पूर्णता की चाहत रही अधूरी
लाजपत राय गर्ग
ग्यारहवाँ अध्याय
दीपावली का त्योहार आ रहा था। वरिष्ठ अधिकारियों की कृपादृष्टि बनी रहे, इसलिये कनिष्ठ अधिकारी एवं कर्मचारी इस अवसर पर कोई-न-कोई उपहार उन्हें देते हैं। इस अवसर पर यह भी ध्यान रखा जाता है कि कौन-सा अधिकारी वरिष्ठता क्रम के अतिरिक्त कितने महत्वपूर्ण पद पर पदस्थ है। इन्हें दीवाली के उपहार इनके अपने व्यक्तित्व के कारण नहीं बल्कि जिस पद पर वे बैठे होते हैं, उस पद के कारण मिलते हैं। कुछ ऐसे अधिकारी भी होते हैं, जिनके साथ सर्विस के दौरान व्यक्तिगत सम्बन्ध बन जाते हैं। वे किसी भी पद पर हों, उनको दीवाली पर जाकर मिलना अच्छा लगता है। हरीश का बतौर ज़िला इंचार्ज यह प्रथम अवसर था कि उसे अपने वरिष्ठ अधिकारियों को दीवाली उपहार देने जाना था। वह सोच रहा था कि किन-किन अधिकारियों के पास जाना अत्यावश्यक है। स्थानीय प्रशासन में तो डी. सी. तथा एस. पी. के पास ही जाना था और इनके पास तो दीवाली वाले दिन भी ज़ाया जा सकता था, किन्तु चण्डीगढ़ वाले अधिकारियों के पास तो पहले जाना ही ठीक रहेगा। मैडम मीनाक्षी को तो उसे मिलना ही था। अतः दीवाली से चार दिन पहले रविवार को उसने यह काम निपटाना उचित समझा। तदनुसार उसने मीनाक्षी को फ़ोन करके रविवार को अपने आने की सूचना दी।
हरीश ने सोचा था कि मैडम के पास आधा घंटा लगाकर चण्डीगढ़ चला जाऊँगा और सात- आठ बजे तक वापस आ जाऊँगा। इसलिये वह घर से दोपहर तीन बजे निकला। जब हरीश मीनाक्षी के यहाँ पहुँचा तो वह उसी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसने सुरभि और बेटियों का कुशलक्षेम जाना, फिर नौकर को चाय बनाने के लिये बोला। चाय पीने के बाद जब हरीश जाने के लिये उठने लगा तो मीनाक्षी ने कहा - ‘इतनी भी क्या जल्दी है, थोड़ी देर बैठो। तुम्हारे साथ कुछ विशेष बातें करनी हैं।’
‘मैम, मुझे चण्डीगढ़ भी जाना है, मैं लेट हो जाऊँगा।’
मीनाक्षी ने अधिकार जताते हुए कहा - ‘तुम्हें घर से जल्दी निकलना चाहिए था।’
‘मैंने सोचा, कमिश्नर और सेक्रेटरी साहब को दोपहर में डिस्टर्व करना ठीक नहीं रहेगा। इसलिये थोड़ा लेट निकला।’
‘मेरे लिये तो खुला टाइम रखकर प्लान करना था। खैर, कोई बात नहीं। बैठो थोड़ी देर।’
इतने मनुहार से किये गये आग्रह को नकारना सम्भव नहीं था। हरीश के बैठने के बाद मीनाक्षी कुछ देर सोचती रही और वह प्रतीक्षा करता रहा। कुछ मिनटों बाद मीनाक्षी बोली - ‘हरीश, जो बात तुम्हें बताने जा रही हूँ, वह मैंने अभी तक किसी अन्य को नहीं बतायी, यहाँ तक कि मौसी को भी नहीं।...... हरीश, मैंने विवाह करने का मन बना लिया है।’
‘बधाई हो मैम। कौन है वह खुशनसीब?’
‘वे मिलिटरी में कैप्टन थे, अब ठेकेदारी करते हैं। यहाँ अकेले रहते हैं। उनके पेरेंट्स का हिमाचल बॉर्डर पर शिवालिक की पहाड़ियों की तलहटी में एक फ़ॉर्महाउस है, जिसकी सीमाओं पर आकाश से बातें करते यूकेलिप्टस के पेड़ लगे हैं। रात के समय पेड़ों के झूमते पत्तों की आवाज़ों से वन-संगीत की प्रतीति होती है। वहाँ ग्राम्य परिवेश में शहरी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। वहाँ के सौन्दर्य और रमणीयता का वर्णन शब्दों में करना मुश्किल है, फिर भी कोशिश करती हूँ। फ़ॉर्म के बीचोंबीच दक्षिण-पूर्व के प्राचीन मन्दिरों की वास्तुशैली की तर्ज़ पर बना अष्टकोणीय घर ऐसे लगता है जैसे किसी ऋषि-मुनि का आश्रम हो। रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों से घिरा घर सदा महकता रहता है। घर के बीच में खुला आँगन है जिसे सूर्य, चाँद-तारे समयानुसार अपने आलोक से आलोकित रखते हैं। आँगन के एक ओर रसोई है तो बाक़ी तीनों ओर बेडरूम बने हुए हैं। सारे घर की बाहरी व भीतरी दीवारों पर गोबर का लेप किया हुआ है और छतों के ऊपर छटियों तथा पराली से गुम्बद बनाये हुए हैं। गोबर का लेप होने से मक्खी-मच्छर का नामोनिशान नहीं है। टॉयलेट आधे कवर्ड और आधे ओपन टू स्काई हैं। देसी नस्ल की कुछ गायें रखी हुई हैं, जिनके गोबर और मूत्र से गोबर गैस प्लांट चलता है तथा फ़ार्मिंग के लिये खाद और खाना आदि बनाने के लिये गैस के अतिरिक्त बिजली की आपूर्ति भी उसी प्लांट से हो जाती है। अन्न, दालें तथा सब्ज़ियाँ उगाने के लिये किसी भी तरह की रासायनिक खाद या कीटनाशक दवाइयों का उपयोग नहीं किया जाता। दूध, दही, मक्खन हर समय प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है। गौओं के शेड को देखकर पूछे गये मेरे एक सवाल के जवाब में कैप्टन साहब के पिताजी ने बताया था कि जर्सी नस्ल की गौओं की बनिस्बत देसी गौओं की गर्मी-सर्दी सहन करने की शक्ति बहुत अधिक होती है। जहाँ जर्सी गौओं के लिये गर्मियों में पंखों या कूलरों की आवश्यकता पड़ती है, वहीं ये गर्मियों में पचास डिग्री और सर्दियों में शून्य डिग्री तापमान तक में आराम से रह सकतीं हैं। प्रकृति की गोद में बने किसी भी प्रकार के प्रदूषण से रहित फ़ॉर्महाउस में रहते हुए दिव्यता का आभास होता है। ऐसा रमणीय स्थल मैंने तो आज तक कहीं और देखा नहीं। वहाँ जाकर मेरा तो मन-मयूर नाच उठा। वहाँ रहते हुए मेरा मन तो करने लगा था कि समय ठहर जाये और मुझे कहीं और न जाना पड़े। नौकरी का झँझट न होता तो मैं तो वहीं रहना पसन्द करती। कैप्टन साहब के पेरेंट्स का स्वभाव बहुत ही सहज, सरल व निश्छल है। वे परोपकारी जीव हैं। हरीश, फ़ॉर्म के साथ लगती एक बरसाती नदी है। जब इसमें पानी नहीं होता तो स्थानीय गरीब तबके के लोग इसकी रेत में सोने के कण ढूँढा करते हैं। कैप्टन साहब के पिताजी उन लोगों से इस तरह इकट्ठा किया हुआ सोना बाज़ार भाव पर ख़रीद कर उन्हें बाज़ार के शोषण से बचाने का नेक काम करते हैं। उन्होंने फ़ॉर्म पर एक छोटा-सा डिस्टिलेशन प्लांट भी लगाया हुआ है, जिसके द्वारा यूकेलिप्टस के पत्तों का तेल निकालते हैं। अपने फ़ॉर्म के ही नहीं, आसपास के इलाक़े के यूकेलिप्टस के पत्ते इकट्ठे करवा कर प्रोसेसिंग करवाते हैं। इस प्रकार से सैंकड़ों स्थानीय लोगों को रोज़गार मुहैया करवा रहे हैं। यूकेलिप्टस ऑयल जोड़ों के दर्द में बहुत लाभकारी होता है। बाम, विक्स जैसी दवाइयाँ बनाने वाली कम्पनियों का यह रॉ मेटीरियल है।’
‘मैम, फ़ॉर्महाउस और वहाँ के जीवन का भावों से भरपूर तथा जीवंत वर्णन सुनकर मुझे तो लगता है कि आप तो अच्छी-खासी कविता भी लिख सकती हैं।’
‘हरीश, जब कोई वस्तु, स्थान या व्यक्ति मन को भाने लगता है तो भाव स्वत: ही शब्दों में व्यक्त होने लगते हैं, किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती।’
‘वाह! क्या बात कही है।........ लेकिन मैम, वहाँ के जीवन का आनन्द तो आपके हिस्से में राशन की तरह ही आ पायेगा, वार-त्योहार पर या अधिक-से-अधिक वीकेंड में, क्योंकि कैप्टन साहब तो अम्बाला में ही रहते हैं।’
‘हाँ हरीश, जीवन में जो वस्तु कम मिलती है, उसके प्रति तो आकर्षण अधिक रहता ही है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि जो चीज़ अधिक अच्छी लगती है, प्राय: वह कम ही मिल पाती है।’
‘मैम, मैं बहुत खुश हूँ यह सब सुनकर। अब विवाह का प्रोग्राम भी जल्दी ही फ़ाइनल कर लो। शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए।’
‘सोच रही हूँ कि दीवाली के बाद यह काम भी कर ही लूँ। एक-आध दिन में कैप्टन साहब को घर बुलाकर मौसी से भी मिलवाना चाहती हूँ, क्योंकि मेरे लिये तो वही सब कुछ हैं, उनका आशीर्वाद तो चाहिए ना?’
‘मैम, मेरी अग्रिम बधाई तथा शुभकामनाएँ स्वीकार करें। मेरे लायक़ जो भी काम हो, नि:संकोच बताना। अब मुझे आज्ञा दें।’
‘हरीश, महकमे में तुम ही मेरे सबसे करीबी हो। तुम्हें नहीं बताऊँगी तो किसको बताऊँगी?’
‘धन्यवाद मैम।’
‘हरीश, यदि मिलते-मिलाते लेट हो जाओ तो चण्डीगढ़ में ही कहीं रुक जाना, रात को सफ़र करने का रिस्क मत उठाना। हालात ठीक नहीं हैं। कौन-सा दिन होता है जब मिलिटेंटों के जुल्मों, उनके द्वारा की गयी वारदातों की ख़बरें अख़बार में न हों। ऐसे में रात में सात-साढ़े सात बजे के बाद पंजाब एरिया से गुजरना सेफ़ नहीं।’
‘थैंक्यू मैम।’
.......
कमिश्नर और सेक्रेटरी तथा एक-दो अफ़सरों को मिलने के बाद हरीश ने घड़ी देखी तो साढ़े आठ बज रहे थे। दुविधा आन खड़ी हुई कि क्या किया जाये। मैडम द्वारा व्यक्त आशंका भी उचित लगी और बच्चों के पास लौटने को भी मन कर रहा था। मन ने तर्क दिया कि सिर्फ़ लालडू तक की ही तो बात है, इतना रास्ता आधे घंटे में पार हो जायेगा। और वह मन का तर्क मानकर तथा हिम्मत-सी करके चण्डीगढ़ से चल पड़ा। जीरकपुर तक सब कुछ सामान्य-सा था, किन्तु उससे आगे तो सड़क पर सन्नाटा पसरा हुआ था। प्राइवेट वाहनों (कारों) की तो बात ही क्या, ट्रक आदि बड़ी गाड़ियाँ भी इक्का-दुक्का ही दिखायी पड़ती थीं। जन-जीवन की सुरक्षा की दृष्टि से सरकार ने रात के आठ बजे के बाद बसों के आवागमन पर तो रोक ही लगा रखी थी। अतः जीरकपुर से निकलने से लेकर सैदपुर बैरियर पहुँचने तक हरीश का हृदय धक-धक ही करता रहा। उसने मन-ही-मन कई बार हनुमान चालीसा का जाप किया। बैरियर आने पर उसकी साँस में साँस आयी। जब घर पहुँचा तो सुरभि जिसके लिये उसने रात को सफ़र करने का रिस्क उठाया था, ने भी उलाहना दिया कि इतनी रात को दहशत वाले इलाक़े में सफ़र करने की क्या आवश्यकता थी, सुबह आ जाना था।
क्रमश..