Ye Dil Pagla kahin ka - 13 in Hindi Love Stories by Jitendra Shivhare books and stories PDF | ये दिल पगला कहीं का - 13

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ये दिल पगला कहीं का - 13

ये दिल पगला कहीं का

अध्याय-13

करेगें। (प्रश्न) लेकिन किसे क्या पता चलेगा? (उत्तर) सुगंध और दुर्गन्ध अधिक समय तक छिपाई नहीं जा सकती।'

"कृति-कृति!" सहकर्मी स्वरा ने कृति को झकझोरा। वह ऑफिस के द्वार पर आकर मौन खड़ी थी।

"क्या हुआ कृति?" स्वरा पुनः बोली।

"कुछ नहीं! चल।" कृति बोली। दोनों ऑफिस में प्रवेश कर गये।

"ये आप क्या कह रही है? आरव आपके साथ ऑफिस में यह सब कर रहा है?" रागिनी आश्चर्यचकित थी।

"हां रागिनी! मुझे लगा कि सबसे पहले तुम्हें यह बताऊं। क्योंकि तुम आरव की पत्नी हो।" कृति आत्मविश्वास से भरी थी। उसने अंतर्मन की जंग जीत ली थी। कृति निश्चिय कर चूकी थी कि आज ऑफिस के बाद वह रागिनी से मिलकर सबकुछ बता देगी। आरव भी वहां आ पहूंचा। कृति को रागिनी से बात करते हुये देख उसके हाथ-पैर ठण्डे पड़ गये। वह समझ गया। आज उसकी खैर नहीं। रागिनी गुस्से मे थी किन्तु आत्म नियंत्रण करना उसने उचित समझा।

"सड़क पर सार्वजनिक करने के बजाए इस प्रकरण को हमें यही समाप्त कर देना चाहिए।" कृति बोली। रागिनी समझ रही थी। आरव की आंखे नीचे और सिर पाताल में धंसा जा रहा था। कृति के अदम्य साहस ने भावी बड़ी दुर्घटना रोक दी थी। उसे विश्वास हो गया कि कल से सबकुछ पहले जैसा हो जायेगा। फिर वही बेफीक्री वाली जिंदगी कृति का इंतज़ार कर रही थी। वह घर लौटने के लिये मुख्य सड़क पर आ पहूंची। कृति के कदमताल में उसकी जीत की खुशी झलक रही थी। उसने वह कर दिखाया जो अन्य महिलाओं के लिये एक प्रेरणा का विषय था।

कृति ने अपने आत्म सम्मान की लडाई जीत ली थी। निश्चित रूप से यह कहानी समाज को आईना दिखायेगी।

अगली कहानी जम्मू के कटरा से आई थी--

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*'मानव हो या पशु! अन्य नर की संतान को स्वीकार क्यों नहीं पाता? जिस प्रकार एक सिंह, मादा सिंहनी पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए सर्प्रथम उसके नवजात शिशुओं को मार गिराता है। उसी रणनीति पर वरूण के स्वर उभर रहे थे।' एक बार फिर अंनदिता विचारों के संकट में थी।*

*ब* हुत समय बाद अनंदिता घर आ रही थी। इस बात की खुशी पुरे घर में दिखाई दे रही थी। "पिछला सब कुछ भूलकर हमें अंनदिता को स्वीकार कर लेना चाहिये।" अपने पति आत्माराम को चाय का कप थमाकर सुमन बोली।

"लेकिन वह सब भूल पाना क्या संभव है?" आत्माराम बोले। जब से आनंदिता शहर गई थी तब से दोनों मा-बाप उसकी चिंता में घुले जा रहे थे। बढ़े शहर में पढ़ाई के लिए गई आनंदिता ने वहां शादी कर घर बसा लिया था। वो भी परिवार को बिना बताये। इसी बात का दुःख आत्माराम को खाये जा रहा था। लड़का कौन है? कैसा है? यह सब जाने बिना उसे अग्रवाल परिवार का दामाद कैसे मान ले? अनंदिता गर्भ से थी। यदि उसकी गोद भरायी की रस़्म मायके में कि जाये तब हो सकता है सब कुछ पहले जैसा हो जाये? अनंदिता की इच्छानुसार सुमन ने सहमती दे दी। इसी बहाने बेटी और दामाद से मिलना हो जायेगा। आत्माराम भी मान गये। फिर ऐन वक्त पर खब़र आई की अनंदिता के पति का रोड एक्सीडेंट हो गया है। मौके पर ही सिद्धांत की मृत्यु हो चूकी थी। अनंदिता पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। हाथों की मेहन्दी भी सुख भी नहीं थी कि सोलह श्रृंगार उससे रूठ गये। अग्रवाल दम्पति भागे-भागे शहर गये। जहां पता चला की शव बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। अतः 'जो है जैसा है' समझकर म्युनिसिपल वालों ने उसे दहन कर दिया। आखिरी पलों में अनंदिता के माता-पिता को सिध्दान्त का मुख देखना भी नसीब नहीं हुआ। आत्माराम अंनदिता को समझाबुकर मायके ले आये। क्योंकि मां-बाप से भयंकर विरोध कर सिध्दान्त ने अनंदिता से विवाह किया था जिससे अब ससुराल में अंनदिता के लिए कोई स्थान शेष नहीं था। यह सब अनंदिता ने अपने माता-पिता को स्वयं कहा था। इसलिए उसके कहे प्रत्येक शब्द पर विश्वास कर अग्रवाल दम्पति अनंदिता को उसके ससुराल न ले जाकर अपने घर ले आये। शून्य में खोई अंनदिता स्वयं के द्वारा कहे गये सबसे बडे झूठ को लेकर विचारमग्न थी। अपने साथ हुये रेप को छुपाकर स्वयं को विवाहित प्रस्तुत करने का षडयंत्र अंनदिता ने ही रचा थी। सिध्दान्त उसका क्लास मेट था। वह अंनदिता को प्रेम करने लगा। अंनदिता ने सिध्दान्त का प्रेम कभी स्वीकार नहीं किया। क्रोधाग्नि में झुलस रहा सिध्दान्त एक दिन अनैतिक कार्य में संलग्न होकर अंनदिता पर पशु समान टूट पड़ा। अंनदिता की अस्मिता को तार-तार वह जेल पहूंच गया। दो माह के उपचार और काउंसिलिंग के उपरांत जब अंनदिता सामान्य हुई तब उसे ज्ञात हुआ कि वह गर्भ से थी। अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को गिराना उसे न्यायसंगत नहीं लगा। जिस अंनदिता ने अपने संपूर्ण जीवन में कभी एक चींटी भी न मारी थी वह मानव भ्रूण हत्या कैसे कर सकती थी? अनायास ही सही, किन्तु एक सजीव जीवन उसके पेट में पल रहा था। उसे सृष्टि का सुख भोगने का उतना ही अधिकार है जितना अन्य किसी मानव का होता है। यही सोचकर अंनदिता ने अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को जन्म देने का निर्णय लिया।

"अनु! वरूण आज भी तुझसे विवाह करने को तैयार है।" सुमन के इन वाक्यों ने अनंदिता को विचारों के भव सागर में डुबने से बचाया।

वह वरूण को जैसे भूल ही गई थी। कुछ वर्ष पुर्व ही तो वरूण और अनंदिता की सगाई हुई थी। किन्तु जैसे ही अनंदिता के अन्यत्र विवाह की जानकारी वरूण को प्राप्त हुई। उन दोनों का संपर्क टुट गया था।

"मगर मां! आई एम प्रेग्नेंट। क्या इस हालत में वरूण मुझे स्वीकार करेगा?" आनंदिता बोली। अनंदिता का प्रश्न जितना कठीन था, सुमन का उत्तर भी उतना ही कठीन था। "तुझे इस अजन्मे बच्चें को भुलना होगा?" सुमन कुछ कठोर होकर बोली। अनंदिता समझ चूकी थी की उसकी मां क्या कहना चाहती है? उसे लगा कि एक बार वरूण से मिल लेना चाहिए। इन सब में आखिर वरूण का क्या दोष था? अनंदिता ने वरूण से भेंट की। उसने दोनों के भावी रिश्तें के विषय में वरूण की राय जाननी चाही। वरूण ने अनंदिता से साफ-साफ कह दिया। वह अनंदिता से विवाह करने को तैयार था। मगर वह चाहता था की अनंदिता अपना गर्भ गिरा दे। अनंदिता पुनः दुविधा में डुब गई। एक तो उसे अब विवाह करने की लालसा नहीं थी। उस पर माता-पिता की बात रखने का विचार किया तो उसे अपने भ्रूण का बलिदान देने पर विवश किया जा रहा था। जिसके लिये वह कतई तैयार नहीं थी।

'मानव हो या पशु! अन्य नर की संतान को स्वीकार क्यों नहीं पाता? जिस प्रकार एक सिंह, मादा सिंहनी पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए सर्प्रथम उसके नवजात शिशुओं को मार गिराता है। उसी रणनीति पर वरूण के स्वर उभर रहे थे।' एक बार फिर अंनदिता विचारों के संकट में थी।

'नहीं। मैं अपने अजन्में बच्चे को नहीं मार सकती। वरूण मुझे स्वीकार करे अथवा नहीं। मैं अपने बच्चे को जन्म दुंगी। मां-बाप दोनों का प्यार मैं उसे दूंगी। जो अन्याय मेरे साथ हुआ है उसके कलूषित परिणाम की छाया अपनी संतान पर कभी पड़ने नहीं दूंगी। स्वयं आत्मनिर्भर बनकर जीवन को उल्लास और प्रेम के साथ जीकर दिखाऊंगी। मुझे कोई दुविधा नहीं है। अब मैं नहीं रूकूंगी।' अंनदिता विचारों की जंग जीत चूकी थी। बुलंद होसले उसके चेहरे पर स्पष्ट देखे जा सकते थे। मेडीकल फाइल उठाकर वह जनरल चेकअप के लिये हाॅस्पीटल की ओर निकल पड़ी। गर्भस्थ शिशु की देखभाल में वह कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती थी।

अब बारी थी आनंद और आशा की प्रेम कहानी की जो गोवा से आये थे----

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*'क्या* ये सपना है?' आनंद ने सोचा। द्वार के बाहर मरीजों की लम्बी-लम्बी पंक्तियां लगी थी। आनंद एक-एक कर मरीजों को देख रहा था। उसकी ऩजर बाहर पंक्ति में खड़ी एक अधेड़ आयु की महिला पर पड़ी। वह सपना जैसी दिखाई दे रही थी। उसकी गोद में एक बच्चा था। सपना! सपना वह जिसे आनंद प्रेम करता था। शायद अभी भी करता है। एमबीबीएस की ड्रिग्री लेकर आनंद प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहा था। उसने सपना को अपने जीवनसाथी के रूप चून लिया। आनंद का परिवार रजामंद था। सपना पढ़ी-लिखी और खुबसूरत युवती थी। जिससे कोई भी अविवाहित विवाह करना चाहेगा। सपना को आनंद से विवाह मंजूर न था। वह विवेक के प्रेम में थी। और उसी से विवाह करना चाहती थी। सपना के परिवार वालों को आनंद पसंद था जबकी विवेक अप्रिय। किन्तु जब सपना ने विवेक से विवाह करने का दबाव बनाया तब सपना को परिवार की और से सख़्त हिदायत मिली। यदि सपना ने परिवार की ईच्छानुसार विवाह नहीं किया तब उसका अपने परिवार से सभी तरह का संबंध खत्म हो जायेगें। सपना पर प्रेम का भूत संवार था। उसने अपने माता-पिता की इस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। विवेक कॅरियर के लिये संघर्ष कर रहा था। इसलिए सपना को उसने आनंद से विवाह करने के लिए मना लिया। उसका तर्क था कि जैसे ही उसे व्यवस्थित नौकरी उसे मिल जायेगी वह सपना से विवाह कर लेगा।

"तुम्हारे मन में क्या है? मुझसे कहो।" आनंद ने पुछा। आनंद की विवाहिता सपना अपने रूखे व्यवहार के लिये ससुराल में चर्चा का विषय बनी हुई थी। आनंद से विवाह के छः माह बाद ही उसका धीरज जवाब दे गया।

"आनंद! मैं गर्भ से हूं। विवेक इस बच्चें का पिता है।" सपना ने कहा। ये आनंद ही था जो इस वज्रपात को सह गया। वह धैर्य पुर्व मंथन कर रहा था। वह विवेक से भी मिला। विवेक अब भी सपना को स्वीकारने को तैयार था। बस फिर क्या था। आनंद ने सपना को तलाक देने का प्रस्ताव दिया। जिसे सपना ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अब सपना, विवेक के साथ थी। वह प्रसन्नचित होने का भरसक प्रयास कर रही थी। सपना ने मायके से मदद मांगी लेकिन उसके लिए सब दरवाजे बंद हो चूके थे। विवेक अवश्य सपना को प्रेमानंदित करने का प्रयास करता किन्तु मात्र प्रेम के आधार पर जीवन चल पाना कठिन था। विवेक पुनः बेरोजगार हो चला था। नौकरी छुटते ही घर की माली हालत खराब हो गयी। तन्वी के जन्म के बाद और भी बुरी परिस्थितियों से सपना गुजर रही थी। पति-पत्नि के छोटे-छोटे झगड़ों ने विकराल रूप ले लिया था। विवेक अब सपना पर हाथ भी उठाने लगा था। सपना भी कम न थी। ईंट का जवाब वह पत्थर से देती। बेटी को गोद में लेकर वह काम ढूंढने निकल जाती। किन्तु सिवाये झाडु-बर्तन के उसे अन्य कोई काम नहीं मिला। जैसे-तैसे वह गुजर बसर करने पर विवश थी। उसका असफल प्रेम कहीं उसके लिए घोर अपमान का कारण न बने यह सोच कर सपना गृह जिले से अन्य शहर आ गई। यही एक कमरा किराये पर लिया। तन्वी कुपोषण की चपेट में थी। सरकारी अस्पतालों के चक्कर काट-काटकर सपना सूख के काटां हो गयी। बाल बिखरे हुये, मैली-कुचैली साड़ी बेतरतीब पहने हुई सपना आनंद का पिछा नहीं छोड़ रही थी।

"क्या सपना मिल गयी?" आनंद की सहकर्मी डाॅक्टर आशा ने पुछा।

"हां! वह यही है। इसी शहर में।" आनंद ने कहा। आनंद के चेहरे पर प्रसन्नता देखकर आशा समझ गई। आनंद सपना से कितना प्रेम करता है ये आशा जानती थी। सपना के विषय में सब कुछ जानते हुये भी आशा ने आनंद को अपना भावी जीवनसाथी बनाना तय किया था। दोनों के परिवार इस विवाह की तैयारीयों म लगे थे।

क्रमश..