Jine ke liye - 4 in Hindi Women Focused by Rama Sharma Manavi books and stories PDF | जीने के लिए - 4

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जीने के लिए - 4

पूर्व कथा जानने के लिए पिछले अद्ध्यायों को अवश्य पढ़ें….

गतांक से आगे………

चतुर्थ अध्याय

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अब तक की जिंदगी में रातें तो कई जागकर काटी थीं, परन्तु इतनी लंबी, काली अंधेरी रात कभी नहीं लगी थी।जब परीक्षा के पहले रात भर जाग कर पढ़ती थी तो माँ नाराज होकर कहती थीं कि रात भर जागने से दिमाग थक जाएगा तो पेपर के समय नींद आने से ठीक से जबाब नहीं लिख पाएगी,परन्तु उसे लगता कि यदि वह सो गई तो याद किया हुआ सब भूल जाएगा।

सहेलियों, रिश्तेदारों की शादियों में पूरी रात जागकर पूरे रस्मों-रिवाजों का आनंद उठाना उसे बेहद पसंद था।अपना विवाह तय होते ही कई रातों को जागकर तमाम सपने सजाने में उसे असीम ख़ुशी प्राप्त होती थी।विवाह की रात्रि में एक-एक रस्म को पूरे मन से पूर्ण किया था।

सुहागरात को भी सेज पर पति के खर्राटों के मध्य आशा-निराशा के झूले में झूलते हुए रतजगा किया था।उस रात को समझा लिया था कि शायद विक्रम वाकई थके हुए हैं, किन्तु उसे कहां ज्ञात था कि उसके सुंदर सपनों के रंग चटक होने से पहले ही मेंहदी के रँगों के साथ फीके पड़ते चले जाएंगे।

जब उसने विक्रम की अपने लिए नापसन्दगी की बात जानी थी, तब कहीं उसके मन में दृढ़ विश्वास था कि वह अपने गुणों एवं सेवा-स्नेह भाव से पूरे परिवार सहित विक्रम को भी अपने असीम प्रेम पाश में बांध लेगी।परन्तु बीतते समय के साथ विक्रम की बढ़ती बेरुखी ने उसके मन में निराशा के भाव उत्पन्न करने प्रारंभ कर दिए थे।फिर भी कहीं न कहीं एक उम्मीद की किरण बाकी थी कि शायद उम्र बढ़ने पर बच्चों का प्यार उन्हें वापस घर लौटा लाएगा।

परन्तु आज असली वजह जानकर उसे समझ आया कि दोष उसका था ही नहीं।विक्रम ने तो दूसरा परिवार ही बसा लिया था।आज उसके अंदर की स्त्री आहत होकर मरणासन्न हो गई थी।अब तक के कर्तव्यपूर्ति का क्या पुरस्कार दिया था विक्रम ने।छली जाती है स्त्री सदैव कभी प्रेम के नाम पर, कभी त्याग-कर्तव्य की देवी बनाकर हर समझौते उसे करने को विवश कर दिया जाता है।गोया घर को बनाने-संभालने-बचाने की सारी जिम्मेदारी एक औरत की ही होती है।उसपर त्रासदी यह कि जब चाहे उसे धक्के मारकर अपनी जिंदगी से, घर से बाहर कर देते हैं।

देर तक बिसूरने के पश्चात घायल आत्मसम्मान ने पत्नी के ओहदे का त्याग कर दिया, अब वह सिर्फ मां रह गई थी, जो भी फैसला लेना था, सिर्फ अपने बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए लेना था।

सुबह होते ही मंगलसूत्र, बिछुए उतारे, सिंदूर की डिब्बी को ड्रेसिंग टेबल पर से हटाया एवं स्नान करते समय पानी के साथ मांग के सिंदूर को भी बहा दिया, बहा दिया साथ में अपने मन की बची खुची कोमल भावनाओं को भी।

नाश्ते के बाद परिवार के सामने अपना फैसला सुनाने से पहले सास-ससुर से पूछा कि सर्वप्रथम आप निर्धारित कीजिये कि आप मेरे साथ रहना चाहते हैं या आगरा विक्रम के साथ जाना चाहते हैं ।ससुर की अनुभवी आंखों ने विक्रम की अनकही असहमति को भांप लिया था, अतः कहा कि यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो हम दोनों तुम्हारे पास ही रहना चाहते हैं।

आरती ने ससुर जी से कहा कि फिर ठीक है, अब मैं अपना निर्णय आप सबके सामने रखती हूं।सर्वप्रथम तो मुझे तलाक नहीं लेना है क्योंकि मैं अपने बच्चों को पितृविहीन नहीं देखना चाहती, लेकिन आज के बाद से मैं विक्रम से पति-पत्नी का रिश्ता समाप्त करती हूं।

दूसरी बात यह है कि आप दोनों चूँकि हमारे साथ हैं अतः आपकी जिम्मेदारी मेरी है, इसलिए विक्रम की सैलरी का दो हिस्सा हमें मिलना चाहिए।साथ ही मेरे दोनों बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए विक्रम की जमा-पूंजी में से आधा मेरे बच्चों के नाम स्थानांतरित किया जाय।

तीसरी बात कि यह मकान आपका बनवाया हुआ है, इसलिए इसमें से विक्रम का हिस्सा मेरे नाम किया जाय,जिससे मैं कुछ सुरक्षित महसूस कर सकूं।आगरा में तो पूरा मकान विक्रम ने दूसरी पत्नी के लिए ले रखा है।

विवाद का तो प्रश्न ही नहीं उठता था क्योंकि पिता-भाई का पूरा दबाव था विक्रम के ऊपर, फिर बिना ज्यादा झगड़े फसाद के मामला सुलझ रहा था, अतः आरती की सारी बातें मान लेने में ही भलाई थी।

एक-दो दिन में ही राहुल ने दौड़ भाग कर सारी कागजी कार्यवाही पूर्ण करवा दिया, रुपए दोनों बच्चों के नाम फिक्स करा दिए।घर की रजिस्ट्री राहुल केवल आरती के नाम करवाना चाहता था, किन्तु आरती ने आधा हिस्सा ही स्वीकार किया क्योंकि वह किसी के अधिकारों का हनन नहीं करना चाहती थी, हालांकि राहुल स्वयं काफी अच्छी स्थिति में था, फिर भी दादा की संपत्ति में राहुल के बेटे का हक तो था ही ।

खैर, सभी कार्य निबट जाने के बाद राहुल-विक्रम वापस हो गए और आरती अपने बिखरे जीवन के टुकड़े समेटने में लग गई।अभी उसकी उम्र ही क्या थी,35-36 वर्ष की आयु में अकेलेपन की त्रासदी झेलने को विवश थी।विधवा होती तो फिर भी जमाने की सहानुभूति प्राप्त होती।अब तो निष्ठुर समाज उसी पर उंगलियां उठाएगा।पुरुष की हर त्रुटि क्षमायोग्य होती है।

यह समाज कभी भी निष्पक्ष कहां रहा है।राम-लक्ष्मण भी तो वन-वन भटके थे,परन्तु अग्निपरीक्षा एवं पुनः वनवास तो केवल सीता के लिए था।महाभारत युद्ध धृतराष्ट्र, दुर्योधन के सत्ता लोलुपता का दुष्परिणाम था, परन्तु आरोप द्रोपदी पर थोपा गया।आज भी महिलाएं तमाम अत्यचारों को बर्दाश्त करती हैं, किन्तु विरोध करने का साहस नहीं जुटा पातीं समाज के भय से।

विक्रम पूर्ववत 2-3 माह में एक बार आकर अपने माता-पिता तथा बच्चों से मिल जाते, आरती मेहमान की तरह खाने-नाश्ते की व्यवस्था कर देती।

क्रमशः …….

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