायक - मेरे संस्थान का मित्र आया था दिल्ली। वह मुंबई में कार्यरत था। उसने आग्रह किया सबको दिल्ली हाट चलने के लिए। पहली बार नौकरी करने के बाद अपने पैसे से घूमने निकली मैं। माता - पिता के पैसे पर घूमने कितना आसान होता है ना।

दिल्ली हाट - मानो देश का दिल ही है। पूरे भारतवर्ष के आए कारीगरों का स्टॉल, विभिन्न कपड़े, हस्तशिल्प का सामान पर जिस चीज ने सबसे ज्यादा ध्यान आकृष्ट किया मेरा वह था उस जगह का उत्सव जैसा माहौल जिसको बनाने में उस लोक कलाकार के जादूई उंगलियों का हाथ रहता है जो लगातार लकड़ी के एक वाद्य यंत्र पर सुंदर सी तान छेड़े रहता है। दिल्ली हाट और वह धुन - पर्याय ही लगते हैं एक दूसरे के।

हम सबने अपनी पसंद का कुछ खाया और मैंने अपने लिए एक कुर्ता लिया। आज भी दिल्ली हाट से खरीदारी पसंद है मुझे। कुछ अलग तरह के कपड़े और आभूषण मिलते हैं मेरी पसंद के वहां।

उस दिन स्वतंत्रता दिवस विशेष सज्जा की गई थी वहां की।खाने के सारे स्टॉल भी तिरंगा रंग में रंगे थे। और कोई ग्रुप उस दिन विशेष के थीम पर नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत कर रहा था।।अद्भुत रहा वह दिन। मैंने मन में सोचा - तुम्हारे साथ आऊंगी मैं यहां जब तुम आओगे।

उस दिन ऑफिस में ही थी मैं कि फोन की घंटी बजी। रीतेश था उस तरफ। एसबीआई के पीओ पद पर चयन हुआ था उसका। दिल्ली आया था । गुड़गांव में एसबीआई के हेड ऑफिस में ट्रेनिंग था उसका। बोला मिलना चाहता है। दिल्ली आने के बाद पहली बार कोई स्कूल का मित्र आ रहा था। बहुत खुश थी मै।

दूसरे दिन रविवार था। दिल्ली आने के बाद रविवार का मतलब मेरे लिए सिर्फ कपड़े साफ करना रह गया था, सब लोग घूमने निकल जाते सिवाय मेरे। मैंने सोच रखा था कि दिल्ली के मेरी पसंद के सारी जगह तुम्हारे साथ ही पहली बार जाऊंगी।

सुबह ही तैयार होकर निकल पड़ी मैं।अपने नए पीले रंग के टॉप को आज ही पहना था मैंने ब्लू जींस के साथ। इतनी खुश थी मैं कि मेरे संस्थान के मित्रों को लग रहा था अपने बॉय फ्रेंड से मिलने जा रही मैं। पर अभी तक हर्ष, तुम एक बार भी दिल्ली आए नहीं थे मेरे आने के बाद और फ़िलहाल कोई संभावना भी नहीं दिख रही थी।

रीतेश मेरा स्कूल मित्र रहा था और सौरभ का नजदीकी मित्र था वह। मेरी प्रिय स्कूल मित्र मनीषा उसे बहुत पसंद थी पर उधर से हां की संभावना नहीं थी। मनीषा को कोई और पसंद था।

गुड़गांव एसबीआई के ट्रेनिंग सेंटर के सामने बस से उतरी मैं। सामने खड़ा था रीतेश। बहुत प्रेम से मिला। अंदर ट्रेनिंग सेंटर में ले गया। भारत के विभिन्न भागों से आए बहुत सारे लड़के थे वहां। उन लोगों के साथ एक सुंदर सा दिन बिता कर अब लौटने का समय था मेरा। रीतेश साथ आया। गुड़गांव में बड़े बड़े अपार्टमेंट्स तैयार हो रहे थे। देख कर ही बहुत भव्य लग रहा था सब।

मैंने कहा - " कितनी सुंदर है यह जगह। और ये फ्लैट सब कितना अच्छा लग रहा।"

" मैडम जी, आप मुझे हां कहिए, मैं आपके लिए आज बुक कर देता हूं। आपकी मित्र मनीषा जी तो मुझे हां करने से रही। "

कभी - कभी जोश में आकर मैडम कहने की पुरानी आदत रही है रीतेश की। इसके साथ कोई भी लड़की खुश रहेगी। स्वभाव से अक्खड़ पर प्रेमी हृदय के इस मित्र से हमारी नजदीकी सौरभ के जाने के बाद ज्यादा बढ़ी।

अपनी धुन में बोले जा रहा था वो - " आप धड़ल्ले से जिस तरह घर आती रही हैं मां को लगता है आपसे कोई सैटिंग है मेरा। अब आप सबके रहते हुए किसी अनजान लड़की से कैसे शादी कर लें। दोस्त सब में किसी से कर लेते तो ज्यादा बढ़िया रहता।"

मैंने हंस दिया। कुछ भी कह और कर सकता है बुलंद इरादे वाला यह मित्र हमारा। देख कर ही लगता है अपनी बात का धनी है यह।

फिर पूछा उसने - " आपके हर्ष साहब कैसे हैं? क्या कर रहे अभी? मुलाक़ात होती है? "

मुलाक़ात ही तो नहीं हो रही थी तुमसे। कब आओगे हर्ष? सब आ रहे दिल्ली , सिवाय तुम्हारे।

सुहानी दिल्ली

छुटकी दिल्ली आ रही थी अपने दो मित्रों सहित। इंटर्नशिप था उनलोगों का दिल्ली में। दिल्ली कभी मेरे प्रिय जगहों में था पर अब मुझे वजह नजर नहीं आ रही थी इसे पसंद करने की। एक यंत्रवत जीवन के सिवा कुछ नहीं दिया था मुझे इस जगह ने। पर छुटकी के साथ दिल्ली सुंदर होने वाली थी।

मुझे याद आया निफ़्ट कोलकाता के वे दिन जब रात के १२ बजे लौटते थे छुटकी के कॉलेज मित्रों के साथ। साल्ट लेक - कोलकाता का पॉश कॉलोनी और नीफ्ट तो भरा ही था मॉडर्न स्टाइल मेकर्स से। मुंबई के बाद रात के १२ बजे तक कोलकाता में ही घूमी थी मैं। उसके मित्र भी एक से एक थे - जम्मू की अविनाश कौर - उतनी ही बोल्ड और स्मार्ट और मुंबईया नीति - प्यारी और स्टाइलिश। प्रेरणा , पटना की थी - अपने पढ़ाई को लेकर पूर्ण समर्पित। ये लड़कियां नए स्टाइल क्रिएटर्स बनने वाले थे। दिमागी तौर पर खुली हुई इन तीनों से मेरी भी खूब बनती थी। अब ये सब दिल्ली आ रहे और मन उल्लासित था मेरा कि अब दिल्ली अच्छी लगने वाली है मुझे।

नीति और अविनाश हमारे साथ ठहरे हमारे फ्लैट में। इन लोगों के होने से जीवन का एकाकीपन दूर हो गया था। हर रविवार हमलोग घूमने निकलते। छुटकी को इंटर्नशिप का पैसा भी मिल रहा था तो हम अपने हिसाब की शॉपिंग भी कर सकते थे। जनपथ, इंडिया गेट के चक्कर लगा रहे थे अब हम।

इन लोगों के साथ ही पहली बार एनआईएफटी, दिल्ली गई मैं, गुलमोहर पार्क में। उस दिन फेयरवेल था पुराने बैच का। फैशन का जलवा दिख रहा था सब तरफ।

अविनाश के बॉय फ्रेड के साथ एक दो बार और हमलोग दिल्ली हाट और सबवे गए।

तीन महीने कैसे खत्म हो गए पता नहीं चला। अब इन लोगों को जाना था वापस कोलकाता । लक्मे इंडिया फैशन वीक की तैयारी करने। जनपथ से वैसे भी मॉडल्स के लिए स्टाइलिश कपड़े, जूते, एसेसरीज ले चुके थे तीनों निफ्टियन। प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार थी इनकी।

फिर मैं अकेली होने वाली थी कुछ महीनों के लिए पर छुटकी ने तय कर लिया था कि वह दिल्ली में ही नौकरी करेगी।

आरज़ू मुलाक़ात की

हर्ष, हर्ष कहां हो तुम क्या तुम मुझे सुन रहे हो?
कल रात से जोरों की बारिश हो रही। दिल्ली अचानक से बहुत सुंदर दिखने लगी है । मेरी बस अभी वसंत कुंज होते हुए आगे बढ़ रही है। दोनों तरफ बारिश से नहाए पेड़ एक अलग ही मौसम का सृजन कर रहे। हल्की हवा के झोंके पटना यूनिवर्सिटी के उन दिनों में ले जा रहे मुझे जो तुम्हारे साथ गुजारे थे मैंने वहां।

बारिश और तुम्हारी याद - हमेशा एक साथ ही आती है। मन विद्रोह कर देता है मेरा स्वयं के विरुद्ध। बहुत मुश्किल होता है तब खुद को समझाना।

"मेरी सांसों पर मेघ उतरने लगे है,
आकाश पलकों पर झुक आया है,
क्षितिज मेरी भुजाओं में टकराता है, आज रात वर्षा होगी,
कहां हो तुम।"

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां सहसा स्मरण हो आई।

एक साथ कई स्मृतियां कौंध उठती है मन में मेरे।
उस दिन तुम्हारा रिजल्ट आया था सीडीएस का, सफल नहीं हुए थे तुम। बहुत बुझे से थे तुम , जब हम मिले। तुमने उस दिन अचानक से कहा - " अगर जीवन में हम साथ आगे नहीं बढ़ पाए, तो अपने अपने रास्ते पर चलते हुए दूसरे को डिस्टर्ब नहीं करेंगे। एक - दूसरे को याद कर मुस्कुराहट ही आए हम दोनों के चेहरे पर कि जीवन के कुछ समय को हमने खास बनाया एक -दूसरे के लिए।

क्यों बोला था तुमने ऐसा? अभी तुमसे मिले लगभग ५साल बीत चुके थे और तुम्हें चाहते तो मुझे १०वर्ष होने को थे। इस पूरे समय में एक क्षण के लिए भी नहीं सोचा कि तुम मेरे साथ, मेरे जीवन में नहीं होगे। आज सिर्फ एक असफलता ने तुरंत निर्णय तक पहुंचा दिया तुम्हें। मैं काम कर ही रही थी और लग रहा था कि आने वाले दिनों में जीवन वैसा कठिन नहीं रह जाएगा जैसा अभी है।

और उसी दिन शाम में तुम्हारा फोन आया - तुम दिल्ली आ रहे हो दो महीने बाद। परीक्षा थी तुम्हारी। सालों प्रतीक्षा की है तुम्हारी। चलो, ये दो महीने और सही। खुश होने के लिए कुछ तो था मेरे पास।

छुटकी का फैशन डिजाइनिंग कोर्स खत्म होने वाला था और वो आने वाली थी अगले महीने। मेरे खुशियों के दिन फिर से आने वाले थे।

छुटकी और उसकी मित्र नीति दिल्ली आ गए और उनका ऑफिस गुड़गांव में था। हम अभी मालवीय नगर में ही थे। दूरी काफी थी उनके ऑफिस से घर की, पर दोनों साथ थे तो आने - जाने में दिक्कत नहीं थी।

कल तुम्हारी परीक्षा थी। सुना तुम दिल्ली आ गए और मुखर्जी नगर में अपने हिन्दू कॉलेज के सहपाठी के साथ ठहरे थे। मन बेचैन था मेरा मिलने को, पर ऑफिस में छुट्टी मिलनी नहीं थी। वास्तव में मुझे छुट्टी के लिए पूछने में ही बुरा लगता था और दिन में तुम्हारी परीक्षा थी तो वैसे भी तुम ३बजे तक छूटते।

ऑफिस से निकलते ही फोन किया मैंने तुम्हें। तुम थके थे काफी, आवाज से लगा। मैंने अनुरोध किया आने के लिए, पर तुमने मना कर दिया क्योंकि दूरी काफी थी तुम्हारे अनुसार, मुखर्जी नगर से मालवीय नगर की। ७:३०बज गए मुझे घर के नजदीक पहुंचने में, अगर उस समय वहां से तुमसे मिलने निकलती मैं, तो कम से कम ९बजता और फिर तुरंत भी लौटती तो ११ बजना ही था। खुद को जब्त किया मैंने। मन में ख्याल आया - तुम्हारी परीक्षा तो ३बजे खत्म हो गई थी, मैं ऑफिस में बंधी थी, पर तुम तो आ सकते थे सीधे मुझे लेने, और फिर ६बजे से रात के ९- १० बजे तक समय अपना होता। दिल्ली तो तुम्हारा पुराना शहर रहा है। कभी भी लौट जाते तुम।
खैर, अगले दिन शाम ६बजे आए तुम। शाम हमने साथ गुजारी और निकल गए तुम। पता नहीं अब कब मिलने वाले थे हम। मेरे सारे सपने धरे रह गए - " ना जी भर के देखा, ना कुछ बात की, बड़ी आरजू थी मुलाक़ात की।" चंदन दास की आवाज जेहन में कौंध रही थी।