Shree maddgvatgeeta mahatmay sahit - 16 in Hindi Spiritual Stories by Durgesh Tiwari books and stories PDF | श्रीमद्भगवतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-१६)

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श्रीमद्भगवतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-१६)

जय श्रीकृष्ण बंधुवर!
भगवान श्री कृष्ण और श्रीगीताजी के अशीम अनुकम्पा से आज श्री गीताजी के १६वें अध्याय को लेकर उपस्थित हूँ। आप सभी प्रियजन श्रीगीताजी के अमृतमय शब्दो को पढ़कर, सुनकर तथा सुनाकर अपने आप को तथा सभी सुनने वाले बंधुओ के जीवन को कृतार्थ करे। श्री गीताजी की अशीम अनुकम्पा जैसे मुझपर बानी है वैसे ही आप सब पर भी बनी रहे।
जय श्रीकृष्ण!
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🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-१६🙏
श्री कृष्ण जी बोले- हे भारत! अभय, शुद्ध, सतोगुणी होना, ज्ञान-योग निष्ठा, दान, इन्द्रिय-दमन, यज्ञ करना, तप सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोध, त्याग, शांति, चुगली न करना, सब प्राणियों पर दया, तृष्णा से बचना, कोमल स्वभाव, लज्जा, चपलता का त्याग, तेज, क्षमा, धृति पवित्रता, द्वेष रहित, अभिमान न करना, दैवी सम्पत्ति के सम्मुख जन्म धरने वालों को यह सब गुण मिलते हैं। हे पार्थ! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कटु भाषण और अज्ञान ये सब आसुरी संपत्ति के सम्मुख जन्म लेने वाले को प्राप्त होते हैं। हे पांडव! दैवी सम्पत्ति मोक्ष एयर आसुरी संपत्ति बंधन का कारण होता है। तुम शोक न करो, क्योकि तुम उत्तम दैवी-सम्पत्ति के भोग को जन्में हो। हे पार्थ! इस लोक में देव और असुर ये दो प्रकार के प्राणी उतपन्न किए गए हैं। दैव को विस्तार पूर्वक वर्णन कर चुके, अब आसुरी की सुनो! धर्म में प्रवृत्ति ओर अधर्म से निवृत्ति असुर लोग नहीं जानते। उन में न सोच, न अचार और न सत्य ही है, वे संसार को असत्य, निराधार और अनीश्वर कहते है। उनके मन मे जगत की उत्पत्ति का कारण काम मे प्रेरित स्त्री पुरुषों के संभोग के अतिरिक्त कुछ नहीं। मलीन आत्मा, अल्प बुद्धि, दारुण कर्म करने वाले, इस संसार को नष्ट करने हेतु पैदा होते हैं और दूषित काम के आश्रित होकर वे दम्भी, मानी और मद से युक्त पुरुष नीच कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। वे मृत्यु पर्यन्त चिंता से ग्रसित हैं कामोपभोग ही सब कुछ है इसी को सर्वस्व मानते हैं। अनेक आशा रूप पाशों से बधें, काम क्रोध में तत्पर, कामोपभोग के लिए अन्याय से अर्थ संचय की इच्छा करतें है। मैन आज यह पाया, इस मनोरथ को पाऊंगा, यह मेरा है और यह धन भी मेरा हो जाएगा यह शत्रु तो मैंने मारा, दूसरे को भी मारूँगा, मैं ईश्वर, भोगी, सिद्ध, बलवान और सुखी हूँ, में धनी कुलका हूँ मेरे समावां दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान भी करूँगा, इस प्रकार अज्ञान से मोहित हुए हैं। अनेक कल्पनाओं मोहरुई बंधन में फंसे हुए, विषय भोग में आसक्त लोग रौरव नर्क में गिरतें है, अपनी बड़ाई आप करतें है, गहन धाम के मद में चूर रहते हैं। शास्त्रोक्त विधि छोड़कर केवल नाम के लिए यज्ञ करते हैं वे अहंकार, बल, घमण्ड, काम और क्रोध से युक्त हैं ठापनी तथा औरों की देह में स्थित मुझसे द्वेष रखते तथा मेरी निंदा करते हैं। इन द्वेष करने वाले क्रूर और अधम पापियों को में संसार की आसुरी योनियों में डालता हूँ। हे कौन्तेय! जन्म-२ में आसुरी योनी पाकर वह मूर्ख मुझको पाये बिना ही अंत में अधोगति को प्राप्त होते हैं। काम, क्रोध, मोह, लोभ चार नर्क के द्वार हैं जो आत्मा का नाश करते हैं। इस कारण तीनों को त्यागना चाहिए। हे कौन्तेय! उन ऋणों नरक द्वारों से छूटा हुआ मनुष्य अपने कल्याण को सुकृत करता है, तब उत्तम गति को पाता है। जो शास्त्रोक्त विधानों को छोड़ स्वेच्छानुसार कर्म करता है, वह सिद्धि को नहीं पाता, सुख को और परमगति को नहीं पाता। अतएव कार्य और अकार्य इनको जानने के लिए शास्त्र प्रमाण है। शास्त्रोक्त विधान जानकर उसी के अनुसार कर्म करना चाहिए।
अथ श्रीमद्भगवतगीता का सोलहवाँ अध्याय समाप्त।
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🙏अथ सोलहवें अध्यायय का महात्त्म्य🙏
श्रीनारायणजी बोले- हे लक्ष्मी! सोरठ देश है जिसके राजा का नाम खडाकबाहु था। बड़ा धर्मात्मा था उसके हाथियो में एक हाथी बड़ा मस्त था। जिस की धूम मची रहे महावतों को पास न आने देव, जो महावत उस पर चढ़े उसको मार डाले हाथी के पांव में जंजीर बंधी रहे, जिसके खेद से राजा ने और देश से महावत बुला कर कहा कोई ऐसा होय जो इस हाथी को पकड़े मैं उसको बहुत धन दूंगा। हे लक्ष्मी! उस हाथी को किसी ने नहीं पकड़ा। एक दिन हाथी नगर में चला गया सामने से एक साधु चला आया लोगो ने उस साधु से कहा- हे सन्तजी! यह हाथी आपको मार डालेगा सन्तजी ने कहा तुम देखों श्रीनारायणजी की कैसी शक्ति है हाथी की क्या शक्ति है जो मुझको मारे मेरे नजदीक भी नहीं आ सकता। साधु ने नेत्र पसार कर देखा, हाथी ने सूंड के साथ साधु की चरण वंदना कीऔर खड़ा रहा। तब साधु ने कहा, हे गजेंद्र! मैं तुझे जानता हूँ, पिछले जन्म में तू पापी था तेरा उद्धार करूँगा चिन्ता मत कर हाथी बारम्बार चरण छूता माथा नवाता था, लोगो ने देखकर राजा को खबर की राजा भी वहां आया, देखे तो हाथी साधु के आगे खड़ा है। तब साधु ने कहा- अरे गजेंद्र! तू आगे आ हाथी ने आगे हो चरण वंदना की उस सन्त गीतापाठी ने कमण्डल से जल लेकर मुख से कहा गीता के सोलहवें अध्यायय का फल इस हाथी को दिया। इतना कह जल छिड़कने से हकथि की देह छोड़ देव देह पाई विमान पर चढ़ बैकुण्ठ को गया। राजा ने सन्त को दण्डवत् प्रणाम को और कहा- हे सन्तजी! आपने कौन मंत्र कहा जिसकर इस अधम दुःखदायक को सद्गति प्राप्त हुई सन्त ने कहा- मैंने गीता के सोलहवें अध्याय का फल दिया है नित्य ही मैं पाठ करता हूँ, राजा ने पूछा- हाथी पिछले जन्म में कौन था साधु ने कहा- हे राजन्! यह पिछले जन्म में एक अतीत बालक था गुरु ने विघा पढ़ाई बड़ा पंडित हुआ, वह अतीत तीर्थ यात्रा को गया पीछे उसकी शोभा बहुत हुई अच्छे-२ सत्संगिब्सके दर्शन को आते बारह वर्ष पीछे गुरुजी आये वह अति नम्र थे। यह बड़ी समाज मे बैठा था मन मे सोचा कि अब इनके आदर को उठता हूँ तप मेरी शोभा घटेगी यह सोच नेत्र बंद किये हैं। ऐसा देख गुरुजी ने श्राप दिया कहा- रे मन्द मत! तू अंधा हुआ है। मुझे देखकर सिर भी नहीं नवाया न उठकर दण्डवत की है तुने अपनी प्रभुता का अभिमान किया है, सो हाथी का जन्म पावेगा। यह सुनकर बोला- हे सन्तजी! आपका वचन सत्य होगा मेरा उद्धार कब होगा गुरुजी को दया आगई और कहा जो गीताजी के सोलहवें अध्याय के पाठ का फल संकल्प तुझे देगा तब तेरा उद्धार होवेगा यह सुनकर राजा ने भी पाठ सीखा और अपने पुत्र को राज देकर आप तप करने लगा बन में जाकर सोलहवें अध्यायय का पाठ नित्य करे। समय पाकर राजा भी सद्गति को प्राप्त हुआ।
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💝~Durgesh Tiwari~