Aadha Aadmi - 23 in Hindi Moral Stories by Rajesh Malik books and stories PDF | आधा आदमी - 23

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आधा आदमी - 23

आधा आदमी

अध्‍याय-23

मगर शहजादे था जो एक ही रट लगाये था। मैंने जितनी दिल्लगी आपसे की हैं उतनी आज तक मैंने किसी से भी नहीं की। न जाने क्यों मुझे आप से इतना लगाव हो गया हैं।

इसराइल की मौजुदगी के कारण मैं उसे जवाब तो नहीं दे सकी। मगर अफसोस की बात तो यह थी, कि मैंने उसकी मोहब्बत का मजाक बनाया था, ‘‘अब इतनी मोहब्बत मत दिखाओं की हम पागल हो जाए। लोग कहते हैं लैला की याद में मजनू पागल हुआ था। ऐसा न हो कहीं हम आपकी याद में पागल हो जाए.‘‘

सुबह छः बजे प्रोग्राम ख़त्म करते ही, मैंने कमरे में आकर अपने सामान की पेकिंग की। छोटी रिक्शा ले आया था। हम लोग सामान लाद कर जीप स्टैण्ड आ गये। हमारे पीछे-पीछे शहजादे भी आ गया था।

जैसे जीप चली शहजादे की आँखें छलक आई थी। मैं पलट-पलट कर उसे तब तक देखती रही जब तक वह मेरी आँखों से ओझल नहीं हुआ। मेरी भी आँखें डबडबा आई थी। बस जी यहीं कर रहा था कि दौड़कर अपने शहजादे की बाहों में चली जाऊँ। मगर मैं अपनी बेबसी, लाचारी के आगे मजबूर थी। और अपने उदास चेहरे को छुपा न सकी।

‘‘बाजी, ई का तुमरी आँख में आँसू.‘‘ छोटी पूछ पड़ी।

‘‘इंसान जब एक-दूसरे के करीब रहता हैं तब उसे उसकी कमी महसूस नहीं होती। लेकिन जैसे वह हमसे दूर होता हैं लगता हैं हमारा सब कुछ चला गया। मैंने आज तक जहाँ भी प्रोग्राम किया पर इतनी दिल्लगी किसी से भी नहीं की। यहाँ तक मैंने शरीफ बाबा और ड्राइवर से भी नहीं की.‘‘

‘‘अरी बहिनी, उनसे धुरावत रही हव अउर इससे धुराये नाय हव, हियें मारे बुरचोदों याद करके रोवत हव.‘‘

‘‘चले जाव मेहरे की झाँट नाय तो एक लात में जीप से नीचे चली जियव, ज़िंदगी भर दस आदमी से धुराये हव तो एक आदमी की कदर का जानव। अगर हम्म भी तुमारी तरह होती तो अब तक पचासों से धुरा चुकी होती। शहजादे ने जिस तरह से मेरे उप्पर पइसा पानी की तरह बहाया हय इहीं उसने तुमरे साथ किया होता तो तुम अब तक लेट चुकी होती.‘‘

मैं बातों ही बातों में यह भी भूल गया कि जीप में इसराइल भी बैठा हैं। जबकि वह आगे वाली सीट पर बैठा था और हम लोग पीछे वाली सीट पर। मैं डर गया था कि कहीं उसने हमारी बातें सुन तो नहीं ली। मैंने तिरछी निगाहों से देखा, तो इसराइल बैठा-बैठा सो रहा था।

मैंने सोचा, ‘कहीं ऐसा तो नहीं वह सोने का ड्रामा कर रहा हो.’

अगले ही पल इसराइल चीख़ पड़ा, ‘‘गाड़ी रोकोऽऽऽऽ‘‘

इसी बीच काँलबेज बजते ही ज्ञानदीप ने उठकर दरवाजा खोला। गुलफाम को देखकर वह चैंक गया, ‘‘इतनी रात को खैरियत तो हैं.‘‘

‘‘सोचा चलूँ तुमसे मिल लूँ, तू तो आएगा नहीं.‘‘ गुलफाम चेयर पर बैठ गया।

‘‘ऐसा नहीं हैं यार.‘‘ ज्ञानदीप का स्वर नम था।

‘‘बस-बस अब रहने दें लीडरों की तरह सफाई मत दें.‘‘

‘‘चल-चल नहीं दूगाँ, यह ले पानी पी और दिमाग ठंडा कर.‘‘

‘‘आज का पेपर पढ़ा तुमने?‘‘ गुलफाम ने पूछा।

‘‘कोई खास खबर हैं क्या?‘‘

‘‘खास हैं तभी तो कह रहा हूँ। जानते हो हमारे हुक्मरान क्या कह रहे हैं, कि महँगाई होती क्या हैं? गरीबी होती क्या हैं? खुद पसीना बहाये तो पता चले। साले दामाद बन के सरकारी पैसे ऐसे फूँकते हैं जैसे इनके बाप-दादा कमा के रख गए हैं.‘‘

‘‘यार, सोचने वाली बात हैं। इस देश का खाद्य मंत्री संसद में कहता है, महँगाई हैं कहाँ? पब्लिक का तो काम ही हैं महँगाई का रोना-रोना। इस तरह की बकवास करके ये साले संसद का भी समय बर्बाद करते हंै.‘‘

‘‘मैंने कहीं पढ़ा था कि संसद की कार्यवाही पर प्रतिमिनट करीब 26 हजार रूपये खर्च होते हैं। एक सवाल करीब एक लाख रूपये का पड़ता हैं। और यह सीधे-सीधे जनता के गाढ़े पसीने की कमाई की बर्बादी हैं.‘‘

‘‘ये नेता साले देश को खा गये, कहते हैं मेरा भारत महान हैं। कैसे हंै महान..?‘‘

‘‘इन सालों को जितना भी कहों कम ही हैं। ये सारे के सारे हमारे देश के रोड़े हैं। अच्छा यार! चलते है.‘‘ गुलफाम देश की बिगड़ती परिस्थितियों पर चर्चा करके चला गया था।

ज्ञानदीप एक बार फिर से दीपिकामाई की डायरी पढ़ने बैठ गया-

इसराइल की चीख़ सुनकर ड्राइवर ने जीप रोकी। मैं तो डर गया था कि कहीं उसने मेरी बात सुन तो नहीं ली। पर यह तो मेरा भम्र था। सच्चाई तो यह थी कि उसे लघुशंका लगी थी। लघुशंका से निपट कर वह जीप में आकर बैठ गया।

छोटी ने फिर से अपनी बकबक शुरू कर दी थी, ‘‘तुम तो उसकी याद में ऐसे टेशु बहा रही हो जैसे उसके हीरे लगे हैं.‘‘

‘‘हीरे नाय लगे हय तो का, तभई पीछे-पीछे उसके गाँड़ के लगी राहव। तुमरें तो घास डालिस नाय इही मारे तुमरे अउर कलबलाहट लगी हय.‘‘

‘‘हमरे काहे कलबलाहट लगी हय। कलबलाहट तो तुमरे लगी हय तभई तो बइठी भुसूर-भुसूर रो रही हव.’’

मैंने ताली बजाई, ‘‘लौड़े खातिर हम्म नाय रोइत हय। उससे खूबसूरत तो हमरे गिरिये के पास हय। रोअव तुम जो तुमरे नसीब में नाय हय। इहाँ तो लीकम की लाइन लगी पड़ी हय, देख री जादा बहस न किया कर नाय तो मुँह में मूतीब। गांडुवेनका सब गांडुवेन नजर आवत हय.‘‘

‘‘अरी जाव बहिनी, तुम तो बुरा मान गई.‘‘

‘‘बात ही तुम अईसी करती हव उप्पर से लीला बताती हव। तुमरे जइसे का भेज दिया हय अउर तुम हमका चूतिया बनावत हव.‘‘

‘‘काहे रिसयात हव बाजी, छोड़व कुच्छ अउर बात करव.‘‘

बात करते-करते हम लोग अपने शहर आ गये थे।

20-10-1988

मैंने प्रोग्राम से जो भी पैसा कमाया था। उससे मैंने मकान का सारा मटेरियल खरीद लिया था। जब मैंने यह बात अपनी बीबी को बतायी वह आगबबूला हो उठी,

‘‘अभी भी मैं कहती हूँ अपने भाइयों को हिस्सा देकर अलग कर दो मैं इनके साथ नहीं रहना चाहती.’’

‘‘तुम्हारें चक्कर में मैं अपने माँ-बाप, भाई-बहनों को नहीं छोड़ सकता। तुम्हारा मतलब हैं सबको ढकेल, मैं रहूँ अकेल। ऐसा मैं भविष्य में होने नहीं दूगाँ.‘‘

‘‘अगर तुम्हारा यही फैसला हैं तो मेरा भी फैसला सुनते जाओं मुझे नहीं रहना तुम्हारे साथ.’’

‘‘रहो या चूल्हे भाड़ में जाओं.‘‘ मैं कहकर चला आया था।

जब यह बात मैंने इसराइल को बताई तो उसने दो टूक में जवाब दिया, ‘‘तुम्हारें घर की महाभारत न ख़त्म हुई हैं और न होगी। तुम जानों तुम्हारा काम जाने.‘‘

28-1-1989

अगले दिन से प्लाट पर काम शुरू हो गया था। मैं और इसराइल लेबरों और मिस्त्री के साथ जुटे थे। मगर मेरे भाइयों से यह भी नहीं हुआ कि आकर सिर्फ़ देख-रेख ही कर लें।

जब मैं घर पहुँचा तो अम्मा मुझ पर उल्टे ही बौखला उठी। तो मैं भी अपने आप को रोक न सका, ‘‘का हर चीज में मैं अउर इसराइल ही भागें-दौड़ें? बड़कऊ से इत्ता भी नाय होय सकत हय कि वह जाई के खाली मजदूरन का देख लें। पइसे का पइसा भी लगाई उप्पर से भूखे-प्यासे रही। एक तो औरत मादरचोद दिमाग खराब कियैं राहत हय उप्पर से तुम लोग। हम्म तो हियें सोचै-सोचै मरे जाइत हय कि मकान का छत कइसे पड़िये.....।’’

30-3-1989

मैं सुबह होते ही अपने मोहब्बत महल पहुँचा तो देखा छोटी किसी आदमी के साथ चारपाई पर लेटी थी। मुझे देखते ही उठकर बैठ गयी। और अपनी राम कहानी बताने लगी, ‘‘कल रात जब मैं तेल की कटोरी उठा रही थी पता नहीं कहाँ से एक बिच्छु ने मेरी उँगली में छेद दिया। अगर आज यह न होते तो मैं मरी पड़ी होती.‘‘ छोटी ने उस साँवले से आदमी की तरफ इशारा किया।

‘‘गाँड़ मरवाने का इतना सौक था तो चिराग़ जला लेती.‘‘

‘‘तुमै तो पता हय कि हम्म चिराग़ जलाई के नाय मरवायी पाती हूँ.‘‘

‘‘अरी छोड़व, बहाने न बनाव तुम सोचती हव कि तुमरी गाँड़ पैं कोई बाल न देख लें.‘‘

‘‘ऐ बहिनी, हमरे गाँड़ में बाल नाय हय। हम्म शीशा गाँड़ के नेचे रक्ख के बनाई लीत हय.‘‘

हम लोग बात करने में मशगूल थे तभी बलराम न्निपाठी आ गया। मैंने छोटी को नाश्ता लाने के लिए भेज दिया। उसने बैठते ही मेरे सामने सादी का प्रस्ताव रख दिया।

उसकी बात सुनकर मेरे अंदर का लालच जाग उठा। मैंने सोचा, ‘क्यों न इसे अपने प्यार के जाल में फँसा लूँ और इसका सारा रूपया चूस लूँ। वैसे भी छत डलवाने के लिए रूपया चाहिए’.

‘‘क्या सोच रही हैं?‘‘ बलराम न्निपाठी के पूछते ही मेरा ध्यान भंग हुआ।

‘‘देखिये सादी कोई गुड़िया-गुड्डों का खेल नहीं हैं। सादी तो मैं आप से कर लूँ मगर खाना-पानी का खर्चा। एक दुल्दन के जर-जेवर का खर्चा। यह सब कहाँ से पूरा होगा? अगर यह सब नहीं होगा तो हमारी बिरादरी वाले हम पर थूकेंगे.‘‘

‘‘आप सामान नोट कराइये मैं सारी व्यवस्था कर दूगाँ.‘‘

उसका इतना कहना क्या था मेरे जेहन में कई सवाल उठने लगे, ‘अगर सादी इसने मुझसे कर ली तब यह सुहागरात मनाने को कहेगा। क्यों न पहले से ही सब कुछ तय कर लूँ.‘

”क्या हुआ?”

‘‘देखो जी, कापी-कलम बाद में पहले हमारी शर्ते सुन लीजिए.‘‘ अभी मेरी बात भी पूरी नहीं हुई थी कि छोटी ने आकर बताया, खाना तैयार हो गया हैं।

खाना खाने के बाद मैंने उससे पूछा, ‘‘आपको खाना कैसा लगा?‘‘

‘‘अति सुंदर.‘‘

मैं मन ही मन उसे कोसने लगा, ‘तुमरी नास होई जाय, तुमरे कीड़े पडे़, दस्त आई जाय। इत्ता खाना खाई गेव भडुवें जरा भी नाय सोचे कि अउर दुई जने का खइय्हें...।‘

बलराम के पूछते ही मेरी तन्द्रा भंग हुई, ‘‘आप ने बताया नहीं कि आप की शर्ते क्या हैं?‘‘

‘‘देखिये मैं सादी तो आप से कर लेंगे, पर जब तक हम एक-दूसरे को अच्छी तरह से जान नहीं लेंगे तब तक हमारे बीच कोई ज़िस्मानी रिश्ता नहीं रहेगा। रिश्ता रहेगा तो सिर्फ एक डांसर और एक पार्टी मालिक का.’’

‘‘शायद आप मुझे गलत समझ रही हैं। मैं आप की जिस्म का नहीं आप की कला का भूखा हूँ। मुझे आप की सारी शर्ते मंजूर हैं.‘‘

मेरे प्लानिंग अनुसार बलराम न्निपाठी मेरे जाल में बुरी तरह फँस गया था। फिर मैंने एक-एक करके सारी चीजें लिखा दी। जैसे सौ बाराती रहेंगे। मंगलसूत्र, नथुनी, अँगूठी, झुमकी यह सारी चीजें सोने की होगी। साथ-साथ मुगले आज़म पायल, करधनी, दस जोंड़ा सूट का कपड़ा, मेकअप का सामान, चप्पल, पर्स और हाथी दाँत की चूड़ियाँ।

शाम होते-होते मैं घर चला आया था। जबकि वह मुझे रोक रहा था। मगर मैं उसे क्वाटर पर रोक कर, पिताजी की तबियत का बहाना बनाकर चला आया था।

अगले दिन जब मैं क्वाटर पहुँचा। तो मैंने देखा, सब्जी और रोटी बनी रखी थी। मैंने उससे पूछा, ‘‘यह खाना कहाँ से आया?‘‘

‘‘आज मैंने अपने हाथों से आप के लिए खाना बनाया हैं.‘‘

‘‘वाह भाई वाह, आप खाना भी बना लेते हैं चले एक चीज़ से तो फुर्सत मिली.‘‘

खाने का स्वाद लेते ही सारी राम कहानी मेरी समझ में आ गयी।

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