पूर्णता की चाहत रही अधूरी
लाजपत राय गर्ग
नौवाँ अध्याय
दस-ग्यारह दिन हो गये थे प्रमोशन हुए, लेकिन यमुनानगर में हालात अभी भी सामान्य नहीं हुए थे। आन्दोलन की आड़ में होने वाली हिंसक तथा आगज़नी की घटनाओं के चलते कर्फ़्यू अभी जारी था। दैनंदिन की आवश्यकताओं की आपूर्ति हेतु प्रतिदिन कर्फ़्यू में दो घंटे की ढील दी जाती थी। अब हरीश के पास ज्वाइन करने के सिवा कोई विकल्प नहीं था। अतः उसने मीनाक्षी से फ़ोन पर बात की और सोमवार को ज्वाइन करने का मन बना लिया। स्वयं की कार न ले जाकर सरकारी वाहन से जाना उचित समझा। यमुनानगर में आम जनजीवन की भाँति ही सरकारी कार्यालयों में भी कामकाज सुचारू ढंग से आरम्भ नहीं हुआ था। जब हरीश यमुनानगर ज्वाइन करने आया तो उसके ठहरने की अस्थायी व्यवस्था उसके स्टाफ़ ने एक ठेकेदार के होटल में कर रखी थी, क्योंकि विश्रामगृह में तो पैरा मिलिटरी वालों ने डेरा डाला हुआ था। लेकिन हरीश ने किसी व्यक्ति विशेष के होटल में रुकना ठीक नहीं समझा। तब एक ही विकल्प था - डिस्टिलरी का गेस्टहाउस। हरीश ने वहीं रुकना पसन्द किया। चाहे पुलिस और पैरा मिलिटरी की टुकड़ियाँ रात भर पेट्रोलिंग करती थीं, फिर भी ज़िला उपायुक्त ने निर्देश जारी किये हुए थे कि सभी सरकारी विभागों के इंचार्ज अपने कर्मचारियों में से दो-दो, चार-चार की रात को निगरानी रखने के लिये ड्यूटी लगायेंगे। ऑफिस टाइम के बाद हरीश सरकारी कार डिस्टिलरी में रुकवा कर ड्राइवर को अपने घर जाने देता था। एक दिन रात के दो-अढ़ाई बजे ऑफिस में ड्यूटी दे रहे कर्मचारियों में से एक ने फ़ोन करके हरीश को सूचित किया कि सड़क की ओर वाली पहली मंज़िल के एक कमरे से आग की लपटें निकल रही हैं। उन्होंने फायरब्रिगेड को सूचना दे दी है और खुद भी आग बुझाने की कोशिश कर रहे हैं। हरीश ने फटाफट कपड़े बदले और तुरंत कार लेकर ऑफिस के लिये चल पड़ा। जाते-जाते गेट-कीपर को बताकर गया कि क्यों और कहाँ जा रहा है। उसके पहुँचने के कुछ मिनटों बाद ही फायरब्रिगेड की गाड़ी भी पहुँच गयी, किन्तु तब तक आग पर क़ाबू पा लिया गया था। आग बुझने के बाद निरीक्षण करने पर पता चला कि ऑफिस रिकॉर्ड का कोई विशेष नुक़सान नहीं हुआ था। कमरे में बाहर की दीवार के साथ रखी रद्दी की बोरियों से आगे आग बहुत दूर तक नहीं पहुँची थी। हरीश ने मन-ही-मन भगवान को धन्यवाद दिया और ड्यूटी दे रहे स्टाफ़ को शाबाशी दी। ड्यूटी दे रहे एक कर्मचारी ने कहा - ‘सर, आधी रात को हमने आपको नाहक ही परेशान किया। आग इतनी भी नहीं थी कि हम बुझा नहीं सकते थे, किन्तु आपको तथा फायरब्रिगेड को सूचित करना हमारी ज़िम्मेदारी थी।’
‘नहीं-नहीं, मेरी परेशानी का सवाल ही नहीं उठता। जैसे तुम ड्यूटी दे रहे हो, उसी तरह किसी भी मुसीबत के समय मेरा तुम लोगों के साथ होना मेरी भी ड्यूटी है। तुम लोगों ने बहुत अच्छा किया कि बिना वक़्त गँवाये मुझे सूचित कर दिया। तुम्हारी मुस्तैदी के कारण ही नुक़सान होने से बच गया। वैल डन।’
‘सर, अब आप जाकर आराम कीजिये। हम चौकस रहेंगे।’
........
ज्वाइनिंग के लगभग एक महीने बाद कर्फ़्यू हटा तो हरीश ने प्रोफ़ेसर कॉलोनी में मकान लेकर फ़ैमिली शिफ़्ट की। कर्फ्यू हटने के बाद ही कार्यालय में सुचारू ढंग से कामकाज होने लगा। शिफ़्टिंग के पन्द्रह-एक दिन बाद की बात है कि हरीश जब लंच टाइम में घर पहुँचा तो अजीब-सी गंध से उसका सामना हुआ। उसने सुरभि जो कि उस समय रसोई में खाना बनाने में लगी हुई थी, को आवाज़ दी - ‘यह कैसी स्मैल है सुरभि? साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है।’
‘कोई एक घंटे से यह स्मैल सारे घर में फैली हुई है। मैं तो ख़ुद परेशान हूँ।’
‘मुझे लगता है कि कहीं कोई चूहा ना मरा पड़ा हो।’
‘मुझे भी ऐसा ही शक है। मैंने तो सारा घर छान मारा। मुझे तो कहीं कुछ मिला नहीं। आप भी एक नज़र मार लो।’
हरीश ने बेड के नीचे, दायें-बायें सब जगह देखा। कुछ नज़र नहीं आया। इतने में सुरभि ने पूछा - ‘खाना लगा दूँ?’
‘ऐसे में खाना खाना तो बहुत मुश्किल है, हलक से नीचे कैसे उतरेगा?’ कहते हुए वह ड्राइंगरूम में जा बैठा। थोड़ी देर सोचता रहा। फिर एकदम ख़्याल आया और उसने आवाज़ दी - ‘अरे सुरभि, यह तो पेपर मिल की स्मैल है। आज हवा का रुख़ इधर का हो गया लगता है।’
सुरभि का पहली बार ऐसी गंध से वास्ता पड़ा था, अतः कहने लगी - ‘मान लिया कि हवा का रुख़ बदलने से यह स्मैल आज इधर आयी है, किन्तु जिन लोगों के घर पेपर मिल के आसपास हैं, वे बेचारे कैसे ऐसे प्रदूषित वातावरण में रहते होंगे?’
‘बात तुम्हारी ठीक है। असल में जब पेपर मिल लगी थी, तब तो उस एरिया में कोई आबादी थी नहीं। धीरे-धीरे इलाक़ा आबाद होता गया। अब फ़ैक्ट्री आबादी के बीच में है। समस्या यह है कि लोग-बाग पहले फ़ैक्ट्रियों के आसपास ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से घर और कॉलोनियाँ बना लेते हैं। फिर तरह-तरह के दबावों के चलते सरकार को इन कॉलोनियों को रेगुलराइज करना पड़ता है।’
गंध कम होने लगी थी। शायद हवा की दिशा बदल गयी थी।
‘सुरभि, खाना लगाओ। ऑफिस भी जाना है।’
......
खाना खाकर हरीश जब कार्यालय पहुँचा तो उसका एक अधिकारी प्रवीण कुमार उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। हरीश के कुर्सी पर बैठते ही उसने कहा - ‘सर, आज मैं एक गाड़ी थाने में खड़ी करके आया हूँ। ड्राइवर के पास गुड्स तथा गाड़ी के कोई भी पेपर नहीं थे। जब मैंने कहा कि चालान होगा तो ड्राइवर ने ट्रांसपोर्टर को बुला लिया। पहले तो उसने चालान न करने के लिये कहा। जब मैंने कहा कि चालान तो होगा तो होम मिनिस्टर के साथ अपने ताल्लुकात की धौंस दिखाने लगा। मैंने गाड़ी इम्पाऊँड करने के बाद ड्राइवर को गाड़ी थाने ले जाने के लिये कहा तो ट्रांसपोर्टर ने चाबी मेरे हाथ में देते हुए कहा - ‘थम ही ले जो थाने माँह। मेह कोन्या जावां थाने।’ तब अपना ड्राइवर गाड़ी थाने लेकर गया।’
‘प्रवीण, तुमने बहुत अच्छा किया। इन लोगों के दिमाग़ ख़राब हो रहे हैं। क़ायदे-क़ानून तो इनके लिये कोई मायने ही नहीं रखते। गाड़ी इम्पाऊँड होने के बाद इनका दिमाग़ दुरुस्त हो जायेगा।’
प्रवीण कुमार गाड़ी तो थाने खड़ी कर आया था, किन्तु उसे डर था कि कहीं ट्रांसपोर्टर का होम मिनिस्टर से वाकई ही सम्बन्ध हुआ तो कहीं लेने के देने पड़ जायें। इसलिये उसने हरीश को कहा - ‘सर, यदि ऊपर से कोई फ़ोन-वोन आया तो अब आपको ही सँभालना है।’
‘तुम चिंता मत करो। मैं देख लूँगा। तुम्हें ड्यूटी पर मैंने भेजा था, अगर कोई ऐसी-वैसी बात आयेगी तो मेरे ऊपर आयेगी। तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं।’
कुछ देर बाद ट्रांसपोर्टर हरीश के ऑफिस-रूम में आकर बोला - ‘जनाब, गाड़ी छुड़वा देयो। थारा वो बढऊ अफ़सर तो पता नाहीं के समझै सै आपणे आप न्यों। मंत्री जी का वास्ता देन ते बी टस-से-मस ना होओ। सठिया गिआ लागे मन्ने तो। सेवा-पानी की बात बी कोन्या समझे सै। थम तो समझदार सो। थे बताओ के सेवा-पानी करना सै?’
उसकी बातें सुनकर हरीश को बुरा लगा। एक सुलझे हुए अफ़सर की परख ऐसे मौक़े पर ही होती है। अतः उसने संयत रहते हुए कहा - ‘देखिए, ये सेवा-पानी वाली बातें करना ठीक नहीं। हमारे अफ़सर ने आपकी बात नहीं मानी तो अच्छा ही किया। आप माल और गाड़ी के काग़ज़ात दिखा दो। ठीक होंगे तो गाड़ी अभी छुड़वा दूँगा।’
‘माहने ना कदी परवाह की काग़ज़ां की। मंत्री माहरे घर का सै। थम ना छोड़ोगे तो मैं चाल्या मंत्री धोरे।’
‘जैसी आपकी मर्ज़ी।’
क्रमश..