Purnata ki chahat rahi adhuri - 10 in Hindi Love Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 10

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पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 10

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

दसवाँ अध्याय

रविवार को गृहमंत्री का दौरा था।

सूर्य पश्चिमोन्मुखी हो चुका था, किन्तु आकाश में चन्द्रमा अभी प्रकट नहीं हुआ था। अँधेरा अभी हुआ नहीं था, किन्तु उजाला ज़रूर सिमट चला था। शायद ऐसे समय को ही गोधूलि वेला कहा जाता है। हरीश घर पर ही था। बेल बजी तो उसी ने दरवाज़ा खोला। बाहर पुलिस की जिप्सी खड़ी थी। बेल बजाने वाले ने अपना परिचय दिये बिना पूछा - ‘आप ही हरीश जी हैं?’

‘जी हाँ, मैं ही हरीश हूँ। कहिए?’

‘आपको होम मिनिस्टर साहब ने याद किया है। आप मेरे साथ चलिए।’

‘आप दो मिनट रुकिए, मैं शूज पहन कर आया।’

जब वे विश्रामगृह पहुँचे तो मन्त्री महोदय ड्राइंगरूम में बैठे थे। पुलिस के कई वरिष्ठ अधिकारी खड़े थे। हरीश को बुलाने गये व्यक्ति ने मन्त्री जी को हरीश के आने की सूचना दी तो उसे तत्काल बुला लिया गया। हरीश ने ज्यों ही मन्त्री जी को नमस्ते की, मन्त्री जी ने ग़ुस्से में कहा - ‘तुमने यहाँ पैरलल सरकार चला रखी है। लोगों को तंग करने का बीड़ा उठा रखा है।’

‘सर, मैं कुछ कहना चाहता हूँ।’

‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। तुम्हारी इन्क्वायरी करवाऊँगा।’

‘सर, मैं स्वयं नहीं आया। आपने पी.ए. साहब को भेज कर मुझे बुलाया है। कृपया मेरा पक्ष भी सुन लें। फिर आपको जो उचित लगे, उसी अनुसार कार्रवाई करवा लेना।’

‘कहो, क्या कहना है?’

तब हरीश ने घटनाक्रम के हर पक्ष को संक्षेप में उनके सामने रखा। उसे सुनने के बाद भी मन्त्री जी के रुख़ में कोई बदलाव नहीं आया, क्योंकि उन्होंने तो अपना मन पहले से ही बना रखा था। इसलिये बोले - ‘इन्क्वायरी तो तुम्हारी होगी। तुम्हारे विरुद्ध मुझे एफिडेविट मिला है। एक बात का ध्यान रखना, तुम्हारी धींगामुश्ती नहीं चलने दूँगा। तुम जा सकते हो।’

साथ ही मन्त्री जी ने एस.एच.ओ. को गाड़ी छोड़ने का मौखिक आदेश दिया। अब एस.एच.ओ. की क्या मजाल कि गृहमंत्री का आदेश हो, चाहे सरासर ग़लत ही क्यों न हो, और वह गाड़ी न छोड़े!

गृहमंत्री ने जब एस.एच.ओ. को गाड़ी छोड़ने का आदेश दिया तो हरीश ड्राइंगरूम से निकल ही रहा था। यह सुनते ही वह चिंता में पड़ गया। सोचने लगा कि गाड़ी इम्पाऊँड हमने की है, थाने में खड़ी करने की रसीद हमारे रिकॉर्ड में है, कहीं गाड़ी छोड़ने के बाद पुलिस वाले हमें ही न उलझा लें। घर आते हुए वह इसी उधेड़बुन में रहा। उसके मन ने कहा कि मीनाक्षी मैडम से सलाह लेनी चाहिए। वे अवश्य कोई-न-कोई हल निकाल देंगी इस समस्या का। अतः घर आते ही उसने मीनाक्षी को फ़ोन मिलाया तो बहादुर ने बताया कि वे तो अभी क्लब से वापस नहीं आयी हैं। हरीश ने उसे ताकीद की कि मैडम के आते ही बात करवाये, क्योंकि बात करना बहुत ज़रूरी है। जब तक मीनाक्षी का फ़ोन नहीं आया, हरीश की बेचैनी बरकरार रही। आधा घंटा गुजरा होगा कि फ़ोन घनघनाने लगा। हरीश ने तत्काल रिसीवर उठाया। उधर से मीनाक्षी की आवाज़ आयी - ‘हैलो हरीश, क्या इमरजेंसी आ गयी?’

हरीश ने सारे घटनाक्रम से विस्तार में मीनाक्षी को अवगत करवाया और आगे की कार्रवाई के लिये उसकी सलाह माँगी। तत्पश्चात् मीनाक्षी की सलाह अनुसार हरीश ने उस व्यापारी को बुलाया जिसका माल था और उसे समझाया कि उसने तो व्यापार करना है, उसकी भलाई विभाग के साथ सहयोग करने में है। समझदार व्यापारी आमतौर पर विभाग से पंगा नहीं लेते जब तक कि पानी सिर के ऊपर से न निकल जाये। इस केस में तो माल का मालिक गलती पर था ही। उसने बिना हील-हुज्जत के हरीश की सलाह मानते हुए जितना टैक्स बनता था, भर दिया और रसीद लेकर विभाग की फ़ाइल पूरी करवा दी। तत्पश्चात् हरीश ने प्रवीण कुमार को बुलवाकर गाड़ी रिलीज़ करने के आदेश पारित करवाये और थाने भिजवा दिये। इस आदेश की कॉपी जब एस.एच.ओ. को मिली तो उसने भी राहत की साँस ली, क्योंकि ग़लत आदेश लागू करने की चिंता तो उसे भी सता रही थी।

.........

एक सप्ताह पश्चात् एक दिन सुबह जब पी.ए. डाक लेकर आया तो विजिलेंस विभाग से आया पत्र उसने सबसे पहले हरीश के सामने रखा। देखते ही हरीश का माथा ठनका। हो-न-हो गृहमंत्री ने ट्रांसपोर्टर की शिकायत वाला एफिडेविट विजिलेंस को इन्क्वायरी के लिये भेज दिया हो। उसने संयत रहते हुए पत्र खोला। उसकी आशंका निर्मूल नहीं थी। डीएसपी (विजिलेंस) ने दस दिन बाद की तारीख़ को उसे इन्क्वायरी में सहयोग देने के लिये बुलाया था। हरीश ने बाक़ी डाक देखने तथा मार्क करने के बाद पी.ए. को प्रवीण कुमार से पिछले सप्ताह थाने में बंद की गयी गाड़ी की केस फाइल तथा उस केस से संबंधित सारे पेपर्स प्रस्तुत करने का आदेश दिया।

थोड़ी देर बाद प्रवीण कुमार ने हरीश के पास आकर कहा - ‘सर, मुझे बड़ा दु:ख हो रहा है कि मेरी वजह से आप उलझन में पड़ गये हैं।’

‘नहीं प्रवीण, तुम्हें दुःखी होने की आवश्यकता नहीं। तुम मेरे आदेश से चैकिंग करने गये थे। तुमने जो किया, अपना कर्त्तव्य समझकर किया। इन हालात में तुम्हें संरक्षण देना मेरा उत्तरदायित्व है।’

‘सर, मुझे पूरा विश्वास है कि आप सारे मामले को बख़ूबी सम्भाल लेंगे, फिर भी कहीं मेरी ज़रूरत पड़ेगी तो मैं सदैव आपके साथ हूँ।’

‘थैंक्स प्रवीण। इन्क्वायरी में तुम्हारे बयान भी होंगे। हो सकता है कि अगली पेशी पर तुम्हें बुलाया जाये।’

‘सर, यदि आप ठीक समझें तो मैं डीएसपी का कोई कान्टेक्ट ढूँढूँ?’

‘नहीं। हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना। हमने कुछ भी ग़लत नहीं किया है। जो कुछ किया है, अपना कर्त्तव्य मान कर किया है। साँच को आँच नहीं। तुम निश्चिंत रहो।

......

नियत तिथि को हरीश विजिलेंस विभाग के कार्यालय में पहुँच गया। शिकायतकर्ता ट्रांसपोर्टर भी पहुँचा हुआ था। हरीश ने डीएसपी के अर्दली को अपना परिचय दिया। अर्दली ने अन्दर जाकर सूचना दी और लौटते कदमों से दरवाज़े पर लटक रही चिक एक तरफ़ करके हरीश को अन्दर जाने को कहा। हरीश ने डीएसपी को नमस्ते की तो उसने कहा - ‘आओ मि. हरीश, बैठो।’

‘थैंक्स सर।’ कहकर हरीश जब बैठ गया तो डीएसपी ने उसे सम्बोधित करते हुए पूछा - ‘आप कुछ बताना चाहेंगे या शिकायतकर्ता को बुला लें?’

‘सर, शिकायतकर्ता ने एफिडेविट के अतिरिक्त कुछ और भी लिख कर दिया है क्या?’

‘नहीं। होम मिनिस्टर साहब ने एफिडेविट पर ही इन्क्वायरी करके रिपोर्ट करने के आदेश पारित किये हैं।’

‘फिर तो सर, यदि आप आज्ञा दें तो मैं केस के पूरे फ़ैक्ट्स आपको बताना चाहूँगा।’

‘कुछ बातें तो मुझे मालूम हैं। फिर भी मैं आपकी ज़ुबानी सारा क़िस्सा सुनना चाहता हूँ।’

तदुपरान्त हरीश ने केस से सम्बन्धित सारे घटनाक्रम को डीएसपी के समक्ष रखा। हरीश जब अपनी बात कह चुका तो डीएसपी ने बेल देकर शिकायतकर्ता और अपने स्टेनो को बुलाया। स्टेनो को शिकायतकर्ता ट्रांसपोर्टर के बयान नोट करने को कहा। जब स्टेनो ने ट्रांसपोर्टर के बयान नोट कर लिये और उसपर उसके हस्ताक्षर करवा लिये तो डीएसपी ने हरीश को कहा - ‘मि. हरीश, आप भी अपना बयान रिकॉर्ड करवा दें।’

‘सर, यदि आपकी इजाज़त हो तो मैं इससे कुछ सवाल पूछना चाहता हूँ और चाहूँगा कि मेरे सवाल और इसके जवाब ‘क्रॉस’ के रूप में रिकॉर्ड किये जायें।’

‘आप जो पूछना चाहते हैं, पूछ सकते हैं। ....... सोहन (स्टेनो), तुम आगे की कार्रवाई भी नोट करते चलना।’

हरीश शिकायतकर्ता से - ‘क्या मैंने चैकिंग के दौरान तुम्हारा ट्रक चैक किया था?’

शिकायतकर्ता - ‘नाहीं। थारा कोई और अफ़सर थो।’

‘चैकिंग के समय ट्रक में लदे माल और ट्रक के काग़ज़ आपके ड्राइवर के पास थे या नहीं?’

‘ना। लेकिन बाद में दिखाये थे, तां ही थाने वालों ने गाड़ी छोड़ी सै।’

‘आपने बयान दिया है और एफिडेविट में लिखा है कि आप मेरे घर आकर मुझे दस हज़ार रुपये बतौर रिश्वत देकर गये थे ताकि आपकी गाड़ी छोड़ दी जाये।’

‘हाँ।’

‘तब तो आपको मेरे घर का नंबर भी याद होगा?’

शिकायतकर्ता सोच में पड़ गया। सिर खुजलाने लगा। फिर हकलाते हुए बोला - ‘घर का नंबर....415, अरर नाहीं 515..... ठीक से याद कोन्या आ रअेया।’

‘कोई बात नहीं। क्या आप साहब को मेरे घर ले जा सकते हो?’

‘के मतलब सै थारा? साब ने क्यूँ कर थारे घर ले के जाऊँ। बेमतलब की बातां मत कर। मैं थारे घर दस हज़ार दे के आया थो। मन्ने और कुछ नाहीं कैना। और डीएसपी साब, थे बी सुन लेओ, जेकर कारवाई ना होई तां थारी बी जवाबदेही हो सकै सै।’

उसके इतना कहने पर एक बार तो डीएसपी ग़ुस्से में आया, किन्तु ग़ुस्से को दबा कर उसने स्टेनो को कहा - ‘इसके हस्ताक्षर करवा कर इसे जाने दो।’

शिकायतकर्ता के जाने के बाद डीएसपी ने हरीश को कहा - ‘बड़ा बदतमीज़ आदमी है। पता नहीं, कैसे ऐसे लोगों को मन्त्री लोग सिर चढ़ा लेते हैं? आपने जो कहा था, सौ प्रतिशत सही है। आप निश्चिंत होकर जाइए, मैं रिपोर्ट भिजवा दूँगा।’

‘थैंक्यू सर।’ कहकर हरीश डीएसपी के कमरे से बाहर आ गया।

क्रमश..