महामाया
सुनील चतुर्वेदी
अध्याय – उनत्तीस
अखिल ने कमरे में जाकर कपड़े बदले और आलथी-पालथी लगाकर पलंग पर बैठ गया। दरवाजा खुला था। थोड़ी देर में अनुराधा ने कमरे में प्रवेश किया। अनुराधा के हाथ में एक शाॅल थी।
‘‘वाह! बहुत सुंदर शाॅल है। बाबाजी के लिये लायी थी?’’ अखिल ने शाॅल अपने हाथ में लेते हुए पूछा।
‘‘तुम्हे गिफ्ट करने के लिये नौगाँव से खरीदी थी।’’ अनुराधा ने खड़े-खड़े कहा।
‘‘फिर तुमने मुझे गिफ्ट क्यों नहीं की?’’
‘‘सोचा था, कोई अच्छा अवसर आयेगा तो तब तुम्हें गिफ्ट करूंगी।’’
‘‘बैठो न! खड़ी क्यों हो।’’
‘‘नहीं रात बहुत हो गई है। तुम भी अब सो जाओ। मैं तीन बजे जगा दूंगी। ओ.के. गुडनाईट’’ कहते हुए अनुराधा वहाँ से चली गई। जाते-जाते दरवाजा अड़का गई। अखिल ने पलंग पर बैठे-बैठे ही कंबल को फैलाया और उसमें घुसकर सो गया।
सुबह तीन बजे अनुराधा ने दरवाजा खोलकर कमरे में प्रवेश किया। अनुराधा के हाथ में चाय के दो कप थे। अनुराधा ने चाय के कप टेबल पर रखे। फिर अखिल को जगाया। अखिल आँखें मलते हुए उठकर बैठ गया। अनुराधा भी पलंग पर ही एक ओर बैठ गई। दोनों ने चाय पी। अनुराधा चाय का खाली कप अखिल के हाथ से लेकर उठ खड़ी हुई और बाहर जाते-जाते बोली।
‘‘जल्दी से तैयार हो जाइये मैं भी नहा कर आती हूँ‘‘
अखिल बिस्तर से उठकर सीधा बाथरूम में घुस गया।
करीब पौने चार बजे दोनों बाबाजी के कमरे के बाहर पहुंचे। अखिल दरवाजा ठेलकर बाबाजी के कमरे में पहुँच गया।
अनुराधा ने दालान में दो तीन चक्कर लगाये। फिर सीढ़ियों पर अपने हाथ गोद में रख आँखे बंद कर बैठ गयी।
पौने पाँच बजे के लगभग काशा, स्काॅट और राम भी बाबाजी के कक्ष के बाहर पहंुच गये। शांत वातावरण में चारों के आने की पदाचाप से अनुराधा की तंद्रा टूटी।
तभी राधा माई ने बाबाजी के कमरे का दरवाजा खोला। सभी को अंदर आने का ईशारा किया। कमरे में ताजे गुलाब और चंदन की मिली जुली भिनी-भिनी गंध थी। एक ओर देवी प्रतिमा के सामने जलता हुआ दीपक कमरे में एक आवृत बना रहा था। इसी आवृत में बाबाजी पद्मासन लगाये एक मोटे गद्दीदार आसन पर बैठे थे। बाबाजी के एक ओर कम्बल को आसन की तरह बिछाकर वानखेड़े जी माला फिरा रहे थे। बाबाजी के सामने छह-सात आसन बिछे थे जिन पर काशा, राम, स्काट और अनुराधा बैठ गये। बाबाजी के दांयी ओर एक आसन पर अखिल ध्यान मग्न बैठा था। उसके माथे पर बड़ा सा कुमकुम का तिलक था। उस पर चिपके पाँच सात चांवल के दाने हल्की रोशनी में चमक रहे थे। अखिल के बालों में भी जगह-जगह चांवल के दाने उलझे हुए थे। सबके बैठ जाने के बाद बाबाजी ने गंभीर आवाज में बोलना शुरू किया।
रिलेक्स......शरीर को ढीला छोड़ दो अब अपने हाथों को सीधा ऊपर उठाते हुए हु! हू! हू! की ध्वनि जितनी गहराई से हो सके उतनी गहराई से करते हुए ऊपर उछलें-नीचे कूदें.....। आपके शरीर में जितनी शक्ति हो इस क्रिया में लगा दें। अपने आपको पूरी तरह थका दें।
सभी हु! हू! हू! की ध्वनि करते हुए ऊपर-नीचे कूद रहे थे। बाबाजी बोले जा रहे थे।
सूफियों ने ‘हू‘ का उपयोग किया है। यदि तुम जोर से ‘हू‘ कहो तो यह ध्वनि भीतर से सीधे तुम्हारे कामकेन्द्र पर चोंट करती है। काम केन्द्र पर दो तरह से चोंट की जा सकती है। पहला तरीका प्राकृतिक है। जब कभी तुम विपरीत यौन के किसी व्यक्ति की तरफ आकर्षित होते हो तो तुम्हारे कामकेन्द्र पर बाहर से चोंट पड़ती है। जब बाहर से चोंट पड़ती है तो ऊर्जा बाहर की ओर बहने लगती है और फलित होता है ‘दूसरे का जन्म।’
‘हू‘ उसी काम ऊर्जा के केन्द्र पर भीतर से चोंट करता है और जब भीतर से चोंट पड़ती है तो ऊर्जा भीतर ही प्रवाहित होने लगती है। जो ऊर्जा बाहर से चोंट पड़ने पर नीचे की ओर बहती है। वही ऊर्जा अंदर से चोंट पड़ने पर ऊपर की ओर बहने लगती है। यही कंुडलिनी जागरण है। यही ऊर्जा जब तुम्हारे सारे चक्रों को भेदती हुई ‘ब्रह्मरंध्र’ पर पहुँचती है। तुम्हारे सबसे नीचे के केन्द्र से तुम्हारे सबसे ऊपर के केन्द्र पर। तब समाधि घटती है।
अब शांत बैठ जाओ, एकदम स्थिर। शरीर में कोई हलचल नहीं......कोई आवेग नहीं.....एकदम शांत.....स्थिर........तुम कुछ भी मत करो.........शरीर को मृतवान बना दो ताकि ऊर्जा उध्र्वगमन कर सके। इस वक्त तुम्हारे भीतर गहरा मौन है.........तुम देहरहित हो गये हो। तुम इस समय साक्षी मात्र हो। तुम देख रहे हो तुम्हारा मौन होना........ इस मौन में तुम्हारे भीतर जो भी घटेगा वह शब्दों के पार है। और एक बार जब यह मौन घट जाये तब तुम पहले जैसे नहीं रहोगे.........एकदम बदल जाओगे...........इसी पल से तुम वह नहीं रहोगे जो तुम थे। तुम्हारे भीतर एक नया जन्म होगा....... तुम्हारा एक नया स्वरूप होगा। सब शांत थे। सबके चेहरों पर नये अनुभव का आलोक था।
पहाड़ों की सुबह प्राणों के लिये संजीवनी होती है। रात को जमा देने वाली ठंड के बाद सुबह सूरज की तपिश धीरे-धीरे शरीर में ताप भरती। लगता है जैसे शरीर को कड़कड़ाती ठंड में रुई के गोलों के बीच लपेट दिया हो। बाबाजी के कमरे के सामने वाले दालान में कुछ भक्त और साधु धूप में बैठे अलसा रहे थे। घाटी में पहाड़ों की छाया लम्बी और लम्बी होती जा रही थी। साथ ही धूप की गर्माहट भी कम हो रही थी। तभी आश्रम में एक विचित्र वेशधारी साधु ने चार नागा साधुओं के साथ प्रवेश किया।
साधु अपनी कमर पर मृगछाल लपेटे हुए था। माथे पर भस्मी की तीन रेखाओं के बीच रक्तचंदन से एक बड़ी आँख बनी हुई थी। हाथ में बड़ा सा त्रिशूल था। गले, भुजाओं, कलाईयों और पैरों में बड़े-बड़े रूद्राक्ष की मालाएँ थी। चारों नागा साधु शरीर पर भस्मी लपेटे हुए थे।
इस मंडली ने दालान में प्रवेश करते ही ‘बम-बम‘ की ध्वनि की। आगे चल रहे साधु ने त्रिशुल को जोर से जमीन पर पटका। फिर कड़क आवाज में पूछा- ‘कहाँ है महायोगी’।
दालान में अलसा रहे भक्त इस साधु मंडली को कोतूहल से देखने लगे। एक नागा साधु ने एक भक्त से रोबदार आवाज में कहा ‘‘अपने गुरू को बोल हरिहर बाबा आये है।‘‘
भक्त तेजी से बाबाजी के कमरे में घुस गया और कुछ पलों में ही वापस लौट आया। भक्त के पीछे-पीछे बाबाजी भी थे। उन्होंने कमर के पास दोनों हाथ लाकर थोड़ा आगे की ओर झुकते हुए त्रिशूलधारी को प्रणाम किया और साधु की इस मण्डली को सम्मानपूर्वक अपने कमरे में ले गये। इसी बीच वानखेड़े जी सात-आठ साधुओं के साथ वहाँ पहुंच गये।
भक्तों के मन में इस साधुमण्डली के बारे में जानने की जिज्ञासा थी। उन्होने वानखेड़े जी को घेर लिया।उन्होंने माला फिराते-फिराते जवाब दिया ‘त्रिशुलधारी हरिहर महाराज’ बाबाजी के गुरु भाई हैं। साथ में आये चारों नागा साधु उनके चेले हैं।‘‘
‘‘इनका आश्रम कहाँ है?‘‘ दूसरे भक्त ने पूछा।
‘‘रमते जोगी हैं । ऐसा ही स्वांग बनाये घूमते रहते हैं।’’
‘‘अभी कुछ दिन तो ये आश्रम में रूकेंगे न! तीसरे ने पूछा।
‘‘नहीं भेंट-प्रसादी लेकर चल देगें। अपने बाबाजी तो सबके पालन हार है‘‘ कहते हुए वानखेड़े जी माला को हाथ से घुमाते-घुमाते सिर तक ले गये और फिर बुदबुदाये जय हो महायोगी.....महामंडलेश्वर........की।‘‘
‘‘बाबाजी के गुरु कौन है‘‘ एक ने पूछा।
‘‘श्री श्री एक सौ आठ हरिओम महाराज‘‘
‘‘बाबाजी के गुरु अभी हैं‘‘
‘‘हाँ, है क्यों नहीं। मथुरा के पास बाबाजी के दादा गुरु का आश्रम है। बाबाजी के दादागुरु श्री श्री एक हजार आठ अवतार बाबा है। वो बहुत तेज तर्रार संत है। कभी-कभी आते है तो आश्रम में हड़कम्प मच जाता है। माईयाँ डर के मारे तहखाने में छुप जाती हैं। पर बाबाजी के गुरु एकदम गऊ हैं। दो जोड़ भगवा कपड़े के अलावा कुछ अपने पास नहीं रखते। जिंदगी गुजार दी अपने गुरु की सेवा में। ऐसे गऊ प्राणी का जीवन भी साधु समाज में बड़ा कठिन होता है।‘‘ कहते-कहते वानखेड़े चुप हो गये और ऊंगलियों से माला के मनकों को तेज-तेज घुमाने लगे।
वानखेड़े जी के चुप होते ही लोग आपस में बतियाने लगे।
‘‘सही है भैया सीधे सच्चे आदमी की तो आजकल कहीं भी गत नहीं हैं।‘‘
‘‘पर कुछ भी कहो सत तो सीधे-सच्चे आदमी में ही होता है।‘‘
‘‘सही कह रहे हो। अपने बाबाजी में भी गुरु के सत का ही बल है।‘‘
‘‘ऐसा नहीं है। बाबाजी का अपना तप है। तभी तो अपने गुरु से आगे निकल गये हैं।‘‘
‘‘सही है बाबाजी जैसा सक्षम गुरु हो तो सबको तार देता है अपने गुरू को भी‘‘
बाहर बातचीत चल रही थी इसी बीच बाबाजी के कमरे का दरवाजा खुला और त्रिशुलधारी और नागा साधुओं की मंडली बाहर निकली। बाबाजी दरवाजे पर आकर खड़े हो गये। मंडली ने बम-बम की ध्वनि की और तेज कदमों से बाहर जाने के लिये सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। आश्रम से बाहर निकलकर मंडली भवाली जाने वाले रास्ते पर बढ़ गई।
‘‘महाराज ने आश्रम तो बड़ा भारी बनाया है‘‘ एक नागा साधु ने चलते-चलते कहा।
‘‘ताम झाम भी खूब है‘‘ दूसरे ने जोड़ा।
हिमालय में रहने वाले सारे मठाधीशों के तामझाम हरिहर जानता है। इसीलिये कोई भी हरिहर महाराज से ज्यादा चूंऽचांऽऽ नहीं करता। जाते ही चुपचाप भेंट दे देता है।‘‘
‘‘हाँ महाराज ये तो हमने देखा है।‘‘
‘‘आज भी, कैसे जाते ही महायोगी ने पहले इक्यावन हजार की भेंट सामने रखी फिर प्रसादी। तुम लोगों को कितनी-कितनी भेंट मिली‘‘
‘‘पाँच-पाँच हजार महाराज‘‘
‘‘तो हिसाब से दो-दो हजार निकालो’’
चारों साधुओं ने दो-दो हजार गिनकर हरिहर महाराज के हवाले किये। हरिहर महाराज करारे-करारे नोट गिनकर अपने झोले में रखते हुए बोले।
‘‘हमारे साथ रहोगे तो ऐसा ही आनंद रहेगा‘‘
‘‘तभी तो गोपी बाबा का आश्रम छोड़कर आपसे हीलगे हैं महाराज‘‘
‘‘तुम्हारा गोपी बाबा तो हमको देखते ही अपनी चेली को गाड़ी में बिठाकर पीछे के रास्ते से हरिद्वार भिजवा देता है‘‘ यह बात त्रिशूलधारी ने अपनी गरदन को थोड़ा सा पीछे घुमाते हुए एक आँख दबाकर कहा।
‘‘महाराज सुना है, महायोगी ने भी तीन-चार चेलियाँ रख छोड़ी है‘‘
‘‘साधु के पास थोड़ा सा पैसा आते ही वह सबसे पहले चेली पालने का काम करता है। हिमालय में बेचारा यह महायोगी अकेला नहीं है जो चेलियाँ पाल रहा है।
‘‘आपने कभी चेलियाँ नहीं पाली महाराज।‘‘
‘‘अपने राम कभी इस लफड़े में नहीं पड़े। हमेशा छुट्टा काम रखा है।
‘‘आप का काम एकदम चोखा है महाराज।‘‘
मंडली चल रही थी। बातें उड़ रही थी।
उधर बाबाजी के कमरे का दरवाजा बंद था। बाहर ब्रह्मचारी किसी सजग प्रहरी की तरह खड़ा हुआ था। अंदर बाबाजी सूर्यगिरी को कुछ समझा रहे थें
‘‘कालीचोर वाले देवी मंदिर में जो साधु रहता है उसे आज रात यहाँ ले आओ।’’
‘‘जी बाबाजी’’
‘‘लाकर स्टोर में रूकवा देना’’
‘‘जी बाबाजी’’
‘‘यह काम बहुत सावधानी से करना। तुम्हारे जाने और उसके आने की भनक किसी को नहीं लगनी चाहिए।’’
‘‘आप निश्चिंत रहिये। किसी को भनक भी नहीं लगेगी। आप आज्ञा दें तो दिव्यानंद को साथ ले जाऊँ।’’
‘‘नहीं बेटे, दिव्यानंद अच्छा साधु है। लेकिन उसके साथ एक दिक्कत है। वह सोचता भी दिल से है। दिमाग का उपयोग नहीं करता है। तुम शर्मा को ले जाओ।’’
‘‘जी बाबाजी’’ कहते हुए सूर्यगिरी कमरे से बाहर निकल गये।
बाबाजी मसनद पर ही लेट गये।
क्रमश..