जय श्रीकृष्ण बंधुवर!
श्रीगीता जी के अशीम अनुकम्पा से आज श्री गीताजी के १५ वें अध्याय को लेकर उपस्थित हूँ श्रीगीताजी के अमृतमय शब्दो को पढ़कर आप सभी अपने जीवन को कृतार्थ करे भगवान की कृपा आप सब बन्धुजनों पर बनी रहे।
जय श्रीकृष्ण!
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🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-१५🙏श्री भगवान बोले- संसार, अश्वत्थ(पीपल) के समान है, जिसका पुराना पुरुष रूप जड़ ऊपर है और चराचर शाखा नीचे है, वेद इसके पत्ते हैं, जो यह जानता है वही वेद का ज्ञाता है। इसकी शाखायें ऊपर फैली हुई हैं। सत्व, रजं तमोगुण इसकी रस वाहिनी नसें है इससे इनका पालन होता है। शब्द, रूप आदि इसको डालियाँ हैं। पीछे कर्म रूप में प्रकट होने वाली इसकी जड़े, नीचे मनुष्य लोक में और भी नीचे तक चली गई हैं। पर अश्वत्थ का यह रूप इनका आदि अन्त और आकार संसारी प्राणी के ध्यांन में नहीं आता, तथापि इसकी जड़ गहरी है। ऐसे इस पीपल को वैराग्य रूपी दृढ़शस्र से काटकर वह स्थान ढूंढना चाहिए जहां फिर लौटना नहीं पड़ता और साथ ही यह विचारना चाहिए कि जिसमें वह पुरातन प्रवृत्ति उत्पन्न हुई है उसी आदि पुरुष की मैं शरण हूँ। अहंकार और मोह रहित, संगदोष को जीतने वाले, आत्मज्ञान से निरत, सब कामनाओं से दूर सुख-दुख नामक द्वन्द पदार्थों से मुक्त, ऐसे ज्ञानी पुरुष शाश्वत पद को पातें है। जिसे सूर्य-चन्द्र या अग्नि प्रकाशित नहीं करते , वहीं मेरा परम धाम है, वहां जाकर लौटना नहीं होता। मेरा सनातन अंश इस जीव लोक में जीव का रूप धर कर, प्रकृति में स्थित पाँचों इन्द्रियों और छठे मन को उससे छुड़ाता है। जैसे वायु पुष्पादिकों की गंध को दूसरे स्थान में ले जाती है। इसी प्रकार यह देह स्वामी शरीर धारण करने के बाद जब उस का परित्याग करता है, तब इन्द्रियों ओर मन को साथ ले जाता है। कान, आंख,चर्म जीभ, नाक और मन का आश्रय लेकर वह जीव विषयों का भोग करता है। एक देह से दूसरी देह को जाते, अथवा एक ही देह में रहते समय, अथवा इन्द्रियों से युक्त हो विषयों का उपभोग करते हुए इसको मूर्ख देख नहीं सकते, किन्तु जिनके ज्ञान रूपी नेत्र हैं वे देखते हैं। यत्न करने से योगीजन इसे देख सकते हैं, परन्तु अज्ञानी यत्न करके भी इसे नहीं देख पाते। जो तेज सूर्य, चंद्रमा और अग्नि में विघमान है और जगत को प्रकाशित करता है, उसे मेरा ही तेज मानो। मैं ही पृथ्वी में प्रवेश कर अपने तेज से समस्त भूतों को धारण करता हूँ और इनमें भरा हुआ चन्द्रमा बनकर मैं ही सब औषधियों का पोषण करता हूँ। मैं जठरागिन होकर प्राणियों के देह में प्रविष्ट हूँ और प्राणवायु अपानवायु से संयुक्त होकर चारों प्रकार (भक्ष्प्य, भोज्य, चोष्य, लहे) से भोजन किए हुए प्राणियों के अन्न को पचाता हूँ। सम्पूर्ण भूतों के ह्रदय कमल में निवास करता हूँ, मुझसे ही स्मृति ज्ञान और उनका नाश होता है। सब वेदों के जानने योग्य मैं ही हूँ, वेदान्त का कर्ता और वेदों का ज्ञानी मैं ही हूँ। इस संसार में क्षर कहलाते हैं। और उसमें कूटस्थ अर्थात शैल शिखर के भाँति चैतन्य को अक्षर कहते हैं। किन्तु उत्तम पुरुष परम-आत्मा विकार रहित, सर्व नियंता, बद्ध मुक्त नित्य रूप, तीनो लोकों में प्रविष्ट होकर धारण पोषण करता है। वह इन दोनों से अलग है। मैं क्षर और अक्षर से उत्कृष्ट हूँ। हे भारत! जो उत्तम ज्ञानी इस प्रकार से मुझको पुरुषोत्तम जानता है और सर्वतोभावेन मेरा ही स्मरण करता है। हे भारत! शास्त्र के गुह्रा भेद को, जो मैंने कहा है, जानकर बुद्धिमान पुरुष कृत-कृत्य होता है।
अथ श्रीमद्भगवतगीता का पन्द्रहवां अध्यायय समाप्त।
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🙏अथ पन्द्रहवें अध्यायय का महात्त्म्य🙏
श्री नारायणजी बोले- हे लक्ष्मी! अब पन्द्रहवें अध्यायय का महात्त्म्य सुनो। उत्तर देश में एक नृसिंह नाम का राजा था और सुभग नाम मन्त्री था राजा को मंत्री पर बड़ा भरोसा था, मंत्री के मन मे कपट था मंत्री चाहता था राजा को मार कर यह राज्य में हो करूँगा इसी भांति कुछ काल व्यतीत हुआ एकदिन राजा नौकर चाकरों सहित सो रहा था तब मंत्री राजा के सारे नौकरों समेत मारकर राज्य करने लगा। राज्य करते बहुत काल व्यतीत हुआ। एक दिन वह भी मर गया यमराज के साथ यमदूत बांधकर ले गये। धर्मराज ने कहा- हे दूतों! यह बड़ा पापी है इसको घोर नरक में डालो। है लक्ष्मी! इसी प्रकार वह पापी के नर्क भोगता-२ धर्मराज की आज्ञा से घोड़े की योनि में आया। संगलद्वीप में जाय घोड़ा भया। बड़े घोड़ो का सौदागर उसे मोल ले तथा और भी घोड़े खरीद कर अपने देश को चला चलते-२ अपने देश में आया तब वहां के राजा ने सुना कि अमुक सौदागर बहुत से घोड़े ले आया है। तब राजा ने उसे बुलाया, देखकर घोड़े खरीदे उस घोड़े को बजी खरीदा जब घोड़े को फेरा तब राजा को देखकर इसने सिर फेरा राजा ने देखकर कहा यह क्या बात है घोड़े ने हमको देखकर सिर फेर है। इसका क्या कारण? पंडित ने कहा- हे राजन्! इस घोड़े ने तुमको सिर नवाया है राजा ने कहा यह बात नहीं कि दिन पीछे राजा शिकार खेलने को उसी घोड़े पर सवारी करके गया। वह घोड़ा जल्दी चलता था राजा शिकार खेलते-२ बहुत दूर चला गया उसदिन हाथोहाथ राजा शिकार पकड़कर मारें राजा बहुत प्रसन्न हुआ दोपहर हो गयी राजा को तृषा लगी, वन में एक अतीत देखा कुटियव में बैठा है तालाब जल से भरा है वहां राजा उतरा घोड़ा वृक्ष से बांध कर कुटिया में गया देखा तो साधु अपने पुत्र को गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ सिखा रहा है वृक्ष के पत्ते और श्लोक लिख दिया है बालक को कहा खेलते फिरो और इसको कंठस्थ भी करो, जिस वृक्ष से राजा ने घोड़ा बांधा था उसी वृक्ष के पत्ते पर श्रीगीताजी का श्लोक लिखा था वह बालक पत्ता लेकर खेले भी और पढ़े भी। उस पत्ते को घोड़े ने देखा तत्काल उसकी देह छूटी देव देहि पाई स्वर्ग से विमान आये तिस पर बैठ बैकुण्ठ को चला। इतने में राजा पानी पीकर बाहर आया देखा तो घोड़ा मरा पड़ा है। राजा चिन्तवान होकर बोला यह घोड़ा किसने मारा इसे क्या हुआ? इतने में वह बोला- हे राजन्! तेरे घोड़े का चैतन्य मैं हूँ मैंने अब देव देह पाई है बैकुण्ठ को चला हूँ। राजा ने पूछा तुमने कौन पूण्य किया है उसने कहा- हे राजन्! यह बात ऋषिवर से पूछो। राजा से मुनीश्वर ने कहा- हे राजन्! गीता का श्लोक लिखा हुआ पत्ता इसके आगे पड़ा है घोड़े ने अक्षर देखे हैं इस कारण घोड़े की गति हुई। राजा ने पूछा पीछे घोड़े कौन था और घोड़े के सिर फेरने की बात भी राजा ने कही। मुनीश्वर ने कहा- राजन्! पिछले जन्म में तू राजा था यह तेरा मंत्री था, यह तुमको मारकर राज्य करता रहा तो फिर राजा हुआ। यह मरकर धर्मराज के पास गया धर्मराज ने धिक्कार कर कहा इस पापी कृतघ्न को खूब नरक भगाओ। बड़े नरक भोगता-२ घोड़े के जन्म में आया संगलद्वीप से आकर तेरे पास बिका जब इसने सिर हिलाया और कहा था हे राजन्! तू मुझे पहचानता नहीं परन्तु में तुझे पहचानता हूँ यह कहकर ऋषि चुप हो गये। राजा ने विस्मित होकर दण्डवत को पीछे से और सेना के लोग आये मील राजा सवार होकर अपने घर आया अपने पुत्र को राज्य देकर आप बन को गया तप करने लगा श्रीगीताजी के पन्द्रहवें अध्याय का पथ किया करे जिसके प्रसाद से राजा भी परम गति का अधिकारी हुआ। श्रीनारायणजी बोले- हे लक्ष्मी! पन्द्रहवें अध्यायय का यह माहात्म्य मैंने तुमको सुनाया है।
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💝~Durgesh Tiwari~