Man Ki Baat - 2 in Hindi Moral Stories by Kusum Agarwal books and stories PDF | मन की बात - 2 - अभी जिंदगी और है..…..

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मन की बात - 2 - अभी जिंदगी और है..…..


सुबह का 5:00 बजे का अलार्म लगा कर सोने की आदत पुरानी हो चुकी थी। अब तो विभा की नींद अलार्म बजने से पहले ही खुल जाती थी और वह यंत्रबद्ध सी सीधे रसोई की ओर जाती थी ताकि ताजा पानी भरने से न चूक जाए। नित्यकर्म से निपटने के बाद पूरे दो घंटे रसोई में ही परिक्रमा करती। दूध उबालना, नाश्ता बनाना, टिफिन पैक करने आदि कई काम थे। हालांकि वह इन सब कामों की अभ्यस्त हो चुकी थी, फिर भी समय तो देना ही पड़ता था।


उठने से लेकर बच्चों को स्कूल भेजने तक समय कब पंख लगाकर उड़ जाता था, पता ही नहीं चलता था। इसी बीच चाय बनाकर सुधीर को उठाना भी इसी में शामिल था।


सुधीर एक आदर्श पति तो नहीं, व्यस्त पति अवश्य था। उठने के बाद चाय पीकर ऑफिस जाने के लिए तैयार होने के काम में वह विभा को भी अपने साथ लगाए रखता था।


“टिफिन पैक कर दो, लैपटॉप बैग सामने रख दो, मोबाइल चार्ज में लगा दो” , इत्यादि कामों के लिए उसे विभा की जरूरत पड़ती थी। बच्चे भी इसी श्रेणी में आते थे। लेट उठना फिर हड़बड़ाहट में सब काम करना उनकी आदत में शुमार था। भागते-भागते नाश्ता करना तथा अक्सर अपनी कॉपी-किताबें कमरे में ही भूल आना उनकी रोज की कहानी थी। वह भी उनकी इस आदत को खूब पहचानती थी और आगे से आगे उनकी सहायता के लिए तैयार रहती थी।


खैर समय यूँ ही गुज़रता रहा। बच्चे बड़े हो गए और अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए। अब वे इतने लापरवाह नहीं रहे थे कि हर वक्त उनकी चिंता रहे। समीर भी पहले से अधिक जिम्मेदार और गंभीर हो गए थे। पहले जैसी व्यस्तता भी नहीं रही थी।


और आज इस तरह विभा को आईना देखने का मौका मिल ही गया। शायद इससे पहले स्वयं को ध्यान से उसने कई सालों पहले देखा था। उसे लगा वह पहले से कुछ मोटी हो गई है। बालों में सफेदी झलकने लगी है और चेहरा भी पहले जैसा सुडौल नहीं रहा। उस दिन उसे एहसास हुआ कि वह प्रौढावस्था में कदम रख चुकी है।


उससे अलमारी खोल कर देखा। उसमें पड़ी सुंदर-सुंदर साड़ियां मानो उससे कुछ कहना चाहती हैं, उसे लगा।


“हमारा इतना तिरस्कार क्यों? हमें इतने सालों से क्यों नहीं पहना गया?”, शायद वे शिकायत करना चाहती थीं। उसे लगा कि इसी तरह गहने चूड़ियां तथा मेकअप का सामान भी कुछ बोलना चाहते थे।


“अब तुम पड़े रहो। अब मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं। अब मेरी उम्र हो चली है । अब तो बहू आएगी, बेटी का विवाह करूंगी। तुमसे उनके काम आना। मेरी तो अब दादी-नानी बनने की उम्र हो चली है। अब तुम्हें पहनकर मुझे जग-हंसाई थोड़ी ही करानी है। हां, पहले अवश्य पहन सकती थी पर उन दिनों व्यस्तता इतनी अधिक थी कि अपनी ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिला। जब बच्चे छोटे थे उन को पालना-पोसना अधिक जरूरी था। साड़ी गीली कर देंगे तो खराब हो जाएगी या इन पर लगे सितारे उन्हें चुभ सकते हैं, इसका भी ध्यान रहता था जब बच्चे कुछ बड़े हुए तो उनकी पढ़ाई लिखाई और परीक्षा के कारण किसी पार्टी या विवाह में जाने का मौका ही नहीं मिलता था। इन.औऔऔऔ सब से थोड़ी राहत मिलती थी तो समीर की नौकरी आड़े आ जाती थी। हर बार मन को मारना पड़ता था। उसकी बनने-संवरने तथि नाचने-गाने की तमन्ना दिल की दिल में ही दबी रह गई।”


खैर इनसे इतना अधिक नुकसान नहीं हुआ था। इससे अधिक नुकसान तो अपने शौक दबाकर हुआ था। उनको पूरी करने की भी उम्र नहीं रही थी क्योंकि ना तो अब शरीर में इतनी सामर्थ्य ही बची थी और ना उमंग।


युवावस्था की बात ही कुछ और होती है। शरीर उर्जा से भरा रहता है। स्फूर्ति वान रहता है और कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश रहती है पर एक गृहणी गृहस्थी के जंजाल में फंस कर सब भूल जाती है और जब याद करती है उस समय तक मन को मारने की आदत हो जाती है और वह उसी ढर्रे पर अपना जीवन जीती जाती है, बिना किसी शिकायत या गिला शिकवा के।


विभा की पूंजी, जो उसने अब तक के जीवन में कमाई थी, वह थी उसके बच्चे। वह उनको देखकर ही संतोष कर लिया करती थी। पर अब उसे ऐसा लगता था कि मानो उनके भी पंख निकल आए हो और वह दूर कहीं उड़ने के लिए फड़फड़ा रहे हों। उन्हें कब तक पिंजरे में बंद रखा जा सकता था? खैर यह तो होना ही है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि बच्चे युवावस्था में स्वतंत्रता चाहते हैं और हमें देनी भी चाहिए।


विभा ने भी आधुनिक समय के अनुसार बच्चों को पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी थी और इसी के परिणाम स्वरुप बेटे राहुल की एक गर्लफ्रेंड भी थी।


परंतु कई बार विभा को महसूस होता था कि बच्चे जीवन की आपाधापी में उसे भूल गए हैं और वह तो केवल उनके स्वार्थ पूर्ति का जरिया मात्र है । अब उसे अपनी जिंदगी वीरान नजर आती थी मानो जीने का कोई उद्देश्य ही नहीं रहा हो। बच्चों के विवाहोपरांत तो हालत और भी खराब होने वाली है । आनेवाले अकेलेपन का एहसास उसे और भी चिंतित कर देता था।


“मां, तैयार हो जाओ। आपको मेरे साथ चलना है”, राहुल ने विभा से कहा।


“नहीं, अभी कैसे जा सकती हूं? सारा काम पड़ा है। खाना भी नहीं बना है।”


“आज हमारी छुट्टी है। क्या हड़बड़ी है इन सब कामों की? फिर निशा है ना, वह सब संभाल लेगी।”


“आज तो शुक्रवार है, छुट्टी कैसे?


और इससे पहले कि विभा कुछ सोचती, राहुल बोला, “अरे भई, आज हमने छुट्टी ली है। थक गए हैं सारे दिन ऑफिस की मारा-मारी से।चलो, आप मेरे साथ चलो। एक जरुरी काम है।”


“पर कहां? जरूर अपनी गर्लफ्रेंड के घर ले जा रहा होगा। आज कल के बच्चे ऊंच-नीच का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखते या फिर शॉपिंग के लिए जा रहा होगा और मुझे बेवजह घसीट रहा है।”

और विभा तैयार होकर राहुल के साथ चल दी। सचमुच राहुल ने गाड़ी एक मॉल के सामने रोक दी। मन ही मन, अपना अनुमान सच होते देख, विभा मुस्कुरा रही थी।


अंदर जाकर राहुल एक साड़ी की दुकान की ओर बढ़ा तो वह हतप्रभ सी देखती रह गई। राहुल साड़ी का क्या करेगा? शायद उसकी गर्लफ्रेंड का जन्मदिन आ रहा होगा, उसने सोचा और राहुल के साथ दुकान के अंदर चल दी।


“मां एक सुंदर साड़ी पसंद करो। किसी को उपहार देना है” राहुल ने कहा तो वह साड़ी पसंद करने में व्यस्त हो गई। आखिर उसने अपने स्वभाव अनुसार सुंदर व शालीन साड़ी पसंद कर ली।


“चल अब तूं भी तेरे लिए कपड़े ले ले। पहले वाले कपड़े काफी पुराने हो गए हैं।”


पर राहुल तो एक ब्यूटीपार्लर की ओर बढ़ रहा था।


इन्हें जितने ट्रीटमेंट की जरूरत है, दे दो।आज शाम एक पार्टी में जाना है । इन्हें यह साड़ी पहना कर तैयार कर देना। बाकी चीजों का इंतजाम तुम खुद कर लेना। मैं पेमेंट कर दूंगा”, राहुल ने ब्यूटीपार्लर की मालिकिन से कहा।


विभा इस अप्रायश्चित योजना के लिए तैयार नहीं थी। वह बोली, “पर कौन सी पार्टी? और यह सब मैंने पहले कभी नहीं करवाया और इस उम्र में यह चोंचले? मुझे अच्छा नहीं लगेगा।”


“पर हमें अच्छा लगेगा। आप हमारे लिए इतना कुछ करतीं हैं, यह भी कर लीजिए।”


और शाम को जब राहुल विभा को लेने आया तो एकटक देखता रह गया। यूं तो अपनी मां उसको हर रूप में ही सुंदर लगती थी और आज वह वास्तव में बहुत सुंदर लग रही थी। राहुल भी तैयार होकर आया था। वह दोनों एक होटल की ओर चल दिए।


विभा भी दर्पण में अपना नया रुप देख कर काफी प्रसन्न थी। उस पर नई साड़ी भी काफी खिल रही थी। पर अभी भी उसे यह सब बड़ा अटपटा लग रहा था। रहस्य पर अभी भी पर्दा पड़ा हुआ था।


पर यह रहस्य शीघ्र ही खुल गया। होटल में निशा व समीर समेत कई अन्य करीबी रिश्तेदार भी मौजूद थे।

जब सभी समीर और विभा को मुबारकबाद देने लगे तो वह चौंक गई।


“शादी की 25वीं सालगिरह मुबारक हो!”


“ओह! मैं तो भूल ही गई थी। कितनी बेवकूफ है वो जो अपनी सिल्वर जुबली भी ना याद रख सकी! अगर आज ये बच्चे न होते तो ये खास दिन यूं ही निकल जाता।”


“मैनी मैनी रिटर्नस ऑफ द डे!” ,कहते हुए जब निशा ने विभा को उपहार दिया तो उससे रहा ना गया।


“इसमें क्या है? , वह पूछ ही बैठी।


“खोल कर देख लीजिए आपका ही है “ ,कह कर निशा हंस पड़ी तो विभा ने झटपट रैपर फाड़ दिया।


पैकेट में कई तरह के रंग व वर्षों पुरानी एक अधूरी पेंटिंग थी जो घर के एक कोने में सदा उपेक्षित पड़ी रहती थी।


“मां, आपको पेंटिंग करने का शौक है , यह हम जानते थे। आपने हमारी परवरिश करने के लिए सब भुला दिया। पर अब आप फिर से पेंटिंग करेंगीं, हम से वादा कीजिए वरना हमें एक अपराध बोध सदा सताता रहेगा।”


विभा की आंखों में खुशी के तारे टिमटिमा उठे। उसने निशा और राहुल को गले से लगा लिया।


उसने ऊपर देखा। रेस्टोरेंट के छत पर बिखरे इंद्रधनुषी रंग अपनी अनुपम छटा बिखेर कर उसके सुंदर भविष्य का स्वागत कर रहे थे मानो उससे कह रहे हों - अभी जिंदगी और है।


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