भाग 5
इधर उस दिन जब सत्य देव भाभी के कहने पर आम के बाग में टिकोले लाने पहुंचा, तो उसनेे देखा पेड़ के नीचे तीन साधु बैठे हुए थे। उनको देख कर सत्य देव अचकचा सा गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये कहां से आ गए..? ये बाग उसकी तो है नही। वो तो दूसरे के बाग में टिकोले तोड़ने आया है। ऐसा न हो ये साधु उसे डांटे। सत्य देव की घबराहट को साधुओं ने भांप लिया। उन्होंने बड़े प्यार भरी नजरों से सत्य देव की ओर देखा और कहा, "बालक..! इधर आओ बालक..! डरो मत ..। पहले तो सत्य देव डरा। फिर उन साधुओं की आखों की आंखों में हिचकिचाहट के साथ सत्य देव थोड़ा आगे बढ़ा। साधुओं ने फिर कहा, "आओ बालक घबराओ नहीं। हमारे पास आओ। अब थोड़ी हिम्मत करके आनंद आगे बढ़ा। क्या बेटा क्यूं आए हो?
सत्य देव ने संकोच पूर्वक कहा, "भाभी ने टिकोले तोड़ने भेजा है।"
उन्होंने हंस कर फिर पूछा, "बेटा ..! टिकोले का क्या करोगे बच्चा …?"
सत्तू चाहता तो नही था कि अपने घर की विपन्नता के बारे में किसी अजनबी को बताए। पर ना बताने में डर लग रहा था कि कही ये बाग के मालिक के परिचित तो नही हैं। इसलिए मजबूरी में बताना पड़ा। वो बोला, "भौजी.. चटनी बनाएगी। आज घर में सिर्फ भात बना है। उसके साथ खाने को घर में और कुछ नहीं है।" सत्य देव ये बताते हुए झेंप रहा था। वो एक अनजान व्यक्ति से कैसे अपने घर की बात बता सकता है..? पर उन साधुओं के चेहरे का तेज और वाणी का ओज उसे इतना प्रभावित कर गया की उससे झूठ नही बोला गया। खैर इसमें इतनी कोई बड़ी बात भी नही थी। उसके गांव में दो चार घर छोड़ कर बाकी सभी की स्थिति भी लगभग उसके घर से ही मिलती जुलती थी। कुछ ही गिने चुने हुए घर ऐसे थे जिनमे रोज दाल चावल, रोटी सब्जी बनता हो।
सत्तू की बात सुन कर अब तो वो तीनो एक दूसरे को देख कर हंसने लगे। भोले सत्तू को लगा की शायद ये बाबा लोग उसकी गरीबी का मखौल बना रहे। वो उदास स्वर में साधुओं से बोला, "क्या हुआ बाबा..? आप हंस क्यों रहे हैं…?
उन्होंने प्यार से सत्य देव को अपने पास बुला कर बैठा लिया और कहने लगे, "बेटा ये दुनिया में माया की हीं महिमा है कि कोई भी व्यक्ति कभी भी तृप्त नही होता है । उन्हें कोई ना कोई कमी सदैव ही रहती है। एक इच्छा मन में जागृत होती है, और उसके पूरे होने के पहले ही पुनः मन में दूसरी इच्छा जाग्रत हो जाती है। इच्छाएं, कामनाएं अनंत है। इसलिए बच्चा ईश्वर की शरण में चले आओ। हमें देखो हमारी कोई आवश्यकता नहीं जो मिल गया खा लिया ना मिला तो भी कोई दुख नहीं। बच्चा ईश्वर की शरण में ही मुक्ति मिलती है। ये परम आनंद का मार्ग हो। जिसका सुख अकल्पनीय है। बच्चा तू हमारे साथ चल। हम तुम्हे मुक्ति का मार्ग दिखाएंगे। जिस पर चल कर असीम सुख मिलेगा।
दर असल उन तीनो को बड़े महाराज की। सेवा करनी पड़ती थी। उन्हें तलाश थी एक ऐसे लड़के की कि जो उनके भी काम कर दे साथ ही महाराज जी की भी सेवा करे। आज सत्तू को देख कर उन्हे लगा कि शायद ये हमारे काम आ जाए। अगर इसे किसी तरह साथ चलने को राजी कर लिया तो फिर उम्र भर आराम ही आराम मिलेगा। बस .. वो अपनी कोशिश में लग गए।
साधुओं की बात सत्तू को प्रभावित कर गई थी। उनकी बातों सत्तू के किशोर मन पर बड़ा असर डाला। वो अपनी गरीबी, अपने घर की तंग हाली से उकता गया था। काम से कम वो चला जायेगा तो घर में एक व्यक्ति का खाना खर्चा तो बचेगा।
पर इतना बड़ा फैसला लेते हुए वो अंदर से डर भी रहा था। मोह और वात्सल्य का जो धागा उसका घर से माई से बंधा था वो इतना कच्चा भी तो ना था। बड़ा भाई रामू तो घर और माई से दूर शहर में था। वो ही तो माई की रीढ़ था। क्या उसके जाने से माई टूट नही जायेगी.? क्या माई उसके बिना रह पाएगी..? इसी उथल पुथल में वो था की क्या करे..?
सत्तू के सामने दो राहें थी। एक बिलकुल अनजान जिस पर उसे चलने के लिए ये साधु लोग बोल रहे थे। दूसरा जिस पर वो अभी चल रहा था। और हर दिन अभावों से जूझ रहा था। सत्य देव ने अपनी शंका का समाधान करना चाहा। वो साधु लोगों से बोला,
"पर बाबा ..! माई मेरे लिए रोएगी। वो मेरे बिना रह नहीं पाएगी।"
सत्य देव की बातो को सुन कर हंसते हुए बाबा ने उसकी शंका का समाधान किया और कहा,
"बेटा…! माई भी तबईश्वर की हीं संतान है। तू तो जो सबका पिता है उसकी शरण में जाएगा तो माई क्यों रोएगी.? तू तो प्रभु की सेवा में जा रहा है। अब तू ही बता प्रभु से बड़ा कोई होता है.…?"
उन तीनों ने काफी देर तक सत्य देव को समझाया। एक ही घंटे में उसके मन-मस्तिष्क पर इतना असर हुआ कि वो उनके साथ हो लिया। सत्तू की बुद्धि उन साधुओं के अनुसार ही सोच रही थी। कुछ समय पहले जिन्हे वो जनता तक नही था। उन्ही के साथ वो अपना पिछला जीवन भुला कर चल पड़ा। अब उसे नई राह बुला रही थी। वो नए जीवन के आकर्षण में बंधा सम्मोहित सा चल पड़ा। वो भूल गया कि किस काम के लिए घर से निकला था ..?
कुछ हीं देर पश्चात वो शहर पहुंच गए और तीनों साधुओं ने भूखे सत्तू को दुकान पर बिठाकर कि अच्छे से खूब समोसा, जलेबी, रसगुल्ला आदि खिलाया पिलाया। इसके बाद वो सत्तू को लेकर अपने आश्रम के लिए चल पड़े।
इसके बाद अपने आश्रम में ले जा कर मुख्य महंत से मिलवाया। तीनो में से एक साधु ने बड़े महाराज जी से परिचय करवाते हुए कहा,
"पुत्र..! इनका चरण स्पर्श करो। यही बड़े महाराज जी हैं।"
सत्तू ने आगे बढ़ कर बड़े महाराज का चरण स्पर्श किया।
बड़े महाराज जी ने सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।
वो भी सत्य देव को देख कर प्रसन्न हुए।
मुख्य महंत की अनुभवी दृष्टि से सत्तू का अतीत छिप नही सका। किशोरा अवस्था को पार करते बालक का शारीरिक सौष्ठव जैसा होना चाहिए उससे थोड़ा दबा सा था आनंद का कद। रूखे बाल, सूखे होठ इस बात की गवाही दे रहे थे की उनमें तेल लंबे समय से नही पड़ा है। धंसा हुआ पेट अपना हाल व्यक्त कर रहा था कि उसमे यदा कदा ही दोनो जून भोजन जाता होगा। इस अभाव ग्रस्त बालक को देख मुख्य महंत को अपना बिता कल याद आ गया। वो सत्तू को देख द्रवित हो गए। उसे चरणों से उठा कर गले लगा लिया। बोले, "बालक तुम्हारा इस आश्रम और नए जीवन में स्वागत है। तुम्हें अभी इस जीवन में ढलना पड़ेगा। अगर तुम इस परीक्षा को पास कर गए तभी तुम्हें दीक्षा दी जाएगी।
इसके बाद वो सत्तू को एक वर्ष तक कठिन दिनचर्या का आदि बनाया गया। खेत खलिहान में खटने वाले सत्तू के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं था ये सब कुछ करना।
जब वो सारे आचार विचार आश्रम के सीख गया उस के उपरांत दीक्षा देने की तैयारी करवाने लगे। एक शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में सत्य देव को दीक्षा दी गई। गंगा घाट पर पहुंचकर सत्तू का मुंडन और तर्पण करवा कर उसका अपने ही हाथों पिंड दान करवाया गया। तत्पश्चात सत्य देव का दीक्षा संस्कार करवाया और अपनी पंथ में शामिल कर लिया। अब सत्तू का नया जन्म हो चुका था। वो अब सत्तू से सत्यानंद जी महाराज बन चुका था
सत्तू का सिर्फ नाम और पहचान ही नही बदली थी। बल्कि इस नए नाम के साथ हीं सत्तू का जीवन बदल चुका था। वो तीनों उसे आश्रम में ले गए और बड़े महाराज जी की सेवा में लगा दिया। उन तीनों को हीं अपने लिए एक सहयोगी की आवश्यकता थी। अब वो महाराज की सेवा से मुक्त हो गये थे। वो सब ढलती उम्र के थे जो ज्यादा काम नही कर पाते थे। सत्य देव जो किशोर वय को त्याग कर युवा बनने को आतुर था। वो सूरज की भांति अपने उगने की कोमल लालिमा को त्याग कर आसमान पर चढ़ कर चमकने को तैयार था। वो अपनी पूरी ऊर्जा के साथ नए जीवन की हर चुनौतियों को जीतने को पूरे दम खम के साथ खड़ा था।
सत्तू के लिए ये सभी काम खेत में हल चलाने आदि से आसान ही था। वो बड़े मनोयोग से भाग भाग कर उनकी सेवा करने को तत्पर रहता। वो उनके ही नींद सोया करता, उन्हीं की नींद जागा करता। जब मुख्य महंत बड़े महाराज जी लेटते तो उनके पांव दबाता और जब वो सो जाते तब वो वहीं उनके चरणों के पास सो जाया करता। उनके जागने की आहट सुनते ही उनकी खड़ाऊ ले कर पैरों के पास रख देता। फिर तो पूरा दिन उनकी परछाई बना साथ साथ लगा रहता।
जिस सत्तू को अपने पूर्व के जीवन में दाल, चावल, रोटी, सब्जी, चारों चीजें कभी कभी ही मिलती थी खाने को। उसके पूर्व के जीवन में अभाव ही अभाव था । बड़े महाराज जी शुद्ध देसी घी का बना सात्विक भोजन करते थे। फल फूल, और मेवे से उनका जलपान होता था। वो अपने साथ सत्यानंद को भी बिठा लेते। इतना स्वादिष्ट भोजन तो सत्तू ने शादी के भोज में भी कभी नही किया था। उसे सेवा के बदले अच्छा खाना और शिक्षा मिलती।
समय के साथ सत्य देव निखरता गया। रूखे केश अब सुगंधित तेल से चमकते रहते। गेंहुआ रंग अच्छे खान पान से पौष्टिकता पा कर उज्जवल हो गया था। परिश्रम से उसका बदन और भी गठीला हो गया था।
सत्य देव दिखने में बेहद खूबसूरत था उज्जवल दमकती काया और चौड़े माथे पर जब वह तिलक लगाता तो सुंदरता देखते ही बनती। अपनी सेवा भाव से वह सबका चहेता बन गया। पूरे आश्रम में सब उससे प्रभावित थे। योग ध्यान और कठिन दिनचर्या से उसका शारीरिक सौष्ठव निखर कर सामने आया। अब वो महाराज जी का सब कुछ था। जिस माया को छोड़कर वह संन्यासी बनने आया था उसी ने उसे से फिर जकड़ लिया।अब बड़े महाराज जी को सत्य देव में अपना पुत्र नज़र आता। वो मन ही मन सोचते की अगर मेरा पुत्र भी होता तो शायद सत्यानंद जितनी मेरी सेवा नही करता। बड़े महाराज जी अब सोचते कि सत्तू ही मेरा शिष्य पुत्र सब कुछ ही तो है। पूरा आश्रम भले ही सत्तू को सत्यानंद कहता था। पर बड़े महाराज जी उसे प्यार से सत्तू ही कहते थे। वो उसे अपना पुत्र मानते। यही लगाव उनको सत्तू के लिए ज्यादा से ज्यादा करने को प्रेरित करता। जिस माया मोह को त्याग के लिए उन्होंने अपना घर परिवार छोड़ा था। अब जीवन के आखिरी पड़ाव में उसी मोह माया से पुनः ग्रसित हो रहे थे। अपने प्यारे शिष्य के लिए जितना भी हो सकता था चढ़ावा और धन संग्रहित करना चाहते।
अपनी सेवा से सत्तू बड़े महाराज जी को आह्लादित किये रहता। दोनों के ही दिल में एक दूसरे के लिए अपार श्रद्धा और प्यार पनप चुका था।
समय बीतता गया और बड़े महाराज जी अब चला चली की अवस्था में पहुंच गए थे। खुद से उठाना बैठना, खाना पीना, नहाना धोना सब बंद हो गया था। सभी बातों के लिए वो सत्यानंद पर निर्भर हो गए थे। पर सत्तू को इसमें जरा सी भी परेशानी नही थी। उसे अपने पिता की तो याद नही थी, वो कैसे थे..? बड़े महाराज जी में ही पिता की छवि नजर आती थी। उनकी अशक्त काया हर वक्त सेवा चाहती और सत्य देव बड़े ही निष्ठा पूर्वक पिता की तरह उनकी सेवा करता। आश्रम अब और भी बड़ा हो गया था। साथ ही उसकी संपत्ति भी।
अपना अंत समय देखकर बड़े महाराज जी ने एक दिन सत्यानंद को अपने पास बुलाया और बड़े प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए लड़खड़ाती आवाज में बोले,,
"पुत्र…! मैंने जो कुछ अर्जित किया है, वह तुम्हें सौपना चाहता हूं। हम वैसे है तो संन्यासी पर हमारी भी परंपरा है अपने मठ और गद्दी को दूसरे मठ और संप्रदाय की तुलना में सम्पन्न और प्रभावशाली बनाने की। अब मैं तुम्हे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता हूं। मुझे विश्वास है कि तुम इसकी गौरव और प्रतिष्ठा को बहुत आगे बढ़ाओगे।"
सत्यानंद ने भावुक होकर बड़े महाराज जी के हाथों को अपने हाथों में थाम लिया और रूंधे स्वर में बोला, "नहीं…! महाराज आप ठीक हो जाओगे। अपनी छाया से मुझे वंचित ना करो। मैं अकेला सब कुछ नही कर पाऊंगा। मुझे आपके साथ की आवश्यकता होगी।"
धीरे से मुस्कुरा कर महाराज जी ने सत्य देव के माथे पर हाथ फेरा और कहा,
"बालक…! जो भी इस दुनिया में आता है उसे जाना भी होता है। यही सृष्टि का नियम है।
अब मेरी आत्मा के शरीर बदलने का वक्त आ गया है। मेरा शरीर नष्ट होगा आत्मा नही। मैं जाने के बाद भी तुम्हारे आस पास ही रहूंगा। तुम मुझे महसूस करोगे।
अब मेरे चलने का वक्त आ गया अब तुम इस आश्रम को संभालना।"
और फिर बड़े महाराज जी की आंखें सदैव के लिए बंद हो गई। कुछ दिन तो सत्यानंद बड़े महाराज जी के जाने से सब कुछ से विरक्त रहा। उसे बार बार बड़े महाराज की बातें याद आती।
पर उनका क्रिया कर्म बीतने के कुछ दिन बाद सत्यानंद ने खुद को संभाला। बड़े महाराज जी का जाना उसके लिए किसी सदमे से कम नहीं था। पिता तुल्य प्यार मिला था उसे उनसे। पर उसे आश्रम के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभानी थी। इस कारण खुद को संभालना जरूरी था।
अब पूरे आश्रम का कर्ताधर्ता अब सत्यानंद था। उसने अपने जीवन में बहुत आभार देखे थे। अब वह हर सुख पा लेना चाहता था। आश्रम बहुत बड़ा नहीं था परंतु इतना चढ़ावा चढ़ जाता था कि आराम से गुजारा हो सके और कुछ बचाया भी जा सके।