batua in Hindi Moral Stories by Rajni Gosain books and stories PDF | बटुआ

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बटुआ

सोमनाथ जी को कार्यालय से घर आए हुए आधा घंटा हो चुका था! आज वह हाथ मुँह धोकर, कपडे बदलकर अन्य दिनों की तरह बैठक में नहीं बैठे थे बल्कि अपने शयनकक्ष में पलंग पर पीठ टिकाकर बैठे थे! उनकी पत्नी रसोई में चाय बना रही थी! यदि अन्य दिनों की बात होती तो इतनी देर से चाय नहीं मिलने के कारण सोमनाथ जी घर सिर पर उठा लेते! "कितनी देर हो गई! एक चाय तुम से समय पर नहीं दी जाती! आदमी दिन भरकर का थका हारा, बस में धक्के खाकर घर पहुंचे! दफ्तर की थकान उतारने के लिए एक प्याला कप चाय की तलब लगती हैं और तुमसे वह भी समय पर नहीं बनती! लेकिन आज वह चुपचाप अपने कमरे में बैठे हैं! दरअसल आज वह सुबह से ही किसी सोच में डूबे हैं! कार्यालय में भी उनका मन नहीं लग रहा था! विचारों का ज्वार भाटा उनके मन मस्तिष्क में उछाल मार रहा हैं! इस सारी बेचैनी का कारण आज सुबह की वह गरमागरम बहस हैं जो उनकी अपने युवा बेटे आरव से हुई थी! आरव इंजीनियरिंग कॉलेज का छात्र हैं!

सुबह जब नाश्ते की मेज पर आरव ने उनसे कहा!

"पापा मुझे आठ हजार रूपए चाहिए! हमारे कॉलेज का ट्रिप घूमने के लिए गोवा जा रहा हैं! परसों तक आठ हजार रूपए जमा करने हैं!"

यह सुनकर एकबारगी रोटी का टुकड़ा तोड़ते हुआ उनका हाथ थाली पर ही रुक गया! उन्होंने आँख उठाकर आरव की ओर देखा! वह शांत, बेफिक्र होकर मोबाइल पर आँखे गड़ाकर नाश्ता कर रहा था! एक मिनट तक वह आरव को अपलक देखते रहे!

आरव ने बिना मोबाइल से नजरें हटाए दुबारा अपनी बात दोहराई!

"ट्रिप पर जाना जरुरी हैं" सोमनाथ जी अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बोले!

"पापा मेरे सभी दोस्त जा रहे हैं!"

"दोस्तों की बात छोड़ो! देखो आरव अभी खर्चे बहुत हो चुके हैं! पिछले महीने ही तुम्हारे लिए लेपटॉप लिया था! उसके पिछले महीने स्मार्टफोन लिया था! अगले महीने दिवाली हैं! घर की हालत तुम देख रहे हो! सफेदी तो छोड़ो प्लास्टर भी दीवार का साथ छोड़ रहा हैं! तुम्हे ट्रिप पर भेजना संभव नहीं है! उससे ज्यादा जरूरी इस बार घर का रंग रोगन हैं! नौकरीपेशा हैं लिहाजा बजट बनाकर खर्चे देखने पड़ते हैं!" सोमनाथ जी ने तो यह बात यह सोचकर कही थी कि युवा होता उनका बेटा उनकी बात को समझेगा! लेकिन आरव तो सोमनाथ जी की 'न' सुनकर गुस्से से बिफर पड़ा!

"आप से जब भी पैसे माँगो आप खर्चे गिनाने लगते हों! कॉलेज में आकर देखो सब लड़कों के पास एक से एक कीमती बाइक हैं! सब लड़के ब्रांडेड कपडे पहनते हैं! मैंने कभी आपसे बाइक की जिद भी नहीं की!" आरव कठोरता से बोला ओर गुस्से में नाश्ता छोड़कर कॉलेज चला गया!

आरव की यह उदंडता देखकर सोमनाथ जी अवाक् रह गए! उन्हें अपने बेटे से ऐसे कठोर व्यवहार की उम्मीद नहीं थी! बस तभी से उनका मन अशांत हैं!

"यह लीजिये चाय! आज क्या हुआ चाय के लिए हाय तौबा नहीं मचाई" मुस्कुराते हुए पत्नी ने शयनकक्ष में प्रवेश किया!

सोमनाथ जी ने कोई उत्तर नहीं दिया वह चुपचाप बैठे रहे!

"क्या हुआ आपकी तबियत ठीक हैं! आज आप यहां शयनकक्ष में क्यों बैठे हैं!" सोमनाथ जी को युं शांत बैठा देखकर चिंता जताते हुए पत्नी बोली!

"कार्यालय में कार्य अधिक था! इसलिए थकान हो रही हैं! थोड़ी देर आराम करना चाहता हुँ!"

"ठीक हैं" कहते हुए पत्नी कमरे से बाहर जाने लगी तो सोमनाथ जी दबी सी आवाज में बोले!

"सुनो आरव कॉलेज से आ गया क्या?"

"हाँ, अभी दोस्तों के साथ बाहर गया हैं! सुनो जवान बच्चों के साथ बहस मत किया करों! आजकल बच्चें कब क्या कदम उठा ले कुछ पता नहीं!" नसीहत देती हुई पत्नी रसोईघर में चली गई!

चाय का कप एक तरफ रखकर सोमनाथ जी एक नजर कमरे में घुमाई! सीलन से दीवार का प्लास्टर जगह जगह से उतर चुका था! अध्उतरी सफेदी, उखड़ते झड़ते प्लास्टर के कारण दीवारें बड़ी बदरंग और भद्दी दिख रही थी! बढ़ते खर्चों के कारण सफेदी कराने का कार्यक्रम हर साल टल जाता हैं! सहसा उनकी नजर सामने लकड़ी की मेज पर पड़े अपने काले रंग के बटुए पर पड़ी! सौ पांच सौ के कुछ नोट तथा प्लास्टिक मनी के किनारे बटुए के अंदर से झांक रहे थे! जैसे उन्हें मुँह चिड़ा रहे हो! प्लास्टिक मनी सोचकर सोमनाथ जी के होंठो पर हल्की सी मुस्कान आ गई! ये एटीएम, डेबिट,क्रेडिट कार्ड की तरह जैसे जिंदगी भी प्लास्टिक होती जा रही हैं! उन्होंने एक लम्बी सांस भरी और अपने काले रंग के बटुए को एकटक निहारने लगे! उन्हें लगा जैसे ये बटुआ उन्हें कुछ याद दिला रहा हैं! सोमनाथ जी अपनी किशोरवस्था में प्रवेश कर गए! उनका मन अतीत की खिड़कियों से बाहर झाँकने लगा था!

काला बटुआ उन्हें उनके पिताजी की याद दिलाने लगा! पर तब यह चमड़े के बटुए कहाँ होते थे! पिताजी तो अपने पैसे कुर्ते के कीसे में रखते थे! जो दीवार पर लगी खूँटी पर टंगा रहता था! सोमनाथ जी के पिताजी पास के ही गाँव के विद्यालय में अध्यापक थे! पिताजी जब विद्यालय जाते तो अपने कुर्ते के कीसे में पांच, दस या पच्चीस पैसे के सिक्के रहने देते बाकी कागज के एक दो रूपए के नोट वह प्लास्टिक की पिन्नी में लपेट के रखते फिर पिन्नी के इस बटुए को वह वापस अपनी जेब में रख देते! सोमनाथ जी के पिताजी का बटुआ तब यही प्लास्टिक की पिन्नी थी!

बालक सोमनाथ के गाँव में पांचवी कक्षा तक का सरकारी विद्यालय था! इसी विद्यालय में वह कक्षा चार में पढ़ते थे! विद्यालय जाते समय रास्ते में गोपू हलवाई की दुकान पड़ती थी! रसगुल्ला, इमरती, बालुशाई, जलेबी और भी न जाने कितनी प्रकार की मिठाई टोकरी में सजी रहती जो आते जाते मुसाफिरों, राहगीरों को अपनी तरफ आकर्षित करती! बालक सोमनाथ का भी जी ललचाता इन मिठाइयों को खाने का पर हथेली पर मिठाई खरीदने के लिए एक भी पैसा नहीं होता! खाली मिठाई का दाम पूछा जाता! और अगले दिन वह जरूर पैसा लेकर आएगा और मिठाई खरीद कर खाएगा यह सोचकर बालक सोमनाथ होठों पर जीभ फिराकर आगे बढ़ जाता! पिताजी से सीधे रूपए पैसे मांगने की हिम्मत नहीं होती थी! इसलिए माँ को अपना दूत बनाया जाता था!

"हम्म कितने पैसे चाहिए?" माँ चौक में गोबर के उपले पाथते हुए पूछती!

बालक सोमनाथ लकड़ी की टहनी गोबर के ढेर में घुमाते हुए कहता "पच्चीस पैसे"

"क्या करोगे पच्चीस पैसे का ?"

"मिठाई खानी हैं"

"घर में मीठा तो बनता हैं न? क्या जरूरत हैं बाहर की मिठाई खाने की! अपनी गय्या के शुद्ध दूध से बना मिष्ठान होता हैं!" माँ जल्दी जल्दी उपले पाथते हुए कहती!

"सभी बच्चे तो खाते हैं! रसगुल्ला,इमरती, बालुशाई! पिताजी से पैसा लेकर दो! कल मैं भी मिठाई खाऊंगा" जिद करते हुए बालक सोमनाथ कहते!

सोमनाथ जी अपनी माता पिता की एकलौती संतान थे! बड़ी मन्नतों के बाद, मंदिरो,मजारो पर माथा टेकने के बाद उनके माता पिता को संतान सुख की प्राप्ति हुई थी! माँ तो भावनाओ में बह जाती थी! बेटे की हर जिद पूरी करती लेकिन सोमनाथजी के पिताजी जरा कठोर स्वभाव के थे! उनका मानना था ज्यादा लाड प्यार बच्चे को बिगाड़ देता हैं! इसलिए बालक सोमनाथ अपनी हर छोटी बड़ी जरुरत के लिए माँ के पास जाते! माँ के बहुत अनुय विनय करने के बाद आखिर पिताजी बालक सोमनाथ को मिठाई खाने के लिए पच्चीस पैसे दे देते! साथ ही चेतावनी भी देते "देखो तुम बच्चे को बिगाड़ रही हो! उसकी हर छोटी बड़ी जिद पूरी करती हो!" पिताजी की चेतावनी का माँ पर कोई असर नहीं होता! वह सिर्फ इतना कहती! "एक ही तो बिटवा हैं हमारा! बोलो तो जरा, किसके लिए कमा रहे हो!"

ऐसा नहीं था कि बालक सोमनाथ के पिताजी कभी उन्हें खर्च करने के लिए पैसे नहीं देते थे! गाँव में तीज त्योहारों पर जब मेले लगते तो पिताजी उन्हें चाट पकोड़ी खाने के लिए, खेल खिलौने के लिए पैसे देते! लेकिन मेले, त्यौहार रोज तो आते नहीं थे इसलिए पिताजी के अपने मन से दिए हुए यह पैसे तो ऊंट के मुँह में जीरा के समान थे! बालक सोमनाथ को तो लगता था पिताजी के पास जो प्लास्टिक की पिन्नी का बटुआ हैं उसमे न जाने कौन सी जादुई करामात हैं कि जब भी पैसे मांगो तुरंत पैसे निकाल देती हैं! काश ऐसा पिन्नी का बटुआ उसके पास भी होता तो वह भी बटुए में से पैसे निकालकर अपनी मनपसंद चीजे खरीद सकता!

सोमनाथ जी ने जब अपनी किशोरवस्था में प्रवेश किया तो उनके साथ के कुछ लड़के साइकिल पर विद्यालय जाने लगे थे! सोमनाथ का मन भी साइकिल के लिए मचलने लगा! माँ को दूत बनाकर फिर पिताजी के सम्मुख भेजा गया!

साइकिल की बात सुनकर पिताजी गुस्से से उबल पड़े! "तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया हैं! अभी साइकिल का क्या करेगा! पढ़ने लिखने के दिन हैं! पढाई में ध्यान दे! विद्यालय इतनी दूर भी नहीं हैं कि सोमनाथ पैदल भी न जा सके! साइकिल दिला दी तो अभी से गाँव की कच्ची पक्की पगडंडियों में आवारागर्दी करेगा! वैसे भी अभी साइकिल खरीदने लायक मेरे पास पैसे नहीं हैं! पशुघर की छत डालने में ही आधी तनख्वाह चली गयी हैं!"

सोमनाथ के किशोर मन में तो साइकिल घर बना चुकी थी! सोमनाथ ने भूख हड़ताल कर दी! एक दिन बिना खाए निकल गया! पिता की डाँट फटकार का सोमनाथ पर कोई असर नहीं हुआ! किशोर मन जिद पकड़ चुका था!

"बिटवा को भूखा मारोगे क्या? एक ही तो बिटवा हैं! गाँव में कैसे कैसे ऐरो गैरों के पास साइकिल हैं! आप तो फिर भी विद्यालय में मास्टर हैं!" माँ ने आँखों में आंसू भरकर कहा!

सोमनाथ को नहीं पता पिताजी ने पैसों का इंतजाम कहाँ से और कैसे किया! अगले दिन घर के चौक में चमचमाती नई साइकिल खड़ी थी! सोमनाथ के मन मष्तिष्क में पिताजी का बटुआ घूम गया! जिसमे पैसे कभी ख़त्म नहीं होते!

टन टन टन घडी के घंटे से सोमनाथ जी की तन्द्रा टूटी! घडी शाम के सात बजने का संकेत दे रही थी! उन्होंने सामने मेज पर पड़े अपने काले बटुए पर फिर से नजरें टिका दी! प्लास्टिक की पिन्नी वाला बटुआ अब बटुआ नहीं कहलाता बल्कि लेदर पर्स कहा जाता हैं! नाम और रूप बदलने से क्या होता हैं! पिता का बटुआ हर युग में अपने बच्चों के लिए जादूई शक्ति वाला हैं! जिसमें रूपए कभी ख़त्म नहीं होते! यह सोचते हुए सोमनाथ जी मुस्कुराते हुए उठे! अपना बटुआ उठाया! एकबारगी जांचा परखा एटीएम कार्ड बटुए में ही था! बटुआ कुर्ते की जेब में डाला और बैंक के एटीएम की और बढ़ चले! रात को डिनर करते समय उन्हें आठ हजार रूपए आरव को देने हैं!