केसरिया बालम
डॉ. हंसा दीप
13
अमावसी अंधेरों में
अब कई बार वह देर रात तक घर नहीं आता। धानी उसकी राह तकती सो जाती। घर आता भी तो कभी बाहर सोफे पर ही सो जाता तो कभी अपनी हवस मिटा कर झट सो जाता। आर्या से सुबह खेलकर जाता तो फिर दूसरे दिन सुबह मिलता। कई बार आधी रात में धानी का हाथ पास के खाली तकिए पर जाता तो अचकचा कर उठ जाती कि – “बाली अभी तक नहीं आया।”
बाहर जाकर उसे सोफे पर सोया हुआ देखती तो चैन मिलता। उसे ठीक से ओढ़ा कर, प्यार से माथे को सहला देती। नींद न टूट जाए, इस डर से उसे टकटकी लगा कर देखती रहती। सोये हुए बहुत मासूम लगता बाली। न जाने किन संकटों से अकेला जूझ रहा है और क्यों जूझ रहा है। सब कुछ तो है घर में। फिर क्यों काम-धंधे-पैसे की रट में परिवार से दूर जा रहा है।
इन्हीं पलों से गुजरते हुए एक पल ऐसा भी था जब धानी ने ठान लिया था कि ‘आज कोई परवाह नहीं करेगी कि क्या होगा, क्या नहीं होगा। वह पूछ कर ही रहेगी कि क्या चल रहा है यह सब।’ आर्या पास-पड़ोस के बच्चों के साथ खेल रही थी और बाली काम से आकर अपने फोन में न जाने क्या कर रहा था। धानी तैयार थी – “एक बार, सिर्फ एक बार, मुझे यह बता दो बाली कि तुम मुझसे बात क्यों नहीं करते, मेरी गलती क्या है?”
“गलती सिर्फ मेरी है, मैं ही ठीक करूँगा।”
“लेकिन मुझे किस बात की सजा दे रहे हो?”
“मैं खुद को सजा नहीं दे पा रहा। किसी और को क्या सजा दूँगा!”
“किसी और को, मैं तुम्हारे लिये किसी और की श्रेणी में हूँ?”
वह जाने लगा तो धानी ने उसका रास्ता रोक लिया – “आज मुझे जवाब दिए बगैर नहीं जा सकते”
बाली झटके से उसका हाथ हटाकर निकल गया। यह सिर्फ हाथ हटाना नहीं, जबरन हाथ हटाना था जो बाली का स्वभाव तो बिल्कुल नहीं था। उस समय उसकी आँखों में कातरता, गुस्सा या किसी परायेपन की झलक थी, इसे धानी देख नहीं पायी थी।
उस दिन वह रात भर करवटें बदलती रही। बहुत मन किया कि कजरी-सलोनी से बात करे। इज़ी को फोन करे, किसी तरह अपने मन की वेदना को बाहर निकाले। पर उसका दर्द अंदर ही छटपटाता रहा। इतनी अधिक छटपटाहट जैसे कि कोई नदी अपने तटबंध तोड़ देने के लिये व्याकुल हो जाए। बहती नदी के तट जब भरने लगते हैं और अपनी ऊपरी सीमाओं को छूने की कोशिश करते हैं तो नदी का ऐसा होना सार्थक लगता है। तटों को लगता है कि वे भी नदी के हिस्से बन गए हैं। पत्थरों को लगता है कि नदी अपने पानी से काट-काट कर उन्हें गढ़ रही है और उनके कटे कणों को खुद में आत्मसात कर रही है। पर वही नदी जब तटबंध तोड़ देती है, बेसुध हो बाढ़ बनकर तबाही ले आती है तो हर ओर त्राहि-त्राहि मच उठती है।
आज धानी के मन में भी ऐसी ही त्राहि-त्राहि मची थी। उसे नहीं मालूम बाली की इच्छाओं की मर्यादित बहती नदी, कब सारी मर्यादाओं को तोड़कर उच्छृंखल हो गयी। प्रेम की शांत नदी में तिनके-सी निरंतर बहती धानी को तूफान अपनी चपेट में लेने लगा है। सारे तटबंध टूटते-से नज़र आते, शायद अपने प्यार की क्षीण होती सहनशक्ति यह तांडव सहन न कर सके।
एकाएक उसे विचार आया कि कहीं बाली के जीवन में कोई और लड़की तो नहीं आ गयी? कहीं किसी लड़की के साथ उसके रिश्ते तो नहीं बन गए? अगर कोई और हो उसकी जिंदगी में तो वह अपने प्यार की खुशी के लिये सब कुछ छोड़ने के लिये भी तैयार थी। वह जानना चाहती है उस सच्चाई को जो आहिस्ता-आहिस्ता उनके प्यारे-से घर के अपनत्व को खत्म कर रही है। अगर वह किसी और के साथ खुश है तो वह अपने रास्ते अलग कर लेगी। कम से कम बताए तो सही उसे कि कहीं और दिल लगा बैठा है।
क्यों न उससे पूछ कर बात खत्म करे। फिर वह जो भी फैसला लेना चाहे।
“बाली, कुछ बताओगे भी कि बात क्या है? अगर तुम्हारे जीवन में कोई और है तो…”
“तुम्हें क्या लगता है?”
“बहुत कुछ, जो हमारे बीच अब है, वह क्यों है, मैं तुमसे जानना चाहती हूँ”
वह आँखें फैलाकर खड़ा रहा दो पल और फिर चला गया। उसके नथुने फूले थे, जवाब होठों तक आया, लेकिन शब्दों में नहीं बदल पाया। वही किया उसने जो अब तक करता रहा था। न कोई जवाब, न दिलासा, न बचाव, बस प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ देना जैसे उसके वहाँ से हट जाने से धानी को जवाब मिल जाएगा।
“जाओ मत, बाली…”
वह पुकारती रह गयी। देखती रह गयी उसे जाते हुए। उसके एकतरफा प्रयास लगातार असफल हो रहे थे। कहीं तो कुछ था जो पटरी पर आ नहीं पा रहा था। इस तरह चुप रहकर न तो वह खुश रहता, न धानी को खुश रहने देता। अटकलें लगा-लगाकर वह परेशान हो जाती लेकिन बाली का मुँह न खुलता। वह जैसे मुँह सी कर बैठा था। उस घुन्नेपन के, उस रूखेपन के पीछे न जाने कौन है, न जाने क्या है, इस उलझती पहेली को वह सुलझा ही नहीं पाती।
प्यार पाना ही नहीं, देना भी उसका एक रूप है, बस देती रही वह। फिर धानी का प्यार तो था ही ऐसा जो निश्छलता से बाली की वापसी की उम्मीद करता। कभी पत्नी, कभी प्रेयसी, कभी माँ तो कभी दोस्त, हर रिश्ते का सहारा लेकर समझने की कोशिश करती। हर तरह से उसे आजादी देती लेकिन कोई भी रिश्ता उसे वापस खींच नहीं पा रहा था।
हालात अपने प्रतिकूल प्रभाव छोड़ते रहे। क्या, कब, कैसे, क्यों सब कुछ हुआ, धानी को कुछ अधिक पता नहीं चल पाया। उसे सिर्फ ये पता लगा कि अपने धंधे में ऐसा नुकसान हुआ है उसे कि सब कुछ खो बैठा है। दोस्त कुछ हिंट देते, कुछ सुनी-सुनायी भी होती जो दोस्तों ने किसी और से सुनी होती। कुछ इस तरह कि यह बाली का अपना फ्रस्ट्रेशन है जो हमेशा यह याद दिलाता रहता कि पत्नी की कमाई पर उसका काम चल रहा है। वह एक फालतू आदमी है जो कुछ भी नहीं कर पाता। अपनी खूबसूरत बीवी को देखता तो लगता कि क्या पाया था, क्या खोता चला गया।
एक हारा हुआ इंसान जो हार कर बैठ जाता है, रोता रहता है। बाली भी रोता था, अंदर ही अंदर। न घर का था, न घाट का। अंदर सूखते आँसू बर्फ की मानिंद जमते जा रहे थे। उसे भावशून्य करते हुए। एक बर्फीला पहाड़ अंदर ही अंदर रास्ता रोक लेता था। धानी के भी सारे सवाल वहीं, उसी पहाड़ से टकराकर चूर हो जाते थे। बर्फीली वादियों में जैसे गर्मी की एक किरण भी नसीब नहीं हो पाती।
आर्या बिटिया के साथ खेलते हुए धानी बाली को बहुत याद करती। उसे पापा के बारे में कई अच्छी-अच्छी बातें बताती – “तुम्हारे पापा बहुत होशियार हैं।”
“अच्छा, और ममा?”
“ममा भी होशियार हैं।”
“हूँ” वह ममा के बालों को खींचती रहती।
“पापा बहुत प्यार करते हैं तुम्हें।”
“मैं भी तो पापा को बहुत प्यार करती हूँ।”
“तुम्हें पता है, पापा बहुत अच्छे बिजनेसमैन हैं।”
“और ममा?”
“ममा तो बेकरी स्टोर में काम करती है, लेकिन शैतान, हम पापा की बात कर रहे हैं, ममा की नहीं”
“हम ममा की बात क्यों नहीं कर रहे..”
और वह दौड़ जाती, अपने पीछे ममा को दौड़ाती घर के बाहर लॉन में। धानी उसे पकड़ न पाती तो वह ताली बजाकर हँसती रहती। आर्या के स्कूल के कारण कई बार बाली उसके साथ खेल नहीं पाता। सुबह वह जल्दी घर से निकल जाता। तब आर्या सोयी हुई रहती और शाम को कई बार लेट आता तो भी वह सो रही होती। धानी ही आर्या को स्कूल छोड़ते हुए बेकरी जाती और लौटते हुए उसे घर लेकर आती।
आर्या शिकायत करती – “पापा, आप बहुत लेट आते हैं, कल जल्दी आना।”
“हाँ, बेटा, अभी पापा काम में उलझे हैं। बस कुछ दिन और फिर पापा आपके साथ रोज खेलेंगे।”
“पक्का प्रॉमिस?”
“पक्का प्रॉमिस।”
बाली अपने बिछाए जाल में इस कदर उलझा कि कभी निकल ही नहीं पाया। बाहर निकलने की हर कोशिश उसे और अधिक उलझाती गयी। वह झेलता रहा यह सब। पुरुष का अहं स्त्री से सलाह मशविरा करने में कतराता रहा। उस स्त्री से जो आज अपने पैरों पर खड़ी होकर घर चला रही थी। पति की उपेक्षा को सहते हुए भी खामोशी से अपनी ड्यूटी निभा रही थी।
धंधे में उन्नीस-बीस कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन वह समय हाथ से निकल चुका था शायद। जब तक वह स्थिति की गंभीरता को समझता तब तक उन्नीस, बीस में तब्दील न होकर शून्य में बदलने लगा था। शून्य के घेरे से कोई कभी नहीं बच पाता। उससे बाहर निकलने के लिये कोई न कोई संख्या तो चाहिए पर ऐसा नहीं हुआ। इतनी देर हो चुकी थी कि चाहकर भी वह यह सब पत्नी धानी को बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। इस बारे में कभी उससे खुलकर बात नहीं कर पाया। खुद से ही नाराज इंसान कब किसी की नाराजगी की परवाह करता। अहं अलग रास्ते का रोड़ा बनता।
धानी अपनी दिनचर्या की हर बात बताने को आतुर रहती पर बाली सुनने के लिये घर पर होता ही नहीं था। बाबासा तो सब कुछ बताते थे माँसा को। शाम को खाट पर बैठकर कितनी देर तक बातें होती थीं। कभी-कभी पल्लू में मुँह छुपाकर दबी-दबी आवाज में माँसा की हँसी भी सुनायी देती थी।
खुसुरपुसर करती आवाजें आतीं – “छोड़ो, धानी जाग जावेगी”
“ना जागेगी, एक बार जो सोवे लाडो तो घोड़ा बेची ने सोवे”
वीरान रातों की यह फुसफुसाहट युवा होती धानी के मन में एक नयी स्फूर्ति लाती थी। तब धानी सोचती रहती कि वह प्यारी सी दुनिया कैसी होगी जब वह भी किसी की बाँहों में होगी। दो लोगों की अपनी एक दुनिया जहाँ बस उनकी मनमानी चले। सिर्फ उन दोनों की। उसे वह दुनिया मिली पर थोड़े दिनों के लिये। फिर वही दुनिया बँट गयी दो भागों में। दो से एक हुए ही थे कि फिर एक से दो में बदलने लगे थे। कुछ दिनों की वह एकाकार दुनिया आज भी उसकी ऊर्जा का मुख्य स्रोत है।
बाली के जिगरी दोस्त सोहम ने एक बार सीधे-सीधे शब्दों में कहा था कि – “आप शतरंज की दुनिया से बाहर निकलो भाभी। यह दुनिया आपका उपयोग एक प्यादे की तरह कर रही है।”
दुनिया से उसका मतलब बाली से ही था क्योंकि वह जानता था कि धानी की दुनिया बाली से शुरू होकर बाली पर खत्म हो जाती है। वह ये देख नहीं पाता था कि धानी जैसी लड़की जो रानी होने की हकदार है, प्यादे की तरह उसका उपयोग होता रहे।
लेकिन सोहम की बात कैसे सुनती धानी? वह तो बाली के लिये खुद की भी नहीं सुनती थी। बाली के प्यार का आवरण ही कुछ ऐसा था। इतना बुरा नहीं था वह। जैसा लुभावना व्यक्तित्व था वैसा ही उसका आचरण भी। अपनी दुनिया में अपनी पत्नी को शामिल कर चुका था। शायद समय के बदलते तेवर के आगे उसकी एक न चली। मौसम बदलते रहते। गर्मी, बारिश, सर्दी फिर गर्मी लेकिन बाली का स्वभाव एक बार बदला तो बस बदल ही गया, हमेशा के लिये। धीरे-धीरे और खराब, और खराब होता चला गया।
उसके दोस्तों की बतायी बातों पर विचार करती तो इसके पीछे एक नहीं, कई कारण नज़र आते थे। उन कारणों में एक कारण यह भी था कि बाली की अपनी व्यावसायिक शैली इस महानगर में सफल न हो पायी थी, उसे असफलताओं से शिकस्त मिली थी जो घर कर गयी उसके अंदर। उनसे जूझते, बाहर आते उसके पौरुष का दंभ घायल हो चुका था। जिसका शायद कोई इलाज उसके पास नहीं था। मन के अंदर की घुटन और आर्थिक समस्याओं ने मिलकर एक अच्छे-खासे परिवार को खुशियों से वंचित कर दिया था।
असफलता ने उसे इंसान से हैवान तक का सफर तय करवा दिया था। वह अब किसी पर विश्वास नहीं करता था। अपनों पर भी नहीं। बाली को सबसे अधिक अविश्वास पत्नी पर था। उसे लगता कि एक सफल पत्नी, एक असफल पति को कभी भी धोखा दे सकती है। उस हीन भावना के बस में आकर अपनी झुँझलाहट रातों के उस सन्नाटे में निकाल देता था। अपनी मजबूरियों में धानी का साथ उसे और अधिक असुरक्षित कर जाता। चुप्पी और संवाद के बीच की खाई बढ़ती रही।
बीती बातें अगर धानी को थोड़ी खुशी देती हैं तो बाली को भी तो देती होंगी, सोचती रहती वह। उसे तो वे सारे अच्छे पल याद आते, वे सारी चुहलबाजियाँ याद आतीं। उन्हीं दिनों में से एक दिन था, जब बाली धानी की हथेली को देखते, सहलाते, अपना ज्योतिष ज्ञान बघारने की कोशिश कर रहा था। ज्योतिष विद्या तो नहीं आती थी उसे पर मसखरी में अव्वल था, कहता – “धानी मैडम आपके हाथ की लकीरें गजब हैं।”
“लकीरें तो मुझे दिख रही हैं, पर लकीरें बोल क्या रही हैं, आप तो बस वही बताइए पंडित जी”
“तुम्हारे हाथ की लकीरें बोल रही हैं कि, ओहो, च्च च्च च्च, तुम्हारा भविष्य तो बहुत खतरे में है!”
“खतरे में! मुझे तो अपना भविष्य सुनहरा लगता है।”
“वह इसलिये कि तुम इन लकीरों के मोड़-तोड़ जानती नहीं हो देवी, आगे का समय अशुभ है। मुझे संकेत मिल रहे हैं कि खराब समय आ रहा है।”
“कितना खराब समय आ रहा है पंडित जी, आगे तो कुछ बोलिए।”
“अरे रे रे, तुम्हारा पति एक नंबर का बदमाश निकलेगा।”
“कोई बात नहीं पंडित जी, मुझे तो बदमाशी अच्छी लगती है। आप तो आगे बताइए, और कोई खास बात।”
“एक नंबर का चालाक निकलेगा।”
“मैं खुद भी कम चालाक नहीं हूँ।”
“एक नंबर का धोखेबाज निकलेगा।”
“सब एक नंबर, एक नंबर तो चल जाएगा पंडित जी। बस दो नंबर का कुछ नहीं चाहिए मुझे।”
बाली आगे कुछ और बोले, उसके पहले ही वह उसका मुँह बंद कर देती अपने होठों से। तब वह कुछ न बोल पाता। खो जाता उन होठों की गुनगुनी छुअन में जो अंग-अंग में फैल जाती एक खुशबू की तरह।
किसने जाना था, किसे पता था कि सालों बाद परिहास में कहे गए वे ही शब्द उनके बीच सच बनकर पसर जाएँगे। प्यार के ढाई अक्षर के ढाई सौ मतलब निकालते थे वे दोनों मिलकर। क्या उनमें से कोई एक अक्षर भी आकर उसे छेड़ता नहीं होगा, हैरान होती रहती वह।
अहं था ही ऐसा अड़ियल, जिद्दी, जो रिश्तों की मिठास के आड़े आ ही जाता। राजस्थान की वादियों में पली-बढ़ी लड़की की सहजता, सौम्यता अब उसे कचोटती, उसकी निष्ठा उसे अपमानित करती लगती। अपनी नाकामियों का ठीकरा उसके सिर खुले आम नहीं फोड़ता, इतना सभ्य तो था पर रात के अंधेरे उसे असभ्य बना देते। इतने असभ्य कि वह अपनी हर नाकामयाबी का गुस्सा उसी पर निकालता जिसे उसने बेहद चाहा था। शायद अभी भी चाहता हो पर चाहत की परिभाषाएँ बदल चुकी थीं।
वह अंधेरों से दूर रौशनी देखना चाहती थी जहाँ आज भी वह हो और उसका अपना बाली हो। वही पुराना बाली जो बस धानी का अपना हो, उसी में खोया हुआ।
क्रमश...