Mahamaya - 31 in Hindi Moral Stories by Sunil Chaturvedi books and stories PDF | महामाया - 31

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महामाया - 31

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – इकत्तीस

काशा ने बाबाजी और सूर्यगिरी के साथ तहखाने के ऊपर बने कमरे में प्रवेश किया। कमरे के बीचों-बीच रखी चौकी पर प्रकाश का एक वृत्त बन रहा था। शेष कमरे में पूर्ण अंधकार था।

काशा भारतीय परिधान में थी। उसने हल्के गुलाबी रंग की सिल्क की साड़ी पहनी थी। बालों को जूड़े की शक्ल में बांधा था। मोगरे के फूलों की वेणी लगायी थी। हाथों में पूजा की थाली थी। बाबाजी ने काशा को चौकी के सामने बिछे आसन पर बैठने का ईशारा किया। काशा ने पूजा की थाली नीचे रखी। फिर आलथी-पालथी लगाकर बैठ गई। तब बाबाजी उसे समझाने लगे -

‘‘बेटे, तुम्हें अपनी आँखें बंद कर महाअवतार बाबा का ध्यान करना है। जब तक बाबा तुम्हारे समक्ष प्रकट नहीं हो जाय। तब चल तक तुम अपनी आँखें मत खोलना।’’

‘‘पर मुझे महाअवतार बाबा के आने का पता कैसे चलेगा?’’ काशा ने संशय प्रकट किया।

‘‘महाअवतार बाबा कोई साधारण साधु नहीं है बेटे। वे दिव्य लोक में वास करते हैं। उनके प्रकट होने के पहले तुम्हे घंटे, घड़ियाल और शंख की ध्वनियाँ सुनाई देगी। जब ये ध्वनियाँ सुनायी देना बंद हो जाये तब समझ लेना कि महाअवतार बाबा प्रकट हो गये हैं। तब तुम अपनी आँखें खोल सकती हो।’’

काशा ने प्रणाम की मुद्रा में अपने दोनों हाथ जोड़े और आँखें बंद कर ली। बाबाजी ने पीछे खड़े होकर काशा के सिर पर हाथ रखा फिर कुछ बुदबुदाये। काशा स्थिर हो गई।

काशा के ध्यानस्थ होते ही बाबाजी ने सूर्यगिरी जी को हाथ से कुछ इशारा किया और बिना मुड़े चार कदम पीछे अंधेरे में सरक गये।

थोड़ी ही देर में कमरे में घंटे, घड़ियाल और शंख का स्वर गूंजने लगा। यह स्वर पहले धीरे फिर तेज और अंत में धीरे होते-होते समाप्त हो गया।

इसी बीच कमरे में सामने वाली दीवार पर लगा काँच दरवाजे की तरह एक ओर सरका उसके पीछे से एक साधु ने कमरे में प्रवेश किया और दबे पाँव चौकी पर आकर बैठ गया। साधु का रंग साफ और शरीर दुबला-पतला था। जटायें काली, लंबी और खुली हुई थी। घनी काली दाढ़ी सीने को छू रही थी। उसकी आँखों में गहरी चमक थी। साधु के कमरे में प्रवेश के साथ ही कमरा गूगल, धूपबत्ती, गुलाब और केवड़े की गंध से महकने लगा।

घंटे, घड़ियाल और शंख की आवाजें बंद होते ही काशा ने आँखें खोली। सामने बैठे साधु को देखकर वो भाव विध्वल हो गई। उसकी आँखों से अविरल आँसू झरने लगे। साधु शून्य में नजरें गड़ाये निर्विकार बैठा था।

काशा ने जैसे-तैसे खुद को संयत किया। साधु के पैरों को थाली में रखकर लौटे से पानी डालते हुए उन्हें मल-मल कर धोया। अपने पल्लू से पैरों को पोंछा। दोनों अंगूठों पर कुंकुम और अक्षत लगाकर पूजन किया। फिर थाली में रखे दीपक को प्रज्जवलित कर साधु की आरती उतारी। अंत में काशा ने अपने शरीर पर पहने सारे गहने उतारकर साधु के चरणों में रख दिये।

साधु अभी भी निर्विकार था। काशा ने जिस थाली में साधु के पैरों को धोया था उसमें से थोड़ा सा पानी अपने दांये हाथ की अंजुरी में लेकर आचमन किया। काशा के चेहरे पर पूर्ण संतुष्टि का भाव था। वो धीमे स्वर में साधु से कहने लगी।

‘‘बाबा आप मेरे आराध्य हैं। मैंने जब से ‘योगी कथामृत’ में आपके बारे में पढ़ा था तभी से मैं आपको अपना गुरू मानने लगी थी। मैं आपको ढूंढने के लिये बरसों भटकी। कितने ही साधु-महात्माओं के सामने आपके दर्शन की ईच्छा प्रकट की। लेकिन आज बरसों बाद मेरी ईच्छा पूर्ण हुई।

साधु ने शून्य से दृष्टि हटाते हुए काशा के चेहरे पर स्थिर की और गंभीर आवाज में कहने लगे-

‘‘बेटा, ये तुम्हारे पिछले जन्मों का प्रारब्ध है जो तुम मुझे देख पा रही हो। दो जन्मों पहले मैंने तुम्हे हिमालय में दीक्षा दी थी। आज फिर से तुम्हारे पुराने संस्कार उदय हुए हैं।’’

‘‘बाबा अब तो मैं हमेशा आपके दर्शन कर सकूंगी न!’’

‘‘बेटे हम लंबी समाधि में जाने वाले हैं लेकिन जब भी तुम्हें दर्शनों की ईच्छा हो महायोगी से कहना तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी ।’’

काशा ने भावपूर्ण होकर साधु के पैरों में अपना सिर झुकाया। फिर एक चेक साधु को देते हुए कहा -

‘‘बाबा आपके लिये एक छोटी सी भेंट है।’’

‘‘नहीं बेटे, हमें किसी भेंट की आवश्यकता नहीं है। तुम्हे जो भी देना हो वो तुम महायोगी को दे दो।’’

साधु की बात सुनकर काशा अभिभूत हो गई। उसने प्रणाम की मुद्रा में साधु के सामने सिर झुका दिया। साधु ने काशा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा -

‘‘बेटे, अब हमारे जाने का समय हो गया है। तुम पाँच मीनिट आँखें बंद कर हमारा ध्यान करो।’’

काशा ने आँखें बंद कर ली। घंटे, घड़ियाल और शंख का धीमा स्वर फिर कमरे में तैरने लगा। साधु धीरे से चौकी से उठा और काँच वाले दरवाजे से अंधेरे में गुम हो गया।

बाबाजी ने अंधेरे से निकलकर चौकी पर बैठते हुए काशा के सिर पर हाथ रखा। हाथ का स्पर्श पाकर काशा ने आँखें खोली। अपने सामने साधु के बजाय बाबाजी को बैठे देखकर पहले थोड़ा अचकचायी फिर उसने पूछा -

‘‘महाअवतार बाबा कहाँ गये बाबाजी’’

‘‘दिव्य लोक में विचरने वाले योगी हवा में प्रकट होते हैं और हवा में ही विलीन हो जाते हैं। उनकी एक झलक मिल जाना भी बड़े पुण्य की बात है बेटे। फिर तुमने तो उनका पूजन किया, आरती उतारी और बातें भी की।’’

‘‘ये तो आपका आशीर्वाद है बाबाजी’’ काशा कृतज्ञ थी।

‘‘नहीं बेटे ये तुम्हारा प्रारब्ध था’’ बाबाजी ने काशा के गालों को छूते हुए कहा।

काशा ने बाबाजी का भी पूजन किया और उनके चरणों में चेक रख दिया। बाबाजी काशा को अपने साथ लेकर कमरे से बाहर चले गये।

बाबाजी और काशा के जाते ही सूर्यगिरीजी ने थाली में रखे गहनों की पोटली बांधी। चेक को खोलकर देखा। फिर उसे अपनी धोती में खोंसते हुए काँच वाले दरवाजे को ढेलकर नीचे उतर गये।

तहखाने में पहुंचकर साधु ने पाँच-सात लंबी-लंबी साँसें लेकर अपनी बढ़ी हुई धड़कन को संयत किया। हथेली में तम्बाकू मलकर चिलम भरने की तैयारी करने लगा। पीछे से सूर्यानंद जी भी सीढ़ियाँ उतरकर तहखाने में पहुंच गये। उन्होंने प्रशंसा भरी निगाहों से साधु को देखते हुए कहा -

‘‘वाह! ओंकार महाराज। कमाल कर दिया। आप बेकार में साधु बने। आपको तो सिनेमा में काम करना चाहिये था।’’

ओंकार महाराज ने चिलम तैयार कर एक लंबा गहरा कश खींचा।

‘‘अरे क्या करें महाराज। बाबाजी भी खूब तमाशे करवाते हैं। उस विदेशी पुतरिया को देखके पहले तो हमारी धुकधुकी ही बंद हो गई थी। वो तो पीछे से बाबाजी ने हाथ का ईशारा किया तब जाकर हमें याद आया कि हमें क्या बोलना है।

‘‘जो भी हो पर काशा ने आपको महाअवतार बाबा मान लिया है। अब आप अपना नाम ओंकार महाराज से बदलकर परमानेंट महाअवतार बाबा रख लो।’’

‘‘हाँऽऽ सो तो है। पार्टी पैसे वाली लगती है। तगड़ा माल भेंट में चढ़ाया है।’’

‘‘हाँ एकाध करोड़ के गहने तो होंगे। गहनों में हीरे जड़े हैं महाराज हीरे।’’ सूर्यानंद ने उत्साहित होते हुए बताया।

‘‘और वो चेक.....।’’

‘‘पाँच लाख डाॅलर महाराज जी। पूरे ढाई करोड़ रूप्ये’’ सूर्यानंद जी ने ढाई करोड़ पर जोर देते हुए कहा।

‘‘इसमें हमारा हिस्सा कितना है? तुम तो सीधे-सीधे ये बताओ महाराज।’’

‘‘है....महाराज। आपका हिस्सा भी है। हमारे बाबाजी बड़े दयालु हैं।’’ सूर्यानंद जी ने कुरते ही जेब से नोटों की गड्डी निकालकर ओंकार महाराज के सामने रखी ‘‘पूरे पच्चीस हजार हैं महाराज।’’

ओंकार महाराज ने नोटों की तरफ बिना देखे चिलम का एक लंबा कश खींचा।

‘‘वाह महाराज, ये भी खूब रही। आपके दयालु बाबाजी हिस्सा बांट में बड़े उस्ताद हैं। हमारे गुरू एक कहनी कहते थे ‘नाचे कूदे बंदरी खीर खाये मलंग’। उस कहनी का मतलब हमें आज समझ में आया....।’’

‘‘क्या मतलब’’ सूर्यानंद जी की भौंहे तिरछी हो गई।

‘‘मतलब साफ है महाराज। अरे पूरा तमाशा हम करें और माल उड़ा जायें बाबाजी। न्याय की बात तो यह है कि आधा-आधा हिस्सा होना चाहिये। वरना हम उस विदेशी पुतरिया को सब साफ-साफ बता देंगे’’ ओंकार महाराज के स्वर में धमकी थी।

ओंकार महाराज की बात सुनकर सूर्यानंद जी के तन-बदन में आग लग गई। उनका मन हुआ कि वो इसी पल ओंकार महाराज को उठाकर आश्रम के बाहर फेंक दें। लेकिन कुछ सोचकर उन्होंने अपने गुस्से पर काबू किया। और बिना कुछ बोले वहाँ से लौट आये और बाबाजी के पास पहुंचकर उन्हें पूरी बात बतायी। बाबाजी कुछ देर तो विचारमग्न बैठे रहे। फिर वो सूर्यानंद जी को साथ लेकर तहखाने में ओंकार महाराज के पास गये। बाबाजी चेहरे पर एक मुस्कान लाते हुए बोले -

‘‘महाराज, साधु को इस तरह छोटी बातें बोलना शोभा नहीं देती। अरे, ये पच्चीस हजार तो हमने आपके हाथ खर्च के लिये भिजवाये थे। आपका आधा हिस्सा हमारे पास सुरक्षित है। आप जब यहाँ से जायें तब लेते जाईयेगा’’ कहते हुए बाबाजी वापस लौटने लगे। चार कदम चलकर बाबाजी अचानक पलटे उनका चेहरा सख्त था ‘‘और हाँ महाराज आगे से कभी उल्टी-सीधी बात हमारे आश्रम में मत करना। वरना आप हमें जानते हैं।’’

ओंकार महाराज के स्वर में नरमी आ गई थी।

‘‘बाबाजी ओंकार महाराज इतना तो जानता है कि हिमालय में कौन साधु लफंगा है और कौन अपनी बात का धनी। ये तो सूर्यानन्द महाराज ने उल्टी बात शुरू की। अगर ये पहले ही बता देते कि ये खर्चे-पानी के पैसे हैं तो इतनी रामायण ही नहीं होती। आप पर तो हमें इतना भरोसा है कि कहेंगे तो हम आग में भी कूद जायेंगे।’’

बाबाजी ने ओंकार महाराज की बात का कोई जवाब नहीं दिया। वह पलटे और तेज कदमों से तहखाने से बाहर हो गये। सूर्यानंद जी भी बाबाजी के पीछे-पीछे बाहर चले गये।

क्रमश..