Saloni ka phone in Hindi Classic Stories by राजेश ओझा books and stories PDF | सलोनी का फोन

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सलोनी का फोन



आज होली के त्योहार में जहां सब मगन थे वहीं महंगू का चित्त खोया खोया था..महंगू की दुलहिन अंदाजा लगा तो रहीं थीं पर एक अन्जाने भय से कांप जातीं..घर में उल्लास का माहौल था..दोपहर के एक बज गये थे..बच्चे नहा धोकर नये नये कपड़े पहने,अबीर लगाये घूम रहे थे..वहीं महंगू बाहर दालान में उदास हुये बैठे थे..

"अम्मा ! बापू से आज खाने को नही कहोगी..?"

बहू ने महंगू की दुलहिन से कहा था..पर उनकी हिम्मत नही हो रही थी..वह समझ रही थीं.. बहुत कहने पर वे खाने तो आ जायेंगे पर खा नही पायेंगे..

महंगू के पिता जब मरने को हुये तो महंगू को अपने पास बुलाया..बोले..

"महंगू तुम बड़े हो..सहतुआ नालायक निकल गया..उसे अपने भविष्य की चिन्ता नही है..उसे भाई की तरह नही अपने बेटे जैसा रखना.."

बाप की अन्तिम इच्छा पूरी करना मंहगू के लिये चारोधाम के पुण्य जैसा था..नालायक सहतू को ढर्रे पर लाने के लिए महंगू ने हर वह प्रयत्न किया जो एक बाप कर सकता है..पर स्वभाव की प्राकृतिक अवस्था यह है कि वह बदलती नही..'कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नही होती' ऐसे ही नही कहा गया था..सहतू को न सुधरना था न सुधरा..बड़े बुजुर्गों ने सलाह दी..'बैल कितना भी विगड़ैल हो जुआठा गले में पड़ते ही सुधर जाता है..विवाह कर दो इसका '..

विवाह तो कर दिया पर 'राम लगाइन जोड़ी, एक आंधर एक कोढ़ी ' सहतू की बहुरिया सहतू से बीस निकली..महंगू की दुलहिन जब कलह और किचकिच से परेशान हो जातीं तो खाना-पीना छोड़ देतीं..पर महंगू से कुछ न कहतीं..वे जानती थीं कि महंगू वचन से बंधे हैं.. वचन के चलते प्राण जाने तक का पौराणिक आख्यान उन्होंने संत महात्मा के मुह से सुन रखा था..वे सिहर जाती.. खाना-पानी छोड़ना ही आसान लगता..ऐसे में सहतू कि नन्ही विटिया सलोनी जब बड़ी अम्मा की मनुहार करने आती तो जहां महंगू की दुलहिन उसे दुलराते हुये खाने आ जातीं वहीं सहतू की दुलहिन जल भुन जातीं..तुरंत विटिया खींच ले जाती और पता नही क्या क्या बड़बड़ाती..

महंगू धर्म संकट में थे..एक तरफ अपनी पत्नी और बच्चा..दूसरी तरफ बाप को दिया हुआ वचन..घर का कलह जब जीवन समाप्त करने की हद तक पहुँच गया तो महंगू ने सहतू के लिये अलग मकान बनवा दिया.. पर सलोनी का मन नये घर में न लगता..बिना बड़ी अम्मा के उसे नींद नही आती..बिना बड़े बप्पा के साथ खाये उसका पेट नही भरता..सलोनी के बार बार महंगू के घर आ जाने से भी लड़ाई झगड़ा होता पर अलग अलग घर हो जाने से तुरंत शांत भी हो जाता..

खेती-पाती ठीक थी..गुजारा ठीक से चल रहा था..भले ही सहतू के घर का भी खर्चा उन्हें उठाना पड़ता पर घर में किसी चीज की परेशानी नही थी..सलोनी के बड़ी होने पर महंगू ने उसके विवाह की चर्चा पत्नी से किया..पत्नी ने अड़ोस-पड़ोस में किया..पड़ोसी के घर में सुख आ जाने से अगले पड़ोसी के घर की शान्ति खदबदाने लगती है..कुछ कुछ बदचलन होने लगती है..पड़ोसियों ने महंगू की दुलहिन का कान भरना शुरू किया..'पूरी जिन्दगी का ठेका ले रखे हो तुम लोग , तुम्हारे भी एक लड़का है,कुछ उसके लिये भी सोचा है कि नही '

महंगू की दुलहिन पर असर हुआ..उन्होंने विरोध भी किया पर महंगू को विवाह करना था तो किया..सलोनी को विदा करके वे बहुत संतुष्ट नजर आ रहे थे..'मरने पर बाप से नजर मिला सकूंगा अब ' वे लोगों से गाहे बगाहे कहते नजर आते..महंगू की दुलहिन जब कभी खर्चे का रोना लेकर बैठतीं और सलोनी के बियाह में हुये खर्चे का जिकर कर बैठतीं..महंगू उन्हें समझाते..

"कन्या दान से बड़ा कोई दान नही होता पागली..तुमने तो लड़की पैदा ही नही की तो हम यह दान कैसे कर पाते..हमें सहतू और उनकी दुलहिन का एहसान मानना चाहिए "

सबकुछ बहुत ठीक चल रहा था कि एक दिन सहतू दोनों परानी आये..

"मेरा खेत अलग कर दो..!" सहतू रूखे स्वर में बोला..

"पर हुआ क्या..अलग करने की क्या जरुरत आन पड़ी..?"

"बेचना है.."

महंगू सन्न रह गये..

"भैया मकान मैने बनवा दिया, विटिया मैने व्याह दी..घर खर्च मैं देता ही हूँ..अब कौन सा खर्चा आन पड़ा.. पुरखों का खेत बेचना इज्जत गंवाने जैसा होता है भाई.."
महंगू ने समझाने का प्रयास किया..

सहतू दोनों परानी को न समझना था न समझे..बात बात में बात बढ़ गयी ..महंगू ने फिर कहा..

"होली आ रही है..सलोनी और उसके दुल्हे को पहली बार घर आना है..होली बीत जाय..वे लोग आकर लौट जायं फिर कर लेना बंटवारा " महंगू ने अन्तिम तर्क दिया..

"खबरदार जो सलोनी को लाने का नाम लिया..उसे लाओ तो अपने बेटे का मरा मुह देखो..हमारी बेटी है हम लायेंगे"

सहतू के ऐसा कहते ही महंगू अचेत होते होते बचे..बंटवारा हो गया..

महंगू जब अकेले होते तो बड़बड़ाते..'बापू माफ कर देना मुझे.. नही सम्हाल पाया सहतुआ को..और रोने लगते..महंगू की दुलहिन को दया आती पर वे भी समझा नही पातीं..

आज होली थी..महंगू उदास बैठे थे..डरते डरते आयीं..

"चलो एक गुझिया ही खा लो..दिन चढ़ आया है..बहू भी बिना खाये पिये बैठी है..होली का दिन है..उपास ठीक नही "

महंगू मन कर उठे..हाथ पैर धुला..चौके पर बैठकर पहला कौर ही तोड़ा था कि फोन की घण्टी बजी..

"हलो..!"

"बापू मैं सलोनी..!"

हाथ का कौर छूट गया..बदन कांप उठा..गला भर आया..किसी तरह भरे गले से बोला महंगू..

"हां बोल विटिया.. सहतुआ लेने नही गया तुम्हें..? "

"बापू तुम्हें कहती हूँ बापू..वो क्यों आयेंगे..अम्मा का फोन आया था कि वे शराब पिये कहीं पड़े हैं तुम चली आओ..ननदें ताना मार रही हैं कि पहली होली में ही इन्हें लेने कोई नही आया.."
कहते कहते फफक पड़ी सलोनी..

"रो मत बेटा आ रहा हूँ मैं.. तेरा बापू अभी जिन्दा है "

महंगू हाथ धुलकर कुर्ता पहनने लगे..महंगू की दुलहिन को कसम याद आयी..कांप उठीं वे..

"हमारे बेटे से ज्यादा हो गयी सलोनी..?" महंगू की दुलहिन ने सलोनी को लाने का विरोध किया..

"बहुत कथा भागवत सुनती हो तुम..भगवान को भी मानती हो कि नही "

"अब इसमें भगवान कहां से आ गये..?"

"तुम्हीं तो कहती हो कि भगवान जो करता है अच्छा ही करता है..जन्म मृत्यु उसी के हाथ में है"

"तो..?"

"तो यह कि भगवान सलोनी की अम्मा के कहने में नही चलते..यदि सलोनी नही आयी तो दो जानें अवश्य जायेंगी..उधर सलोनी की इधर मेरी "

महंगू के दुलहिन की जिद ढीली पड़ गयी..महंगू ने छड़ी उठायी और विदा कराने चल पड़े..चेहरे पर संतुष्टि थी..सारा छोभ गायब था..सारी उदासी उड़न छू..चेहरे पर अलौकिक दमक थी

राजेश ओझा