beti kaa pita in Hindi Moral Stories by Amit Singh books and stories PDF | बेटी का पिता

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बेटी का पिता


"कितनी-कितनी लड़कियाँ
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे,अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है।"
.....आलोक धन्वा।

याद आता है फ़िल्म "ओंकारा" का एक संवाद, जो एक "भगा ली गई लड़की" का पिता "भगाने वाले लड़के" से कहता है... "याद रखना! जो लड़की अपने बाप की नहीं हो सकती, वो किसी की नहीं हो सकती।"

वास्तव में "एक भागी हुई लड़की" समाज के चेहरे पर एक बड़ा सवाल होती है। जिसके कई पहलू ..कई छोर होते हैं।इसमें कुछ भी एकतरफा नहीं हो सकता। ऐसे मामलों को "कौन सही और कौन गलत" के फार्मूला वाले तराजू पर तौलना तो बिल्कुल सही नहीं हो सकता।बल्कि इतना ही जाना जा सकता है कि किसका पलड़ा हल्का और किसका अपेक्षाकृत भारी है। लेकिन ऐसे मामलों में जो हमेशा ठगा जाता है, वह है लड़की का पिता।

अपने हाथ और लात से सब कुछ सरक जाने के बावजूद अगर वह थोड़ा-बहुत कुछ भी बचा लेने की कोशिश में होता है, तो तथाकथित "नई सोच" और "नई पीढ़ी" से सामंजस्य न बिठा पाने का हवाला देकर उसे एक किनारे पर धकिया दिया जाता है।

फिर आता है कानून, जो बालिग-नाबालिग और उम्र के इक्कीस-अट्ठारह के समीकरण की समझाइश देते हुए एक तरह से उसके मुँह पर ताला जड़ देने का काम करता है।

मीडिया के लिए ऐसे विषय बड़े मसालेदार होते हैं,और अपने खूनी पंजों से उस "पिता" के इज्जत की जितनी खाल उधेड़ सकते हैं, उनमें तनिक भी कमी करना उनके बाजारू उसूलों के खिलाफ होता है।

अब आते हैं प्रगतिशीलता के स्वयंभू झंडाबरदार! महा विद्वान और आगम-निगम के महान विमर्शकार! लेकिन सच मानिए.. इनके आगमन-निगमन से निकले सूत्र व सिद्धांत और विमर्श के सड़ान्ध मारते निर्णय उस बाप के लिए घिसी-पिटी गाली से कम नहीं होते।

दूसरों पर ये अपनी प्रगतिशीलता के चरखे चाहें जितना भी चला लें, लेकिन जब अपने घर की खटिया तिन्ना होती है तो इनकी तथाकथित वर्ग-संघर्ष और आयातित "नई सोच" की मड़ैया बड़ी तेजी से उड़न छू हो जाती है।

इसलिए अच्छा होगा कि ऐसे मामलों में हालात की संवेदनशीलता को समझा जाए। बदलते हुए दौर में एक लड़की का बाप होना एक मजबूर आदमी की उपस्थिति न बनने दिया जाए। अच्छा होगा कि "बेटी बचाओ" के नारे वाले इस दौर में बेटी के बाप को भी बचाए रखने की कोशिश की जाए!

क्योंकि जब बाप होंगे तभी बेटियाँ होंगी। क्योंकि बेटियाँ स्वयं बाप की एक हिस्सा हैं, एक अंश हैं, एक टुकड़ा हैं।अच्छा होगा कि एक ही जिस्म के अंगों को आपस में टकराकर टूटने से बचाया जाए!

अच्छा होगा कि घर में पड़ी दरारों को किन्हीं आयातित विचारों और बनावटी विमर्शों से नहीं बल्कि रिश्तों की स्निग्ध, स्नेहिल ईंट-गारों से ही पाटा जाए! ताकि किसी बाप को किसी मुँहजोर "भगाने वाले" से फ़िल्म ओंकारा का वह मनहूस डायलॉग फिर कभी न दुहराना पड़े।

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मौलिकता की घोषणा-
मैं अमित सिंह यह घोषित / प्रमाणित करता हूँ कि यह लेख मेरी मौलिक रचना है। इसमें उल्लेखित कविता के साथ संदर्भित कवि का नाम ससम्मान लिया गया है।

© अमित सिंह
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