उपन्यास
सोलहवाँ साल
रामगोपाल भावुक
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भाग छह -
बात मम्मी को पता चल गयी। अब मैं जब भी घर से निकलती तो मम्मी का संबाद सुनाई पढ़ता-‘‘अरे ! कहाँ चल दी, अब तू बड़ी हो गयी है। ये नारी जीवन ही बड़ा खराब है फूंक-फूंक कर पाँव रखने पड़ते हैं । मेरी बातें समझ आ रही हैं या नहीं?
उनकी ये बातें मुझे घर में रुक जाने के लिए विवश कर देतीं किन्तु सोचना अपनी गति से प्रवाहित रहता- मेरे सामने ही मेरा नाम श्यामपट पर लिखा हो गया। मैं देख भी नहीं पाई। मेरे कथन पर किसी ने विश्वास नहीं किया। सत्य, असत्य घोषित हो गया। कौन करेगा अब सत्य पर विश्वास ? किन्तु सत्य पर रहने के कारण मेरा मनोबल यथावत है । .........और यह सत्य की विजय ही है ।
उस दिन मेरे सौगन्ध खा कर कहने पर मम्मी को भी विश्वास नहीं हुआ। इससे मेरे रहन- सहन में बनावटीपन आ गया। जो बात मम्मी को अच्छी लगती वही दिखाने का प्रयास करती। अपने को मम्मी के अनुसार ढालने में लग गयी किन्तु मेरा मन आवारा लड़कों की तरह यहाँ वहाँ भटकता रहा।
मम्मी मुझसे भी पूजा पाठ करने की ओर ध्यान देने की कहतीं । मैं तो कह देती- ‘‘मम्मी मेरा तो ऐसी पूजा पाठ करने में विश्वास नहीं हैं।’’
मेरी बात सुनके मम्मी ने प्रश्न किया -‘‘क्यों ?
मैंने कह दिया-‘‘मम्मी मेरा अपना सेाच है, मन जिन बातों से सहमत न हो और जो बातें मात्र कल्पना सी लगें तर्क से परे और गपोड़ियों के किस्से सरीके लगें। ऐसी बेतुकी बातों पर भला विश्वास कैसे हो ?
मम्मी बोलीं-‘‘मेरी यह समझ में नहीं आता कि तेरा विश्वास किस बात में है ?’’
‘‘मम्मी जी मैं यह मानती हूँ रामचरित मानस हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। आप कहती हैं तो मैं कल से ही इसके एक दो दोहे अर्थ सहित पढना शुरू कर दूँगी।’’
यह सुनकर मम्मी को लगा होगा-चलो इसकी पूजा करना तो शुरू हुई, धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। मैंने रामचरित मानस को अर्थ सहित पढ़ना शुरू किया । जिस पंक्ति में अटक जाती मम्मी से पूछने में संकोच न करती ।
मम्मी मिडिल तक पढ़ी लिखी हैं उन्होंने रामचरित मानस का भी अच्छी तरह अभ्यास किया है। इसी कारण वे इसमें मुझे संन्तुष्ट करने का प्रयास करतीं हैं।
एक दिन की बात है- मम्मी मेरी मानस में रुचि उत्पन्न करने के लिए सीता जी के जन्म की कथा सुनाने लगीं-‘‘बरसात के प्रारम्भ में जब कृषि कार्य शुरू किया जाता था, उस समय सबसे पहले राजा को हल चलाकर कार्य प्रारम्भ कराना पड़ता था। इस क्रम में एक बार राजा जनक हल चला रहे थे। कहते हैं हल चलाते समय सीता जी प्राप्त हुई थीं। इसी कारण उन्हें धरती की पुत्री कहा जाता है ।’’
मम्मी की यह बात सुनकर मैंने पूछा-‘‘सीता जी की उत्पत्ति ऐसे? मैं कुछ समझी नहीं ।’’
मम्मी ने मुझे समझाने का प्रयास किया-‘‘बिटिया,सीता जी को जन्म के तुरंत बाद वहाँ किसी ऐसे माता पिता ने डाल दिया होगा जो कि बेटी के ज्नम को दुर्भाग्य समझते होगे। वैसे भी हम सब भी तो धरती माता के पुत्र पुत्रियाँ हैं।’’
मैं उनकी बात गुनने लगी। अब मैं जीवन के तथ्य खोजने मानस का अध्ययन करने लगी। इधर कोई प्रसंग आ जाता, घर के काम काज में मम्मी मानस की पंक्तियों का मुहावरे की तरह उपयोग करती-‘‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।’’रामचरित मानस की ऐसी अनेक पंक्तियाँ यथा समय प्रसंगवश उनके मुँह से निकलती रहती थीं।
इसीलिए आज पढ़ाई के अतिरिक्त रामचरित मानस से मेरा जुड़ाव यथावत बना हुआ है।
एक दिन मैंने मम्मी से कहा-‘‘तुलसी बाबा का दृष्टिकोण हम नारियों के प्रति ठीक नहीं रहा।’’
मेरा यह प्रश्न सुनकर मम्मी एक क्षण तक गंभीर होकर मेरी ओर देखती रहीं फिर बोली-‘‘तुलसी का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था। ऐसे नक्षत्र में उत्पन्न बालक को माता पिता द्वारा त्याग देने की परंपरा है। जन्मते ही माता पिता ने जिसका परित्याग कर दिया हो, युवावस्था में पत्नी रत्नावली ने शब्द बाणों से उन्हें पृथक हो जाने को विवश कर दिया। अरे ! किसी कवि लेखक के जीवन का प्रभाव उनकी कृति पर आये बिना कैसे रह सकता है ? आदमी जो भोगता है वही तो अनुभव करता है ?
मैं भी जो अनुभव कर रही हूँ वही तो सुना पा रही हूँ ! उन दिनों अंजना की याद आने लगी थी। सुम्मी से कापी लेने के बहाने घर से निकली और अंजना के यहाँ पहुँच गई।
उसने मुझे अनायास बहुत दिनों बाद देखा तो प्रसन्नता से उसका चेहरा फैल गया, बोली ‘‘अरे आओ सुगंधा ! तुम तो इन दिनों ईद का चाँद हो रही हो।’’
मुझे कहना पड़ा,‘‘पढ़ाई लिखाई फिर घर का काम काज, निकल ही नहीं पाती।’’
‘‘सुना है, विद्यालय में तुम्हारे खूब मजे छक रहे हैं।’’
‘‘कैसे मजे ?’’
‘‘जिससे दिल लग जाये, उसका नाम तो दिल के कोने में छिपा कर रखना ही पड़ता है।’’
‘‘मैं समझी नहीं, पहेलियाँ न बुझा, साफ-साफ कह।’’
‘‘तू तो ऐसे बन रही है जैसे कुछ जानती ही न हो। फिर बता तूने बोर्ड पर लिखने बाले का नाम क्यों छिपाया ? बतला देती सर को उसका नाम।’’
‘‘किसका नाम ?’’
‘‘मोहन का और किसका ? वही तो है तेरा बचपन का चहेता है। याद कर, उस दिन मैं उसका नाम प्रसंगवश ही ले रही थी तो तुझे बड़ा बुरा लगा था! अब?’’
मैंने सच्चाई जानने के लिये उससे पूछा-‘‘तो क्या मोहन ने मेरा नाम ष्श्यामपट पर लिखा था ?’’
वह बोली-‘‘तू तो ऐसी पूछ रही है, जैसे तुझे सच में कुछ पता ही न हो!’’
मैंने बात जानना चाही-‘‘तुझे कैसे पता चला कि .....?’’
‘‘ अरे ! हमने पढ़ना छोड़ दिया तो क्या हुआ? मोहन स्कूल की सारी बातंे यहाँ आकर बतला जाता है ।’’
‘‘यार अंजना, मैं तो निरी बुद्धू हूँ मुझे आज पता चल पाया है कि वह मोहन की करतूत थी । ’’
‘‘पता तो चल गया अब ? ’’
मैंने अंजना को समझाया-‘‘वह तेरा चहेता है, तेरे यहाँ आता रहता है। उससे कहना, अब उसने ऐसी कोई हरकत की तो ठीक नहीं होगा।’’
‘‘तू क्या कर लेगी उसका ? अरे ! हम लडकियों की जात ही ऐसी है, चुप रहने में ही फायदा है।’’
यह बात कह कर तू उसका पक्ष ले रही है।’’मैंने अंजना को समझाया।
‘‘किसका पक्ष ले रही है सुगंधा ?’’
प्रश्न पूछते हुए मोहन हमारे पास आकर खड़ा हो गया । मोहन के प्रश्न का उत्तर अंजना ने दिया-‘‘सुगंधा किसका पक्ष लेती है ?’’
उसकी यह बात सुनकर मुझ उसे डाँटना पड़ा-‘‘अंजना, तेरा यह आचरण ठीक नहीं है । मैं इसका पक्ष क्यों लेने लगी ।’’
यह सुनकर वह बोला -‘‘तो तुमने उस दिन सर से मेरा नाम क्यों नहीं लिया ?’’
‘‘मैं अब समझी, मोहन तू समझ रहा है कि मैंने तुझे नाम लिखते हुए देख लिया था। मूर्ख, तूने कैसे जान लिया कि मैं देख लेती और तेरा नाम न लेती! अब कल जब मैं स्कूल जाऊँगी, सर से तेरा नाम ले दूँगी ।’’
वह रिरियाने लगा-‘‘सुगंधा, ऐसा न करना। मैं तेरे हाथ जोडता हूँ। पैर पड़ता हूँ। गोविन्द सर बडे खराब शिक्षक हैं। कहो इसी बात को लेकर वे मुझे स्कूल से मेरी छुटटी करा दें । यह बात उनकी इज्जत की बात बन गई है ।’’
‘‘ये सब बातें जानते हुए भी तू ऐसी बातें कर रहा है ।....... फिर तो तुझ से बड़ा कोई मूर्ख नहीं है ।’’
‘‘सुगंधा, तुझे जो कहना है कह ले, किन्तु अब ऐसी गल्ती आगे से कभी नहीं होगी ।’’
अंजना ने उसका पक्ष लिया-‘‘सुगंधा तू बडी निर्दयी है । इस बेचारे की जिन्दगी खराब करके तुझे क्या मिलेगा? यार जो बात आई गई हो गई, उसके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ रही है ?’’
‘‘अंजना, इसलिए तेरे यहाँ आने का मन नहीं करता। अब बता तेरी मम्मी कहाँ है जरा उनसे बातें करूँ ।’’
यह सुनकर तो वह आँखों में आँसू भरते हुए बोली-‘‘मैं तेरे पैर पड़ती हूँ । अब ऐसी गलती नहीं होगी।’’
‘‘तुम्हारी मम्मी गई कहाँ हैं ?’’
‘‘वे खेत पर गाय के लिए चारा लेने गई हैं ।’’
‘‘वाह ! वाह ! अंजना, इधर मम्मी चारा लेने जाती हैं उधर तू इन लोगों के साथ.... ।’’
यह सुनकर वह मोहन से बोली -‘‘मोहन तू जा यहाँ से। अब मेरे घर न आया कर, समझे।’’
यह सुनकर मोहन क्रोध में आते हुए उसके घर से पैर पटकते हुए निकला -‘‘हाँऽ ऽ ठीक है, नहीं आया करूँगाऽ ऽ ।’’
मोहन के जाने के मैं भी उसके घर से चली आई थी। घर आकर मन ने निर्णय लिया- अब मैं अपने घर में ही रहा करूँगी ।
इस सोच के ही मैं अध्ययन में जुट सकी। कक्षा में भी पढ़ने- लिखने में व्यस्त रहती । कक्षा के छात्र मुझसे पढ़ंकू कह कर सम्बोधित करने लगे । कक्षा में सर कोई प्रश्न पूछते, मोहन सरीख लड़के नहीं बता पाते थे । अन्त में प्रश्न मुझ से पूछा जाता । मैं उत्तर दे देती। उत्तर न बताने बाले छात्र नीची आँखें करके खड़े रह जाते। मैं उस स्थिति में सीना तान कर मुस्कराते हुए उनकी ओर देखती। वे आँखें न मिलाते। इससे मेरा मनोबल अध्ययन के प्रति और अधिक बढ़ता़ गया ।
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