एक अप्रेषित-पत्र
महेन्द्र भीष्म
मुन्शीजी
मुन्शी गनेशी प्रसाद को विवाह किये बीस बरस बीत चुके हैं अौर इस कस्बाई शहर में आए सत्रह बरस। तब यहाँ नयी—नयी तहसील खुली थी। पास पड़ोस के गाँव के हाई स्कूल, इण्टर पास अन्य बेरोजगारों की तरह उसने भी जानकी बाबू का बस्ता पकड़ लिया था।
गनेशी प्रसाद की माँ उनके बचपन में ही भगवान को प्यारी हो गयीं थीं अौर पिता उनके व्याह के दूसरे साल। गाँव की बची—खुची जमीन और मकान बेचकर, जो जमा पूँजी बनी उससे गनेशी प्रसाद ने अपनी छोटी बहन का विवाह खाते—पीते घर में कर दिया अौर अपनी पत्नी को गाँव से इस कस्बाई शहर में ले आये।
धीरे—धीरे जानकी बाबू का नाम नामी गिरामी वकीलों में शुमार हो गया अौर मुन्शी गनेशी प्रसाद उनके मुँहबोले, रात—दिन के ‘मुन्शीजी' हो गये। मुन्सिफी आनेे से पहले ही मुन्शी गनेशी प्रसाद ने पक्का मकान बनवा लिया था। मुन्सिफी आ जाने से गनेशी प्रसाद इतने व्यस्त अौर नामी मुन्शी हो गये कि धीरे—धीरे लोग गनेशी प्रसाद का नाम ही भूलते गये अौर वे मुन्शीजी के नाम से जाने, जाने लगे अौर उम्र में तेरह बरस छोटी उनकी धर्मपत्नी मुन्शियाइन कहलायी जाने लगीं।
शुरू में, जब विवाह के तीन चार साल बीत जाने के बाद भी मुन्शियाइन के पैर भारी नहीं हुए, तब मुन्शी जी को टोका—टाकी सुननी पड़ गयी।
पहले तो वह जवानी के जोश में तीसरे की दखलंदाजी नहीं चाहते थे, पर जैसे—जैसे बरस पर बरस आगे खिसकते चले गये, मुन्शी जी को संतान के ताने वाकई खलने लगे अौर उनसे ज्यादा मुन्शियाइन दुःखी हो उठतीं।
नीम—हकीम, मुल्ला—मौलवी यहाँ तक कि झाड़ने—फूँकने वालों से भी जब बात नहीं बनी, तब उन्होंने अपनी शादी की दसवीं अौर अपनी पैतीसवीं साल गिरह से पत्नी सहित आध्यात्म का जो रास्ता पकड़ा उसमें अभी तक निर्बाधरूप से दोनों गतिमान हैं।
मुन्शी जी, घर में दो प्राणियों के लिए इतना कुछ कमा लेते थे कि बहुत कुछ खर्च कर लेने के बाद भी काफी कुछ बच जाता था। अपनी इस बढ़ती बचत को वे गरीब मुवक्किलों या आध्यात्मिक रुचि वाले लोगों पर व्यय कर देते। जाने अनजाने ज्ञानी व्यक्ति को आतिथ्य सत्कार देकर उपकृत होते, ज्ञान की बातें उससे सुनते अौर उसे अपनी सुनाते। धीरे—धीरे मुन्शियाइन भी पति की इस रुचि में रुचि लेने लगीं।
यदि उनका मुवक्किल या मिलने वाला आध्यात्मिक अौर ऊपर से जाति का पण्डित निकल आता, तब तो मुन्शी जी उसको न केवल अपने घर भोजन पर आमंत्रित करते; बल्कि पति—पत्नी दोनों उसकी सेवा—सत्कार कर स्वयं को धन्य मानते। साथ ही मुन्शीजी अतिथि महोदय के कार्य या मुकदमे की पैरवी पूरे मनोयोग से करते।
‘अंधा क्या चाहे दो आँखें।' एक तो मुकदमें की अच्छी पैरोकारी ऊपर से रुकने—खाने की चोखी व्यवस्था, सो ज्यादातर उनके नियमित मुवक्किल मुन्शीजी की आवश्यकता से अधिक झूठी—सच्ची तारीफ करते, उनकी ज्ञान भरी कच्ची—पक्की बातें ऐसे मनोयोग से सुनते मानों मुन्शी जी के समान धरा पर दूसरा ज्ञानी न हो। मुन्शी जी अपनी तारीफ सुन सुनकर मन ही मन प्रफुल्लित होते अौर भाँग खाने के बाद सोने से पहले तक यही सोचते रहते कि वह कहाँ इस तहसील—कचहरी के जंजालों में फँसे हुए हैं, उन्हें तो किसी बड़ी धार्मिक संस्था या आश्रम में होना चाहिए था, जहाँ उन्हें सुनने हजारों हजार की भीड़ नित्य प्रति जुटती रहती।
मुन्शी जी के नये—नये आध्यात्मिक मित्र बने थे जटाजूटधारी पैंतीस वर्षीय रमाकांत बाबू, जिन्होंने पत्नी की बेवफाई से साधु वेष धारण कर लिया था।
स्वर्गीय माता—पिता के इकलौते पुत्र होने के कारण जमीन जायदाद में अपना नाम चढ़वाने की गरज से तहसील के चक्कर काटते अकस्मात् रमाकांत बाबू मुन्शीजी से टकरा गये।
मुन्शी जी युवा, ब्रह्मचारी, जटाजूटधारी रमाकांत बाबू से प्रथम भेंट में ही प्रभावित हो गये अौर जब उन्हें यह पता चला कि रमाकांत बाबू बनारस, हरिद्वार, मथुरा महीनों रहकर आए हैं अौर उच्च ब्राह्मण कुल में जन्में हैं, तब मुन्शी जी ने अपने भाग्य को सराहा कि ईश्वर ने उनके ऊपर कितना बड़ा उपकार किया, जो ऐसे दिव्य महापुरुष से उन्हें मिला दिया।
मुन्शीजी, रमाकांत बाबू को अपने घर आमंत्रित कर ले आए। उनकी खूब सेवा—शुश्रुषा की। यद्यपि रमाकांत बाबू मुन्शी जी से दसेक बरस छोटे थे, परन्तु रमाकांत बाबू से मुन्शीजी और मुन्शियाइन इस कदर प्रभावित हुए कि वे दोनों उन्हें ‘स्वामी जी' कहकर सम्बोधित करने लगे और उनका आदर—सम्मान साधु संतों की भाँति करने लगे थे।
एक बात अौर जो मुन्शीजी को स्वामीजी के अंदर भाती थी, वह थी उनकी तरह नित्य भाँग का सेवन करना।
स्वामीजी अपनी पैतृक जायदाद बेच—बाच कर बनारस या मथुरा में आश्रम खोलना चाहते थे। दो—एक बार मुन्शीजी का आतिथ्य भी वह स्वीकार कर चुके थे अौर मुन्शीजी के साथ भाँग के नशे में आध्यात्मपरक लम्बी—लम्बी परिचर्चा, सत्संग अौर अंत में स्त्री जाति की बेवफाई की तमाम दलीलें।
स्वामीजी को अपनी पत्नी से तिरस्कार, धोखा अौर बेवफाई मिली थी, जिसे वे जी—जान से चाहते थे, वह उन्हीं के एक परम मित्र के साथ भाग गयी थी, जिस कारण स्वामी रमाकांत बाबू को सम्पूर्ण स्त्री जाति बेवफा नजर आती थीं।
स्वामीजी की काली दाढ़ी, काले लम्बे जटाजूट, कसरती शरीर अौर बड़ी—बड़ी आँखें उन्हें सिद्ध महात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए पर्याप्त थी।
पैतृक सम्पत्ति में स्वामीजी का नाम चढ़वाने से लेकर सम्पत्ति के विक्रय तक में मुन्शीजी ने एड़ी—चोटी का पसीना एक कर दिया अौर निःस्वार्थ भाव से बिना एक पैसा स्वयं लिया अौर न ही अन्यत्र खर्च होने दिया अौर सारा कार्य कुछ ही दिनों में करा दिया।
कालान्तर में, स्वामीजी ने अपना आश्रम मथुरा में बना लिया, जहाँ से वह मुन्शीजी को लम्बे पत्र लिखते उनकी ज्ञान भरी बातों की प्रशंसा अपने पत्र में करते न अघाते अौर अंत में पति—पत्नी दोनों को मथुरा घूम जाने के लिए अवश्य लिखते।
मुन्शीजी, स्वामीजी के पत्र का जवाब अपनी ज्ञानभरी बातों से खूब लम्बा चौड़ा पत्र लिखकर देते, लिखे पत्र को दसियों बार पढ़ते, जो खटकता उसे काट या संशोधित करते फिर पत्र पोस्ट कर देते।
मुन्शीजी की भाँति मुन्शियाइन भी आध्यात्मपरक थीं, परन्तु उम्र के अंतर के हिसाब से उनमें बालपन और स्त्रियोचित गुणों का बराबर समावेश था। उन्हें मुन्शीजी हर मामले में अच्छे लगते, सिवाय इसके कि मुन्शीजी को पति धर्म निभाने के लिए उन्हें स्वयं पहल करनी पड़ती थी। यद्यपि पति धर्म का पालन कर मुन्शी जी उसकी कामना पूर्ति करते, पर यही एक बात मुन्शियाइन को तकलीफ दे जाती कि पहल उसे ही करनी पड़ती थी।
शेष सब ठीक चल रहा था। संतान—सुख को धीरे—धीरे वह भी भूलने लग गयी थी अौर स्वयं को दोषी मानते हुए पति को महान एवं परमेश्वर मानती थी, जो इस बाबत उससे कभी भी कुछ नहीं कहते थे।
स्वामी रमाकांत बाबू से मिले दो वर्ष व्यतीत हो गए। स्वामीजी से मुन्शीजी का पत्र व्यवहार बराबर चलता रहा। एक दिन स्वामीजी के पत्र द्वारा जब यह सूचना मिली कि स्वामीजी मथुरा से बनारस जाने के पहले एक दिन के लिए मुन्शी जी के यहाँ ठहरेंगे मुन्शीजी प्रसन्नता से भर उठे। खुशी से उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, जो मिलता उसे स्वामीजी के बारे में खूब बढ़ाचढ़ाकर बताते, उनके आगमन की सूचना देते.... आनन—फानन में उन्होंने अपने घर के हाते में स्वामीजी के प्रवचन कराने का निर्णय भी ले लिया। कचहरी से भाग कर घर आये। मुन्शियाइन को स्वामीजी के आगमन की सूचना ऐसे दी मानों साक्षात् भगवान उनके घर में पधार रहे हों।
मुन्शियाइन पिछले पन्द्रह दिन से किसी के घर न आने जाने से उकताये बैठी थी। स्वामीजी के आगमन की ख़बर से वह खुश हुए बिना न रहीं। स्वामीजी की ओजपूर्ण वाणी, सुन्दर, स्वस्थ व्यक्तित्व से वह पहले से ही प्रभावित थीं।
मुन्शियाइन स्वामीजी के आगमन और प्रवचन की सूचना स्वयं ही मुहल्ले भर में दे आयी अौर घर की साफ—सफाई में जुट गयी।
रमाकांत बाबू से अब बाल ब्रह्मचारी 108 स्वामी श्री रमाकांतजी महाराज हो चुके स्वामीजी पूर्व निर्धारित तिथि में मुन्शी जी के घर पधारे।
युगल दम्पत्ति ने जी भर कर स्वामीजी का स्वागत सत्कार किया। उसी सायं स्वामीजी का प्रवचन सुनने भक्तगण मुन्शीजी के घर उपस्थित हुए। स्वामीजी की ओजपूर्ण वाणी ने जन समुदाय का मन मोह लिया। स्वामीजी के नये रूप—गुण से रोमांचित पति—पत्नी उनकी मेजबानी कर अपने भाग्य को सराह उठे।
पहला दिन प्रसन्नता लिए सार्थकता पूर्ण बीता।
स्वामीजी एक या दो दिन रुकने का मन बनाकर आये थे, पर मुन्शी और मुन्शियाइन के अगाध प्रेम व आग्रह से एक सप्ताह कब निकल गया, पता नहीं चला। सुबह शाम नदी के किनारे—किनारे दूर—दूर तक टहलना, आध्यात्मिक चर्चा, प्रवचन, सत्संग में दिन व्यतीत हो जाता अौर रात्रि भोजन के बाद मुन्शियाइन द्वारा बनायी भाँग की बर्फी खाने के बाद ज्यों—ज्यों भाँग का नशा बढ़ता मुन्शीजी का आध्यात्मिक ज्ञान स्वामीजी के ज्ञान पर हावी होने लगता। वह स्वामीजी की सुनते कम अपनी ज्यादा सुनाते, उनकी वाणी तभी थमती जब स्वामीजी नींद में खर्राटे लेने लग जाते।
स्वामीजी के तख्त के पास ही बिछी अपनी चारपाई में मुन्शीजी दीन दुनिया से बेख़बर ऐसे सो जाते कि भोर ही उनकी आँखें खुलतीं।
स्वामीजी को आये बारह दिन बीत चुके थे अौर वे कई बार बनारस जाने की अपनी इच्छा मुन्शीजी के समक्ष प्रकट कर चुके थे, परन्तु मुन्शी जी हर बार स्वामी जी से विनयवत् आग्रह करते अौर एक दो दिन अौर रुक जाने की अनुनय, विनय करते.... अौर मारे प्रेम के रोनेे तक लग जाते, तब मुन्शीजी के अगाध प्रेम के वशीभूत हो स्वामीजी तत्क्षण जाने की इच्छा त्याग देते।
मुन्शियाइन जरूर अब कुछ—कुछ ऊब चली थीं, यद्यपि उन्हें स्वामीजी के रहने से किंचित मात्र भी आपत्ति नहीं थी, फिर भी उन्हें पति का स्वामी जी के कमरे में ही सो जाना अच्छा नहीं लगता था, अौर वह अपनी यह शिकायत धीमें अौर सधे शब्दों में मुन्शीजी के समक्ष रख भी चुकी थीं।
मुन्शियाइन मुन्शीजी से उम्र में काफी छोटी अौर सुन्दरता में इक्कीस थी, जहाँ मुन्शीजी के बाल खिचड़ी अौर पेट तोंदीला हो चुका था, वहीं मुन्शियाइन के सिर का एक बाल भी सफेद नहीं हुआ था अौर शरीर भरा हुआ, किन्तु छरहरा था।
गोद में बच्चा न होने के अलावा वह स्त्रियोचित गुणों से परिपूर्ण थी। कोमलता, सुन्दरता अौर नारी हृदय की ढेर सारी भावनाएँ उनके अंदर कूट—कूटकर भरी हुइर्ं थीं। एक कुँवारी आस, कुँवारी चाहत अौर टीस समवेत रूप में उनके नारी मन के किसी कोने में सदैव विद्यमान रहती।
सुबह—सवेरे से ही पति की चाहना मुन्शियाइन के मन में भरने लगी थी। पहले संकेतों में, फिर स्पष्ट शब्दों में मुन्शियाइन ने रात्रि अपने पास सोने के लिए मुन्शीजी से कह दिया। पहले तो मुन्शीजी ने न—नुकर की, स्वामीजी की उपस्थिति का वास्ता दिया, उनके रहने तक रुक जाने का अनुरोध किया, परन्तु मुन्शियाइन, जो दो दिन पूर्व रजस्वला से निवृत्त हुई थी, कतई नहीं मानी। मान भी जाती पर प्रातः स्नान के बाद गीले धुले बालों के बीच धर्मपत्नी का चेहरा, भीगी साड़ी में लिपटा शरीर देख मुन्शीजी अपने आप को रोक न सके अौर पत्नी को आलिंगनबद्ध कर चुहल कर बैठे, जिसने आग में घी का काम किया, जिससे मुन्शियाइन की कामना अौर भड़क उठी।
अन्ततः दोनों पति—पत्नी के मध्य तय हुआ कि रात्रि भोजनोपरांत स्वामीजी के सो जाने के बाद मुन्शीजी छत वाले कमरे में मुन्शियाइन के पास आ जायेंगे, जहाँ पर वह मुन्शीजी की प्रतीक्षा करेगी।
अपरान्ह मुन्शीजी और स्वामीजी के नदी पार बने आश्रम चले जाने के बाद मुन्शियाइन ने अपने पूरे शरीर का देर तक उबटन किया, भली—भाँति पुनः स्नान किया। कई—कई बार दर्पण में अपना चेहरा और शरीर निहार वह रात्रि की कल्पना मात्र से ऐसी पुलकित हो रही थी, जैसे महीनों बाद पति के आने पर पति संसर्ग की इच्छा में व्याकुल किसी स्त्री की होती है।
मुन्शियाइन ने छत के एक कोने में बने एकमात्र कमरे की साफ—सफाई की, पलंग पर नयी चादर, तकियों पर चादर से मिलते—जुलते गिलाफ, कमरे में चंदन की अगरबत्ती सुलगा दी। सारी तैयारी के बाद वह रात्रि का भोजन सायं ही बना लेना चाहती थी। कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन, जो मुन्शीजी को प्रिय थे, बनाने के बाद वह गाय के खोये में भाँग मिलाकर बर्फ़ी बनाने में लगी थी, तभी मुन्शीजी और स्वामीजी वापस आ गये। खोये के साथ कड़ाही में भुन रही भाँग की सुगंध मुन्शी जी के साथ स्वामीजी ने भी महसूस की।
सायं शौच—क्रिया से निवृत्त हो स्नान—ध्यान—संध्या के बाद मुन्शीजी और स्वामीजी को मुन्शियाइन ने बड़े प्रेम से भोजन परोसा।
स्वादिष्ट भोजन पाकर दोनों तृप्त हो अन्दर बैठक में चले गये, जहाँ स्वामी जी और मुन्शीजी की शयन शय्याएँ पास—पास लगीं थीं।
स्वामीजी ने प्लेट पर रखी भाँग की बर्फ़ी का टुकड़ा मुँह में डालने के बाद मुन्शीजी से कल प्रातः की ट्रेन से बनारस प्रस्थान की बात की, जिसे मुन्शीजी ने सहज ही स्वीकार कर ली अौर दूसरी प्लेट पर रखी अपने हिस्से की भाँग की बर्फ़ी खाने लग गये।
मुन्शीजी की रात्रि—योजना से अनभिज्ञ स्वामीजी, मुन्शीजी के एकाएक परिवर्तित व्यवहार से कुछ विचलित हुए। मुन्शीजी से उनकी तबियत के बारे में पूछा। मुन्शीजी ने अपनी व्यग्रता छिपाने का प्रयास करते हुए नींद आने का बहाना किया अौर हल्की—फुल्की चर्चा करने के बाद लेट गये। उत्साह में आकर अपनी प्लेट की शेष बर्फ़ी और स्वामीजी की प्लेट की बची बर्फ़ी भी मुन्शीजी चट कर गये अौर पानी पीने के बाद सोने का उपक्रम—अभिनय करते—करते गहरी नींद में सो गये।
यहाँ मुन्शीजी भाँग की तरंग में जल्दी सो गये, वहाँ मुन्शियाइन घर का शेष कार्य जल्दी—जल्दी निबटाकर, रात्रि भोजन कर ताँबे के कलश में पानी भर, एक प्लेट में भाँग की बर्फ़ी और गिलास लिए छतवाले कमरे में आकर अभिसारिका—सी मुन्शी जी की प्रतीक्षा करने लगी।
रात्रि ग्यारह बजे के आस—पास तक मुन्शीजी को स्वामीजी के सो जाने के बाद आ जाना था। अतः कुछ देर छत पर टहल लेने के बाद थकान मिटाने की गरज से मुन्शियाइन कुछ देर के लिए पलंग पर पति—मिलन की कामना लिए लेट गयी। नींद आँखों से कोसों दूर थी.... ग्यारह बज चुके थे, छत और कमरे की लाइटें वह पहले ही बंद कर चुकी थी। कृष्ण पक्ष चल रहा था, छत पर और कमरे में धुप्प अँधेरा छाया था।
मुन्शीजी की प्रतीक्षा में मुन्शियाइन की व्यग्रता बढ़ती गयी उन्होंने मन बदलने के लिए प्लेट पर रखी भाँग की बर्फ़ी उठाई सूँघी.... गंध अच्छी लगी। पहली बार भाँग की बर्फ़ी के उस टुकड़े को मुँह में रखा स्वाद अच्छा लगा, नाहक ही वह मुन्शीजी को भाँग न खाने के लिए टोकती रहती थी। गिलास में कलश से पानी भर कर पिया.... कुछ नहीं हुआ, कुछ पल बाद पुनः एक टुकड़ा मुँह में डाला.... पानी पिया..... अौर इच्छा हुई। फिर एक टुकड़ा प्लेट से उठाया, मुँह में डाला पहले से स्वाद कुछ अौर भला लगा। पानी पिया.... कुछ देर बाद भाँग का नशा सिर चढ़ बोलने लगा। मीठे—मीठे सपने आने लगे शरीर हल्का अौर हल्का होने लगा.... लगा जैसे वह उड़ने वाली हो.... वह उड़ सकती है, खूब तेज दौड़ भी सकती है.... पल में इधर, पल में उधर। गाँव..... गाँव की अमराई.... अमराई में आम का पेड़ उस पर पड़ा झूला.... सावन का महीना, पेग बढ़ाती वह अौर गाँव की सखियाँ, बचपन की अल्हड़ता, यौवन की उमंग, विवाह..... सुहागरात, पति का उत्साह, जोशीला साथ....। नशे की पिनक..... कुछ पल के लिए टूटी, मुन्शियाइन मुन्शीजी को पास न पाकर बौखलायी। फिर भाँग की तरंग में अपने शरीर से एक—एक वस्त्र स्वयं हटाने लगी.... इस कल्पना के साथ कि वह लेटी है शर्म से अौर मुन्शीजी उतार रहे हैं, अंग वस्त्र उसके।
वह निर्वस्त्र हो चुकी थी, पलंग पर लेटती.... फिर उठती.... दरवाजे तक जाती.... निर्वस्त्र ही अँधेरी छत पर टहल कर वापस कमरे में आ जाती.. मुन्शी जी नहीं आये.... रात्रि के बारह बज कर कुछ मिनट हो चुके थे।
इधर मुन्शीजी गहरी नींद में खर्राटें लेने में लगे थे। भाँग के भरपूर सेवन के कारण वह सूर्योदय के पूर्व जागने वाले नहीं थे।
रात्रि करीब साढ़े बारह बजे स्वामीजी की नींद उचटी... गला सूख रहा था.... पानी पीने की तीव्र इच्छा हुई.... गिलास में पानी नहीं था.... पानी ताँबे के बड़े लोटे में भी नहीं था.... ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था...... स्वामी जी कुछ देर सोचते रहे क्या करें? ..... गला सूख रहा था, पानी पिये बिना नींद पुनः आने से रही, वह लेट गये.... कुछ देर बाद पुनः प्यास ने जोर पकड़ा..... उठकर बैठ गये..... अंदर पानी लेने कैसे जाएँ ? मुन्शीजी को हिलाया डुलाया नहीं जगे।
प्यास बढ़ रही थी। भाँग का सुरूर बना हुआ था। सिर भारी हो रहा था। आँखों में बोझिलता थी। पानी मिले, फिर गहरी नींद में सो जाने की इच्छा थी।
स्वामीजी उठकर खड़े हुए.... धोती ठीक की, दाँये कान में जनेऊ डाल..... अँधेरे में ही आँगन तक आ गये। इतने दिनों में यह अंदाज तो हो ही गया था कि रसोई व घिनौची किधर है।
घिनौची में रखे कलशे से सावधानीपूर्वक बिना आहट किये पानी से गिलास भरा अौर पी गये.... तीन गिलास पानी पीने के बाद ही प्यास बुझी। गिलास में पानी भरकर वह बैठक में आ गये, गिलास स्टूल पर रख दिया अौर प्लेट से ढँक दिया। मुन्शीजी की ओर देखा वह गहरी नींद में घोड़े बेचकर सो रहे थे।
लघुशंका के बाद स्वामीजी पलंग पर लेट कर सोने का प्रयास करने लगे..... पर प्यास—पानी अौर पानी की खोज ने उनकी नींद उचटा दी थी, कुछ देर पलंग पर ही करवटें बदलते रहे.... नींद उचट चुकी थी.... क्या करें ? दीवार घड़ी पर दृष्टि डाली, रात्रि के एक बजने को थे।
विधि का विधान, स्वामीजी आँगन के साथ लगे जीने की सीढ़ियों से छत पर आ गये। आकाश तारों से भरा था, उनके अधिनायक राकेश दूर—दूर तक दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। फलस्वरूप रात की आभा लुप्त—प्रायः थी। कार्तिक मास का कृष्ण—पक्ष अपने अन्तिम दिनों में था। हवा में ठंड की पकड़ मजबूत हो चली थी। स्वामीजी ने अपने दोनों हाथ परस्पर बाँध लिए। कंधे गले तक उचकाए, फिर सिकोड़े ठंड की फुरफुरी मुँह से निकली, छत का एक चक्कर लगाया। दूसरा चक्कर पूरा न कर सके कमरे से अचानक एक स्याह आकृति बाहर उभरी, वह कुछ समझते—सँभलते इसके पहले ही उस आकृति ने उन्हें अपने आगोश में भरते हुए.... लगभग बलपूर्वक कमरे के अंदर एक झटके में स्वयं के साथ फेंक दिया।
स्वामीजी एकाएक हुए इस आक्रमण से भयभीत हो उठे, चिल्लाने को हुए पर आवाज गले में घुट कर रह गयी। भय से या अौर किसी कारण से यह वह समझ नहीं सके, या भाँग की तरंग ने उन्हें समझने—बूझने का अवसर इतनी जल्दी नहीं दिया.....।
कुछ पल बाद पलंग पर असहाय से गिरे पड़े स्वामीजी ने इतना समझ लिया था कि उन्हें कमरे के अंदर खींच कर पटकने वाली आकृति किसी स्त्री का निर्वस्त्र भरा—पूरा शरीर है। यह स्त्री कौन हो सकती है.... कोई प्रेतात्मा.... काँप गये भय से..... स्वामीजी..... या फिर..... या फिर...... नहीं ..... मुन्शीजी की साध्वी धर्मपत्नी..... सैकड़ों बिजलियाँ एक साथ गिरीं..... घोर पाप..... कदापि नहीं..... स्वामी जी उठने को हुए..... पर उठ न सके..... सँभलने को हुए..... सँभल न सके..... कुछ कहने को हुए.... कह न सके।
धर्म—अधर्म, ज्ञान—अज्ञान, तर्क—कुतर्क, के सैकड़ों तानाें—बानों में स्वामी रमाकांतजी महाराज ऐसे उलझे कि कुछ पल में ही वह मात्र एक पुरुष शरीर बन कर रह गये। भाँग के नशे में तरंगित यौवन की मादकता में चूर.... मन की कामुकता से पूर्ण.... वर्षों से अतृप्त नारी देह.... बंजर कहलायी जाने वाली सूखी धरती सिंचित हो उठी.... लबालब, तृप्त, सम्पूर्णता को प्राप्त, बेसुध—सी गहरी निद्रा में डूबने से पूर्व मुन्शियाइन के मन—मस्तिष्क में स्वामीजी के मन में आये सारे विचार आन्दोलित करने को हुए थे, पर उन सब भव—बाधाओं के पार वह सिर्फ पुरुष की पौरुषता अौर स्त्री के स्त्रीत्व रूप में एकाकार, प्रकृतिस्थ हो समाधिस्थ हो चुकी थी।
सुबह भोर मुन्शीजी जागे..... स्वामीजी शय्या पर नहीं थे..... शौच क्रिया में संलग्न होंगे, सोच, मुन्शीजी झटपट छत की ओर भागे..... छत के कोनों में भोर के उजास के साथ रात की कालिमा छिपी हुई थी.... कमरे के दरवाजे भिड़े हुए थे.... मुन्शीजी ने दरवाजा खोला...... पलंग का दृश्य देख.... वह ठगे से रह गए। कमरे की खुली खिड़की से भोर के उजास का टुकड़ा उनकी गौरवर्ण धर्मपत्नी की निर्वस्त्र देह की चमक को बढ़ा रहा था... जैसे.......जैसे, कोई जीवन अभी—अभी छूकर निकल गया हो। तमाम अज्ञात बातों से अनभिज्ञ मुन्शीजी कमरे के द्वार अौर खिड़की बंद कर नींद में डूबी अपनी धर्मपत्नी की अर्द्ध—मूर्छित—सी देह को अपने आलिंगन में कसने लगे।
..... दूर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर कंधे पर झोला लटकाए....अर्द्ध—विक्षिप्त—से स्वामीजी के कदम पटरियों पर रेंग रही टे्रन की ओर बढ़ रहे थे।
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