Manvta ke dagar pe in Hindi Poems by Shivraj Anand books and stories PDF | मानवता के डगर पे

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मानवता के डगर पे

प्यारे तुम मुझे भी अपना लो ।
गुमराह हूं कोई राह बता दो।
युं ना छोडो एकाकी अभिमन्यु सा रण पे।
मुझे भी साथले चलो मानवताकी डगर पे।।
वहां बडे सतवादी है।
सत्य -अहिंसाकेपुजारी हैं।।
वे रावण के अत्याचार को मिटा देते हैं।
हो गर हाहाकार तो सिमटा देते है।।
इस पथ मे कोई जंजीर नही
जो बांधकर जकड सके।
पथ मे कोई विध्न नही
जो रोककर अ क ड सके।।
है ऐ मानवता की डगर निराली।
जीत ले जो प्रेम वही खिलाडी।।
यहां मजहब न भेदभाव,सर्व धर्म समभाव से जिया ...है।
वक्त आए तो हस के जहर पीया करते है।।
फिर तो स्वर्ग यहीं है नर्क यहीं है।
मानव मानव ही है सोच का फर्क है।।
ओ प्यारे !इस राह से हम न हो किनारे ...
न हताश हो न निराश हो।
मन मे आश व विश्वास हो।।
फिर आओ जग मे जीकर
जीवन -ज्योत जला दे ।
मानवता के डगर को स्वर्ग सा सजा दे।।
आज भी राम है कण - कण मे
भारत - भारती के जन जन को बता दे।

जीयो उनके लिए



मेरे जीने की आस जिंदगी से कोसो दूर चली गयी थी कि अब मेरा कौन है ? मैं किसके लिए अपना आँचल पसारुंगा ? पर देखा-लोक-लोचन में असीम वेदना ... तब मेरा ह्रदय मर्मान्तक हो गया , फिर मुझे ख्याल आया ...अब मुझे जीना होगा , हाँ अपने स्वार्थ के लिए न सही... परमार्थ के लिए ही । मैं ज़माने का निकृष्ट था तब देखा उस सूर्य को कि वह निःस्वार्थ भाव से कालिमा में लालिमा फैला रहा है ... तो क्यों न मैं भी उसके सदृश बनूं . भलामानुष वन सुप्त मनुष्यत्व को जागृत करुं। मैं शैने-शैने सदमानुष के आँखों से देखा-लोग असहा दर्द से विकल है उनपर ग़मों व दर्दों का पहाड़ टूट पड़ा है और चक्षुजल ही जलधि बन पड़ी हैं फिर तो मैं एक पल के लिए विस्मित
हो गया ... मेरा कलेजा मुंह को आने लगा...परन्तु दुसरे क्षण वही कलेजा ठंडा होता गया और मैंने चक्षुजल से बने जलधि को रोक दिया .. क्योंकि तब तक मैं भी दुनिया का एक अंश बन गया था . जब तक मेरी सांसें चली.. तब तक मैं उनके लिए आँचल पसारा ...... किन्तु अब मेरी साँसे लड़खड़ाने लगी हैं , जो मैंने उठाए थे ग़मों व दर्दों के पहाड़ से भार को वह पुनः गिरने लगा है .
अतः हे भाई !अब मैं उनके लिए तुम्हारे पास , आस लेकर आँचल पसारता हूँ ... और कहता हूँ तुम उन अंधों के आँख बन जाओ ,तुम उन लंगड़ों के पैर बन जाओ और जियो 'उनके लिए' . क्या तुम उनके लिए जी सकोगे ? या तुम भी उन जन्मान्धों के सदृश काम (वासना) में अंधे बने रहोगे ..?राष्ट्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –
' जीना तो है उसी का ,
जिसने यह राज़ जाना है।
है काम आदमी का ,
औरों के काम आना है ||

घर का भेद
(मन रुपी घर का भेद ही जीवन का महामंत्र है घर का भेद जैसा भी हो इसे छिपाने में ही खैर है)
'औरों के लिए रुपनाथ जैसे भी हों पर जानकीनाथ के लिए तो नेक ही थे।'तभी तो जानकी नाथ की उनसे थोड़ी सी दोस्ती क्या हो गई उन्होंने अपनी बेटी 'मंगली का विवाह उनके पुत्र दया राम से दी। उन्होंने अल्प दोस्ती के अंधत्व में लड़के के शील- स्वभाव को नहीं देखा इसी वजह से आज उन्हें बेटी की आंखों से गिरते आंसू देखने पड़ रहें हैं।सब उसी नज़र अंदाज़ का अंजाम है।
अब 'मंगली घर के बाहर बैठी है।वह बार- बार मुर्झित होकर एक चक्(भूल)याद करती वो 'घर का भेद...।वोह ! मैं अच्छा नहीं की जो ह्दय की कच्ची चिठ्ठी खोल दी।
हां ससुराल में जैसा भी साग -भात खाती तो खाती। नींद भर न सोती तो न सही। मुझे दुनियाभर का प्रेम न मिलता तो न सही ... मैं मुठ्ठी भर प्रेम में ही जी लेती किन्तु इस भेद को न खोलती कि मेरा पति व्यभिचारी है एक दुराचारी है।
घर के चार दीवारी के बाहर निकलते ही यह भेद चार दिन में चारों ओर मच गया। फिर किसी ने 'मंगली' को गलत ठहराया तो किसी ने दयाराम को, दयाराम तो गलत ठहराने के योग्य था ही, किन्तु मंगली नहीं... मंगली तो पाक थी गंगा सी।पर इस दुनिया को क्या कभी इधर तो कभी उधर होते रहती है पर क्या कभी पाला भी अग्निनि के समीप सकता है?नहीं ना