Indradhanushi naaven in Hindi Short Stories by RITA SHEKHAR MADHU books and stories PDF | इंद्रधनुषी नावें

Featured Books
Categories
Share

इंद्रधनुषी नावें

इंद्रधनुषी नावें

“ज्योंहि आसमान में बादल छाए, पवन भी आह्लादित हो गई| उसने शीतलता की चादर ओढ़ ली और मंद मंद बहकर प्रकृति के साथ कदमताल मिलाकर थिरकने लगी| उसे मालूम है कि अब सभी बच्चे, युवा और वृद्ध निकलकर बाहर आएँगे और उनके कदम भी थिरकने लगेंगे| मयूरों को भी ईश्वर ने इस सुहाने मौसम का स्वागत करने के लिए बहुरंगी पँख दिये हैं | उन पंखों को फैलाकर वह स्वयं नाचता है और देखने वालों के मन में भी थिरकन भर देता है| आखिर ऐसा क्या है इस मौसम में कि मन इंद्रधनुष छूने को बेताब हो जाता है...” सुहानी लिखती जा रही थी| बारिश की सारी बूँदों को वह कागज के पन्नों पर मोतियों की तरह सजा देना चाहती थी|

“ओ सुहानी, बदली छाते ही तेरे कलम की स्याही भी पन्नों पर फुहार छोड़ने लगती है| बाहर तो आओ, “ चचेरी बहन वर्षा की आवाज सुनकर सुहानी ने कलम नीचे रख दिया और बाहर आ गई| हरे पत्तों का एक ही दिशा में मुड़ जाना, बिजली के तार पर चिड़ियों का झूला झूलना, यह सब मनोरम दृष्य उत्पन्न कर रहे थे| सूरज महाराज भी आराम फरमाने अपनी पलंग पर दुबक चुके थे|

“वर्षा, मन करता है कि मैं भी इसी पवन के साथ उड़ती जाऊँ, उड़ती जाऊँ...जाकर पर्वतों के शिखर को छू लूँ, नदियों के जल से किलोल करूँ और....”

“बस, बस, सुहानी तेरे सपने बहुत लम्बी चौड़ी उड़ान भरते हैं| अब जरा धरती पर आ जा और सारे कपड़े समेट ले नहीं तो बारिश महारानी की कृपा हो गई तो ये कपड़े भी तेरी तरह ही मौसम का आनंद लेने लगेंगे|”कहती हुई वर्षा कपड़े उठाने लगी| बूँदों का पदार्पण हो चुका था| सुहानी का दिल चाह रहा था कि वह भी भीगे किन्तय कंधों पर रखे सूखे कपड़ों की ढेर ने उसे ऐसा करने से मना कर दिया| दोनों बहनें छत से नीचे आ गईं| तबतक झमाझम बारिश होने लगी| कमरे में बैठ दोनों बतियाती जा रही थीं|

“देख सुहानी, बाहर जलधार तैयार हो गई| चल न, वहाँ नाव तैराते हैं|”

“ठीक है”, कहकर दोनों ने नाव बनानी शुरू कर दिया| कॉपियों के पन्ने फटने लगे| वर्षा ने दो नाव बनाए| सुहानी ने ढेर सारे बनाए| सारे नाव के रंग और डिजाइन अलग अलग थे| साधारण नाव, झोपड़ी वाली नाव, संयुक्त नाव...सबके सब अलग रंगों वाली| दोनों अपनी अपनी नाव लेकर बाहर आ गईं| बाहर बरामदे में बैठी दादी भी बारिश का आनंद ले रही थी| दोनों पोतियों के हाथ में नौकाएँ देखकर मुस्कुराती हुई बोलीं,”आज देखते हैं किसकी नौका आगे निकलती है|”

पहले वर्षा ने अपनी दोनों नौकाएँ रखीं| उसके बाद सुहानी ने एक एक करके अपने नाव को रखने शुरू किया| बैगनी, नीली , आसमानी, हरी, पीली, नारंगी, लाल...जलधार में नौकाएँ इंद्धनुष लेकर बह चलीं| खिलखिलाती हुई सुहानी तालियाँ बजाने लगी|

“देखो दादी, मैंने इंद्रधनुष को धरती पर उतार दिया “, दादी भी हँसने लगीं पर एकाएक उदास हो गईं|

“लड़की, इस तरह से सपनों की दुनिया में न रहा कर, ऐसे में ईश्वर भी उसकी परीक्षा लेने को तत्पर हो जाता है|”

“ऐसा नहीं होता दादी, सपने देखना और उसे पूरा करना हमारे हाथ में ही होता है|”

“ईश्वर की कृपा सदैव बनी रहे...अब जरा रसोई में जाकर एक कप कड़क चाय तो बना ला|”

“ठीक है दादी, चाय भी इंद्रधनुषी स्वाद वाले पिलाऊँगी,” कह वह रसोई की ओर चल दी|

***

बचपन बीता, सुहानी की पढ़ाई आगे बढ़ी| समय पर वर्षा की शादी हो गईं| सुहानी उच्च शिक्षा के लिए आगे बढ़ गई| अपने अपने जीवन में व्यस्त होकर संपर्क सूत्र में थोड़ी थोड़ी ढील भी होने लगी| वर्षा विदेश में बस चुकी थी| करीब पन्द्रह वर्षों बाद वापस अपने देश आना उसे रोमांचित कर रहा था| अपने देश आकर सबसे पहले वह सुहानी से मिलना चाहती थी| वर्षा की कल्पना में सुहानी का इंद्रधनुषी घर झिलमिला रहा था| संयोग भी ऐसा हुआ कि सुहानी के घर जाते हुए आसमान पर बादल थे| लग रहा था जैसे कुछ देर में बारिश भी शुरू होने वाली थी|

“आज फिर से अपना बचपन जीना है, ढेर सी नौकाएँ बनानी हैं आज, रंग बिरंगी,” सोचती हुई वर्षा सुहानी के घर पहुँच गई| सुहानी ने हँसकर वर्षा का स्वागत किया और गले लग गई| दो मिनटों में ही वर्षा की आँखों ने पूरे घर का मुआयना कर लिया| बहुत ही साधारण साज सज्जा, मेज पर किताबों की ढेर अवश्य थी| बारिश आरम्भ हो चुकी थी|

“सुहानी , चल न, नाव बनाते हैं| मुझे बचपन याद आ रहा| आज फिर से हम ढेर सारी नाव बनाएँगे”

“चलो”कहकर सुहानी ने रंग बिरंगे पन्नों वाली कॉपी वर्षा के सामने रख दी| वर्षा ने आज सभी रंग के नाव बनाए| सुहानी बस देखती रही|

“तू भी बना न सुहानी”

“तू बना ले तब बनाती हूँ| तब तक चाय और पकौड़ियाँ बना लाती हूँ|”

सुहानी रसोई की ओर चली गई| वर्षा ने नाव बनाना छोड़कर सुहानी की मेज से एक डायरी उठा ली और पढ़ने लगी| सुहानी की उदास सी फीकी हँसी में कुछ तो ऐसा था जो वह बताना नहीं चाहती थी| डायरी पलटते हुए वह सब कुछ समझ चुकी थी| तब तक सुहानी के आने की आहट सुनकर उसने डायरी रख दी और वापस नाव बनाने लगी|

“सुहानी, मैंने नाव बना लिए, अब तू बना| बाहर जलधार तैयार है| हम अपनी नाव तैराएँगे|”

सुहानी ने एक नाव बनाई सफेद पन्ने से|

“यह क्या सुहानी, इद्रधनुषी नावें सजाने वाली सुहानी ने आज सफेद नाव बनाई है, ऐसा क्यों भला”

“वर्षा, ये सारे रंग जीवन के रंग हैं उसमें ईश्वर ने सफेद रंग भी शामिल किया है| सफेद रंग सबसे सुन्दर...सातों रंग इसी सफेद की देन हैं या ये समझो कि सात रंग मिलकर सफेद हो जाते हैं|”

“क्या बात है सुहानी, कौन था वह जो हमारी चुलबुली बहन को सफेद थमा गया, बता न सुहानी, तुम्हारा विवाह न करने के फैसले से मन को खटका अवश्य हो गया था पर उस फैसले में सातों रंग गायब हो चुके हैं यह नहीं सोच पाई थी|”

“वर्षा, पढ़ाई के दौरान ही उससे मिली थी| मेरे सातों रंग कुलाँचें भरने लगे थे| एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे हमदोनों| पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने सेना में भरती होने का मन बनाया| उसकी देशभक्ति का रंग मुझपर भी सवार था| एक दिन प्लेन क्रैश....और”, सुहानी की आँखों से बहते आँसुओं ने बारिश को भी मात दे दी| शायद सुहानी को भी वर्षा के कंधौं की ही तलाश थी| वह उन कँधों पर सिर टिकाए रोती रही| कुछ देर में दोनों ओर बारिश थम चुकी थी| अपनी आँखें पोंछकर सुहानी मुस्कुरा उठी|

“चल, नाव तैराते हैं|’

“नहीं सुहानी, सफेद नाव न तैराने दूँगी| तुम्हें उसके रंग को फीका नहीं होने देना है| इतना तो समझ चुकी हूँ कि तू समाज सेवा की ओर बढ़ चली है पर सफेद मन लिये समाज में कैसे रंग बिखेर पाएगी| जीवन में हम जिन रंगों को शिद्दत से चाहते हैं वह मिल ही जाएँ, यह जरूरी तो नहीं होता| जीवन की सार्थकता तो इसी में है कि हम अपने सपनों को जीवित रखें| पहले कोई दूसरे रंग की नाव बना , फिर बाहर चलते हैं|

थोड़ी देर में वर्षा की इंद्रधनुषी नावों के पीछे सुहानी की केसरिया, सफेद और हरी नौका बह चली| सुहानी के चेहरे पर देशभक्ति से सराबोर सामाजिक उत्थान के लिए कार्य करने का दृढ़ निश्चय जगमगा रहा था|

मौलिक, स्वरचित

ऋता शेखर ‘मधु’