mansoon ki raat in Hindi Short Stories by Anurag mandlik_मृत्युंजय books and stories PDF | मानसून की रात..

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मानसून की रात..

भादों का महीना था और इतने घने बादल छाए हुए थे कि दोपहर में ही ऐसा लगता था मानो रात हो गई हो। घने काले बादल और उसपर से कड़कड़ाती हुई बिजली की चमक रह रह कर हरिराम और सुमति के सीने की धड़कनों को बढ़ा देती थी....छोटा सा बांस की खपच्चियों का मकान और ऊपर लाल खपरैल जिसमें जगह जगह कवेलू के छेदो से गरीबी झांक रही थी। चैत बैसाख में तो जैसे तैसे गुजारा कर लिया मगर भादों के गहरे बादलों में भरी विराट जल संपदा को अपने ऊपर झेल लेने की ताकत के आगे उस यादों के छोटे से टीले पर बसे मकान कि हालत घुटने टेकने को मजबूर थी। अभी दो बरस ही हुए की मुनिया को ऐसी ही तेज बारिश में एक दिन रात में रेंगकर आए काले सांप ने ढंस लिया था। खूब झाड-फुंक करवाया गया जगह जगह औझा को धन की देवी के दर्शन करवाए गए मगर नन्ही सी जान कब तक ये दंश झेलती तीसरे ही दिन रात वो ऐसी सोई की सोती ही रह गई। सुमति को अब अपने छोटे बेटे और मुनिया से बड़ी बेटी का ही सहारा था। वो किसी भी कीमत पर इन दोनों को इस मौत के मुंह में जाने नहीं देना चाहती थी। बारिश अचानक तेज हो रही थी और दोनों छोटे बच्चो को लेकर सुमति एक कोने में पुरानी बरसाती ओढ़े पड़ी थी। पास ही में पानी तेजी से चू रहा था दूसरे कोने में हरिराम दरवाजे के सहारे पर जमी मिट्टी की बोरियों से थोड़ा दूर एक टाट बिछाकर बैठ गया। रह रहकर वह शिवशंकर से प्रार्थना करता था कि भोलेनाथ "अबके कुछ किरपा कर दो तो मकान बन जाए" बेचारी सुमति भी सावन के व्रत कर करके आपको मनाती रही है। हम बड़े बूढ़े तो कुछ भी सह लें मगर इन बच्चों का दुख नहीं देखा जाता। इसी विचार में वो डूबा हुआ था कि उसे याद आया कि
" कल पंचायत के दफ्तर में कोई सरकारी अफसर आया था जो गांव के गरीब लोगन का मुफ्त में मकान देई खातिर कछु बात कर रहा था।" भोलेनाथ ने किरपा करी तो इस बरस मकान बन ही जाएगो"
कल सुबह जल्दी उठकर ही वो पंचायत दफ्तर जाएगा और अफसर से मिलेगा ,ये खयाल करके उसको नींद लग गई।
दूसरे दिन सुबह मुंह धोकर ही वो पंचायत की ओर चला सुमति के पूछने पर ये कहते हुए कि "अबकी बारी हमरी है मकान लेई की, कोनो दूसरा के ई बार हक नहीं मारन दूंगा"
हरिराम पंचायत पहुंचा तो संयोग से अफसर भी वहीं बैठे मिल गए, हरिराम ने अपनी उनसे विनती करके अपनी पूरी व्यथा उस अफसर एक सामने कह दी। पास ही सरपंच जी और सचिव जी भी खड़े थे दोनों ही हरिराम को घुड़काने के इरादे से देखने लगे। सामने से अफसर की नजर उन दोनों पर पड़ी, उसने सरपंच जी को संबोधित करते हुए मामले की जांच करने के बाद जल्द से जल्द सरकारी मदद दिलाने की बात कही और उठकर जाने लगे।

अफसर के जाने के बाद सचिव जी हरिराम से कहने लगे
"कहे थे तुमसे की ई दो बीघा जमीन हमाए सरपंच जी को दे दो, अभी तक मकान भी बन जाता और बेटी मुनिया भी ना जाती"
जमीन तो हम देने से रहे सचिव जी, हरिराम ने आखों में विश्वास भरते हुए कहा।

"जमीन नहीं तो कछु और चढ़ावा चढ़ा दो" सरपंच साहब जी अफसर को छोड़ने के बाद आते ही बोले,,

"हम कछु इंतजाम करत है मालिक" हरिराम अपनी वाणी में करुणा भरते हुए बोला और धीरे धीरे अपने घर की ओर निकल पड़ा।
जाते ही सुमति को सारा किस्सा सुनाया तो सुमति ने झट अपने हाथ के चांदी के बने कंगन पेटी से निकाल कर सामने रख दिए और कहने लगी, "इतने में इंतजाम होता है तो देख लो,
"नहीं, नहीं.. ई देई खातिर नाही...." हरिराम ने दोनों कंगनों को सुमति को थमाते हुए कहा, और सोच में पड़ गया।

"अगर ई कंगन देकर दोनों बच्चन का जिंदगी बचाई जा सकत है तो इससे अच्छा कोनो काज नाही"
हरिराम को बात जंच गई, सुबह होते ही वो फिर पंचायत दफ्तर गया और सरपंच जी के सामने दोनों कंगन रख दिए।
इतने में ही बाहर अफसर का आना हुआ और सरपंच जी की सिट्टी पिट्टी गुल, कंगन देखते ही अफसर पूरा माजरा समझ गए...
और सरपंच और सचिव को डांटते हुए कहा कि "अच्छा....तो इस कारण नहीं बन पा रहा था इसका मकान...." तुम्हारी सरपंची तो गई अब जेल भुगतो...
इतना सुनते ही सरपंच जी घबरा गए और अफसर से हाथ जोड़कर विनती करने लगे कि "ऐसा मत करो साहब, हम अपने खर्चे से इका मकान बनाए देत हैं... हमें बख्स दो"
"वो तो तुम्हे बनाना ही पड़ेगा, इसके नाम का मकान जो तुम अपने छोटे भाई के नाम बनवा लिए हो" कल ही उसको खाली करवाओ वरना तुम्हारी खेर नहीं..." अफसर ने डांटते हुए कहा...
"जी, जी साहब करवा देंगे" सरपंच जी के होश फाख्ता हो गए...
दूसरे ही दिन पूरे साजो सामान के साथ हरिराम को अपने नए घर में रहने का अधिकार मिल गया...
इधर सुमति इसे अपने कंगन का चमत्कार मान रही थी, तो उधर हरिराम भोलेनाथ का आशीर्वाद.... अगर उ दिन रात में ना कहा होता तो याद ही ना आती ना ई मकान मिलता..."
हरिराम और सुमति अब अपने नए मकान में खुशी से रह रहे थे, और ये गरजते हुए बादल और बरसती हुई घटा जो कभी डराती थी आज उन्हें भी सुहावनी नजर आ रही थी....

©®अनुराग मांडलिक "मृत्युंजय"