Tere Shahar Ke Mere Log - 10 in Hindi Biography by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | तेरे शहर के मेरे लोग - 10

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तेरे शहर के मेरे लोग - 10

( दस )
मुझे बताया गया कि पार्टी राज्य में चुनाव लड़ना चाहती है और इसकी यथासंभव तैयारी की जाए।
मैंने शाम को दो घंटे का समय पार्टी के कार्यालय में बैठना शुरू किया और शेष समय महासचिव व अन्य पदाधिकारियों के साथ अलग- अलग नगरों में घूम कर दल के कुछ पदाधिकारी नियुक्त किए। जब संभावित कार्यकर्ता जयपुर आते तो हम तीनों उनका इंटरव्यू लेते और उनकी योग्यता, क्षमता तथा रुचि के अनुसार उन्हें नियुक्त करते।
राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थोड़े- थोड़े अंतराल पर राज्य का दौरा करते। अधिकांश यात्राओं में मैं, महासचिव व उपाध्यक्ष उनके साथ होते। हमने उन संभावनाओं की पड़ताल भी की, कि अगर हमें चुनाव लड़ना पड़ता है तो हम कौन सा क्षेत्र चुनेंगे।
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष दक्षिण से थे किन्तु वे स्वयं भी राजस्थान से ही चुनाव लड़ना चाहते थे।
इस कवायद में एक बड़ी अड़चन ये भी सामने आई कि राज्य में सुरक्षित सीटों का गणित भी काफ़ी उलझा हुआ था।
साधारण सदस्य के रूप में हज़ारों छात्र- छात्राएं हमसे जुड़ रहे थे और पार्टी की वेबसाइट लगातार अपडेट की जा रही थी। कई ज़िलों में जनाधार गांवों तक पहुंच गया था।
सबसे बड़ी बात ये थी कि दूसरी सभी पार्टियों के ऐसे नेता भी हमारे साथ आ रहे थे जिन्हें उनके अपने दल में अवहेलना का सामना करना पड़ा था।
पंजीकरण की औपचारिकता के बाद पार्टी को चुनाव चिन्ह भी आवंटित हो गया था।
प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से हमने भी अख़बारों में राज्य में चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी।
पार्टी के घोषणापत्र में जिन मुद्दों को प्रमुखता से उठाया गया था उनमें सबसे ज़्यादा विवादास्पद, सबसे ज़्यादा लोकप्रिय और सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा "आरक्षण" का था, और पार्टी किसी भी तरह के आरक्षण के सख़्त ख़िलाफ़ थी।
दूसरे, पार्टी देश से भाषा विवाद मिटाने के लिए अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पर ज़ोर देना चाहती थी।
भ्रष्टाचार से हर स्तर पर लड़ना भी एक प्रमुख मुद्दा था जिसके लिए जनसतर्कता समिति का सहयोग भी हमें प्राप्त था।
इस मुकाम पर मेरे लिए आगे बढ़ने से पहले फ़िर एक पड़ाव आया।
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को अपने दौरों और अध्ययनों से ऐसा लगा कि मैं लंबे समय तक दिल्ली, मुंबई आदि स्थानों पर रहा हूं और वहां पत्रकारिता से काफ़ी सक्रियता से जुड़ा रहा हूं तो मेरा उपयोग राजस्थान की तुलना में अखिल भारतीय स्तर पर ज़्यादा अच्छी तरह से हो सकेगा।
उन्होंने मुझे प्रदेश अध्यक्ष के साथ- साथ पार्टी के राष्ट्रीय सचिव की ज़िम्मेदारी भी दे दी और मेरी ही सलाह पर मुझे चुनाव लड़ने से मुक्ति दे दी।
कहा गया कि मैं अपना ध्यान राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का आधार मज़बूत करने और इसके संविधान, घोषणा पत्र, प्रचार सामग्री आदि के कामों में लगाऊं।
अब कुछ अंदर की बात!
आपको ये भी बताना ज़रूरी है कि मैंने चुनाव लड़ने से इंकार क्यों किया।
ऐसा नहीं था कि पार्टी के लिए मेरी प्रतिबद्धता में कोई कमी थी या मुझे कोई संदेह था, बल्कि इसके कुछ निहायत व्यक्तिगत और महत्वपूर्ण कारण थे।
एक कारण तो ये था कि मेरी ज़िन्दगी के फल अब पकने लगे थे। अर्थात मेरा बेटा अब आगे पढ़ने के लिए अमरीका चला जाना चाहता था। मेरी बेटी देश के सबसे बड़े और चर्चित प्रबंधन संस्थान से डॉक्टरेट कर लेने के बाद अब अपने विवाह के लिए हमें स्वीकृति दे चुकी थी।
मेरी पत्नी को लंबे समय तक एक महत्वपूर्ण ऊंचे पद पर कार्य कर लेने के बाद राज्य के एक नए स्थापित होने वाले विश्वविद्यालय में कुलपति पद का प्रस्ताव मिला था।
और मज़े की बात ये थी कि मेरी उम्र अभी पकी नहीं थी। मेरी जिजीविषा मेरे साथ थी।
अपनी कश्मकश के खाते से एक- दो निजी बाधाएं भी आपको गिनाऊं जो मुझे चुनाव मैदान में कूदने से रोकती थीं। जैसे -
पार्टी देश में "आरक्षण" के सवाल का पुरजोर विरोध कर रही थी, जबकि निजी तौर पर मेरा मानना ये था कि देश से वर्षों की सामाजिक असमानता मिटाने के लिए एक अस्त्र के रूप में आरक्षण जरूरी था। और इसका एकाएक विरोध अब भी नहीं किया जा सकता, चाहे इसका स्वरूप अब तक हुए अनुभवों के आधार पर थोड़ा बहुत बदला जाए। आख़िर मैं और मेरे प्रशंसक कैसे भूल सकते थे कि मुझे महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी की ओर से दलितों के हितों के लिए लगातार लिखने पर उनके प्रेमचंद पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। मेरी कहानियां "मलबे के ढेर पर" तथा "मेरी ज़िन्दगी लौटा दे" काफ़ी चर्चित रही थीं।
दूसरे, मैंने अपनी लगभग सम्पूर्ण युवावस्था हिंदी के प्रचार प्रसार, लेखन और पत्रकारिता को दी थी, अब देश के विकास के लिए अंग्रेजी माध्यम को आवश्यक बताने का अर्थ था, अपनी अब तक की ज़िन्दगी से यूटर्न लेकर उसे विफल घोषित करना। मैं दिल से इसके लिए सचमुच तैयार नहीं था। यद्यपि मैं शुरू से ही ये मानता रहा था कि दुनिया के कदम से कदम मिला कर चलने के लिए हमारी नई पीढ़ी को अंग्रेज़ी की दक्षता का सहारा लेना ही चाहिए, फ़िर भी मेरा मन नहीं स्वीकार करता था कि हिंदी को किसी बंद गली का आख़िरी मकान कह देने का ऐलान हमारी पार्टी करे।
बच्चों का करियर और परिवार की खुशियां वो मंजिलें थीं जिनके लिए मैंने ज़िन्दगी भर प्रयास किए थे। अकेले रह कर भी मैं घर से जुड़ने के लिए छटपटाता ही रहा था।
चुनाव लड़ने की बात फ़िलहाल ठंडे बस्ते में चली गई।
लेकिन पार्टी के लिए मेरी निष्ठा उसी तत्परता से बनी रही।
मैंने स्वयं प्रेस कांफ्रेंस में ये कहा कि हमारी पार्टी सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
ई टीवी पर हमारे लगातार धुआंधार विज्ञापन आते रहे। अख़बारों में ख़बरें भी आती रहीं। कई छोटे और मझोले अख़बारों ने हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष के इंटरव्यू छापे।
पूरी कोशिशों के बाद भी हम प्रदेश की कुल दो सौ सीटों में से केवल इकतीस सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार पाए।
राष्ट्रीय अध्यक्ष ख़ुद भी चुनाव नहीं लड़े।
इसके बाद प्रदेश भर में प्रचार का काम शुरू हो गया।
इसी बीच अपने पुत्र के अमरीका जाने की तैयारियों में मेरे दिल्ली के कुछ चक्कर लगे, पारिवारिक व्यस्तता भी रही।
इस संदर्भ में भी आपको वस्तुस्थिति बता दूं, अपनी सीनियर सैकंडरी की बोर्ड परीक्षा में राज्य भर में मेरिट लिस्ट में अपना छठा स्थान बनाने के बाद से ही मेरा पुत्र हम लोगों के बीच ये ऐलान कर चुका था कि वो इंजीनियरिंग करने के बाद आगे पढ़ने के लिए यूएस जाएगा।
किन्तु मेरी धर्मपत्नी इस पक्ष में नहीं थीं कि बेटा पढ़ाई करने के लिए विदेश जाए। उनका मानना था कि आजकल बच्चे वहां से कोई कोर्स करने के बाद वहीं रह जाना पसंद करते हैं।
वो ख़ुद वाइस चांसलर बनने से पहले लड़कियों के एक सुविख्यात संस्थान की डीन थीं और उनकी छात्राएं कई देशों में इसी तरह जा बसी थीं।
ख़ुद हमारा छोटा सा परिवार नौकरियों के चलते ऐसे ही बिखरा सा रहा था कि अब सबके साथ में ही रहने का मन होता था।
लेकिन मेरा बेटा तपाक से उत्तर देता कि पापा भी तो जर्नलिज्म करने मुंबई गए थे। मेरी पत्नी निरुत्तर हो जाती।
बेटे ने अपने आप सब तहकीकात करके अमरीका के कई संस्थानों में प्रवेश और छात्रवृत्ति के लिए एप्लाई कर दिया था।
शुरू में एक - दो विश्वविद्यालयों से उसकी एप्लीकेशन रिजेक्ट होने की सूचना आई। मेरी पत्नी मुझे उसका रिजेक्शन पत्र दिखाते हुए बहुत ख़ुश हुई कि चलो यदि इसे प्रवेश नहीं मिला तो अपने आप ही समस्या हल हो जाएगी।
पर अपने बच्चों की विफलता देखना भला कौन मां- बाप चाहेंगे। मैं मन ही मन चाहता था कि वो चाहे विदेश न जाने क्या निर्णय ले ले किन्तु अपनी कोशिश में सफल ज़रूर हो।
देखते ही देखते एक अच्छे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में उसे छात्रवृत्ति सहित प्रवेश मिल गया, और हमें उसके जाने की औपचारिकताओं और तैयारी में जुटना पड़ा।
इसी बीच बेटी के रिश्ते के लिए भी मैंने समय निकाल कर कुछ विमान यात्राएं कीं, ताकि अपनी पार्टी के चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को पर्याप्त समय दे सकूं।
जल्दी ही शादी की तारीख़ निश्चित हो गई।
शादी राजस्थान से बहुत दूर ओड़िशा राज्य में जाकर करने का निर्णय लिया गया।
समय बचाने के उद्देश्य से पूरा परिवार विमान यात्रा करके ही वहां पहुंचा और समारोह संपन्न करके फिर सब अपनी अपनी तैयारियों में लग गए।
एक बात मुझे हमेशा हैरान करती थी।
मैं जब बैंक की नौकरी छोड़ कर शिक्षण संस्थान में आया था तब कुछ मित्रों व परिजनों ने कहा था कि बैंक में मुझे बेसाख्ता यात्राएं करनी पड़ीं और अब मुझे एक स्थायित्व मिलेगा तथा कहीं आना - जाना नहीं पड़ेगा।
लेकिन मैं देख रहा था कि आने के बाद से ही मैं किसी न किसी कारण से पहियों और पंखों पर सवार ही था। मेरी ज़िन्दगी लुढ़कती ही रहती थी।
यात्राओं को लेकर एक भय सा मेरे मन में हमेशा रहता था। क्योंकि परिवार से दूर रहने के कारण मुझे ज़्यादातर त्यौहारों, विशेष अवसरों पर सीमित छुट्टियों और भारी तनाव के बीच ही यात्रा करनी पड़ती थी।
लोग होली दीवाली के बाद एक दूसरे से मिलने जुलने और रंगारंग कार्यक्रमों में खोए हुए होते और मुझे अपनी समयबद्ध यात्रा के तनाव झेलने पड़ते। अपनों से दूर होने की उदासी तो अपनी जगह रहती ही।
लेकिन अब भी नित नए कारणों से होती यात्राओं ने सिद्ध कर दिया कि मैं नहीं, मेरे नक्षत्र चक्कर खाते हैं।
अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के समर्थन व सहयोग के लिए मैं राजस्थान के कई शहरों में गया। सभी जगह सभाओं में व्याख्यान भी दिए। इन संबोधनों को व्याख्यान कहना कुछ अटपटा सा लग रहा है, इसलिए कहता हूं कि भाषण दिए।
जयपुर में मेरे एक मित्र चुनाव लड़ रहे थे जो यहां के एक बड़े बाज़ार मंडल के अध्यक्ष भी थे। उनके समर्थन में कई भाषण दिए, बाजारों में जनसंपर्क किए और एक विशाल कार रैली भी निकाली।
रैली में कई कारों के काफ़िले की अगुआई में उनके साथ खुली कार में सबसे आगे खड़े रह कर अपने शहर को देखा।
आइए, अब आपको ये भी बता दूं कि हम क्यों हारे।
हम सभी इकतीस सीटों पर चुनाव हार गए।
कुछ लोगों की टिप्पणियों और ख़ुद अपने आकलन के आधार पर आपको बताता हूं कि हमारी पार्टी के सभी सीटों पर हारने के क्या कारण थे -
एक, हमारी पार्टी को हज़ारों ही नहीं बल्कि लाखों युवाओं व विद्यार्थियों का उत्साह जनक समर्थन तो मिला था, किन्तु ये सभी यहां राजस्थान के वोटर्स नहीं थे। इनके नाम मतदाता सूची में यहां दर्ज़ नहीं थे, बल्कि अपने राज्यों उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड में दर्ज थे। ये वहां से पढ़ने अथवा नौकरी करने के लिए राजस्थान में आए थे। राजस्थान के जो युवा पढ़ाई या नौकरी के लिए राज्य से बाहर थे और अब वोट देने यहां अाए थे, उन तक हमारा प्रचार नहीं पहुंचा था। हम इस तथ्य पर पहले ध्यान नहीं दे सके।
दूसरे, पार्टी के बड़े पदाधिकारियों के खुद चुनाव न लड़ने से ये संदेश गया कि हम अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के लिए गंभीर नहीं हैं।
तीसरे, अंतिम दिनों में अपने उम्मीदवारों की संख्या ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाने के जोश में हमने दूसरे दलों से आए कुछ ऐसे उम्मीदवारों को टिकिट दे दिया था जिनकी छवि उनके अपने क्षेत्र में अच्छी नहीं थी।
फ़िर भी कुछ सीटों पर हमारे उम्मीदवारों को अच्छा जन समर्थन मिला था और उनका स्थान दोनों बड़ी राजनैतिक पार्टियों के उम्मीदवारों के बाद ही रहा था। शेष छोटे दल उनसे पीछे थे।
हम समझते रहे कि खुद के चुनाव न लड़ने से हमारे अपने दामन साफ़ रहे, उन पर कोई हार का धब्बा नहीं लगा, किन्तु लोग समझते रहे कि हमारी एक अच्छी मुहिम मैली हो गई।
बेटे के विदेश जाने, बेटी के विवाह करके ससुराल चले जाने, पार्टी के हार जाने के बाद अब हमारा सारा ध्यान उस जगह से शिफ़्ट होने पर था जहां कई वर्षों से परिवार रहता रहा था। तीन मकानों में फैली बिखरी गृहस्थी को समेट कर फ़िर एक नई जगह लाना था।
मेरी पत्नी को एक विश्वविद्यालय में वाइस चांसलर के रूप में जॉइन करना था।
मैं तो पिछले कुछ समय से लंबी छुट्टी पर था ही।
इस नवस्थापित विश्वविद्यालय में शिष्टाचार भेंट के दौरान मैं और मेरी पत्नी जब पहुंचे तो उसके उच्च अधिकारियों की ओर से मुझे एक आश्चर्यजनक सरप्राइज मिला।
मुझे वहां निदेशक,प्रशासन के पद पर नियुक्ति का प्रस्ताव दिया गया।
ये मेरे लिए विशेष सम्मान की बात थी कि ज़िन्दगी में दूसरी बार मुझे बिना आवेदन किए ही ज़िम्मेदारी के बड़े पदों पर काम करने के प्रस्ताव मिले।
मैंने वहां के प्रशासन के प्रति कृतज्ञता प्रकट की और निर्णय लेने के लिए वक़्त की थोड़ी सी मोहलत लेकर चला आया।
किसी को कभी भी ये अधिकार नहीं है कि ज़माने को खराब कहे। हम सब उम्र के आइने में अपने - अपने अक्स लिए ही घूमते हैं।

जल्दी ही राज्य में आम चुनाव की घोषणा हो गई।

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