Zindagi ki Dhoop-chhanv - 3 in Hindi Short Stories by Harish Kumar Amit books and stories PDF | ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 3

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ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 3

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

रिश्तों का दर्द

शाम के समय वह दफ़्तर से घर पहुँचा, तो उसे बहुत तेज़ भूख लगी हुई थी. उसने सोचा था कि घर पहुँचकर चाय पीने की बजाय वह पहले खाना खा लेगा. चाय-वाय बाद में होती रहेगी. मगर घर पहुँचने पर पता चला कि वहाँ का तो नज़ारा ही कुछ और है. दो-तीन बार घंटी बजाने पर सिर पर पट्टी बाँधे हुए उसकी पत्नी ने दरवाज़ा खोला था और फिर कराहते हुए जाकर बिस्तर पर ढह गई थी.

पूछने पर पता चला था कि उसके सिर में बहुत तेज़ दर्द हो रहा है. माइग्रेन के ऐसे हमले पहले भी कई बार उस पर हो चुके थे.

भूख से तो वह पहले से ही बेहाल था. पत्नी के अस्वस्थ होने की बात से उसकी झल्लाहट और बढ़ गई. वह बाही-तबाही बकता हुआ सोफे पर जा लेटा.

कुछ देर बाद उसे अपनी बाँह पर अपने तीन वर्षीय बेटे के हाथ का स्पर्श महसूस हुआ. उसने आँखें खोल दीं और सिर घुमाकर देखा. उसका बेटा हाथ में अपना बिस्कुट का पैकेट लिए खड़ा था और उससे कह रहा था, ‘‘पापा, भूख लगी है, तो ये खा लो.’’

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ख़ुशी

अपने चेहरे पर रोने का-सा भाव लिए बच्चा सो तो गया था, पर उसकी गमग़ीन मुद्रा मेरी आँखों में अब भी कोंध रही थी. रात की ख़ामोशी में मैंने अपना ध्यान वर्ग पहेली के हल खोजने में लगाना शुरू किया मगर ध्यान बार-बार भटक जाता था. बच्चे का आँसुओं से भरा चेहरा फिर-फिर आँखों के आगे नाचने लगता. नई क्लास में जाने के उत्साहब में बच्चा ज़िद पकड़े बैठा था कि उसकी सारी कॉपियों के कवर आज ही चढ़ा दिए जाएं, जबकि मेरे विचार में अगले दिल कक्षा का पहला दिन होने के कारण कॉपियाँ ले जाने की ज़रूरत ही नहीं थी. मुझे तो वर्ग पहेली के दो-चार बाकी बच रहे हल खोजना ज्यादा ज़रूरी लग रहा था, क्योंकि अगली सुबह की डाक से भेजने पर ही यह वर्ग पहेली आख़िरी तारीख़ तक पहुँच सकती थी. अचानक दिमाग़ में आया कि पहेली के सभी हल सही-सही ढूंढ लेने पर भी ज़रूरी नहीं कि मेरा पुरस्कार निकले क्योंकि पुरस्कार तो दस व्यक्तियों का लॉटरी से निकलेगा, मगर बच्चे की कॉपियों के कवर चढ़ा देने से वह खुशी से भर उठेगा - इसमें कोई शक नहीं. यह सोचते ही मैंने वर्ग पहेली वाला अख़बार का पृष्ठ एक तरफ सरका दिया और बच्चे की कॉपियों के कवर चढ़ाने लगा.

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मासूम सवाल

पैर में ठोकर लगने से चिंटू के हाथ में पकड़ा रसगुल्ला जमीन पर गिर पड़ा. यह देख मम्मी ने रसगुल्ला उठाकर एक प्लेट में डाला और उसे फ्रिज पर रख दिया. उसके बाद उन्होंने चिंटू को फ्रिज से एक और रसगुल्ला निकालकर दे दिया.

कुछ देर बाद करमो बर्तन माँजने आई. उसके साथ उसका तीन साल का लड़का, नोनू, भी था. मम्मी ने फ्रिज पर बिना ढके रखा यह रसगुल्ला नोनू को दे दिया. यह देख चिंटू चुप न रह सका और बोल उठा, ‘‘मम्मी, यह रसगुल्ला तो....’’

मम्मी समझ गई कि चिंटू क्या कहना चाहता है. उन्होंने ऊंगली से उसे चुप रहने का इशारा किया और फिर उसे दूसरे कमरे में ले जाकर बोली, ‘‘उनके सामने ऐसा मत बोलना.’’

चिंटू समझ नहीं पाया कि जमीन पर गिरी चीज़ खाना अगर उसके लिए बुरा है तो नोनू के लिए बुरा क्यों नहीं है. मम्मी उसे तो बिना ढककर रखी चीजें खाने को देती नहीं, फिर नोनू को वह रसगुल्ला उन्होंने कैसे दे दिया. और फिर उसकी हिन्दी की पुस्तक में जो लिखा है कि हमेशा सच बोलना चाहिए - वह क्या झूठ है.

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अपने-अपने पैमाने

‘‘अंकल, मोहन गार्डन का स्टॉप आए तो जरा बता दीजिएगा.’’ बस में मेरे साथ बैठे युवक ने जब मुझसे यह कहा तो मेरे तन-बदन में मानो आग लग गई. वह होगा करीब पैंतीस साल का और मैं करीब अड़तालीस का. उसका अंकल कैसे हो गया मैं? मगर मैं उससे क्या कहता. मन-ही-मन कुढ़ते हुए बाहर देखते हुए सफ़र करता रहा. मोहन गार्डन आया, तो मैंने इशारे से उस युवक को बता दिया.

युवक द्वारा खाली की गई सीट पर बैठे वृद्ध-से व्यक्ति पर नज़र पड़ी, तो लगा वे जाने-पहचाने-से हैं. तभी याद आया कि किसी ज़माने में वे हमारे दफ़्तर में ही काम किया करते थे और बाद में उनका तबादला कहीं और हो गया था. सामान्य अभिवादन के बाद मैं उनसे पूछने लगा, ‘‘आप तो बड़े दिनों बाद दिखाई दिए?’’

‘‘हाँ, अब तो रिटायर हुए भी पाँच साल होने वाले हैं.’’ वे बोले.

‘‘हाँ, रिटायर तो सबको ही होना है एक-न-एक दिन. किसी दिन हम भी हो जाएंगे.’’ मैंने उदास-सी आवाज़ में कहा.

‘‘अभी तो आप होंगे पचास से कम के?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘हाँ, उन्चासवाँ चल रहा है.’’

‘‘अरे, अभी तो आप बहुत जवान हैं.’’ कहते हुए वे सीट से उठ खड़े हुए. शायद उनका स्टॉप आ गया था.

पर मेरे मन पर बिछी उदासी की परत घुलने लगी थी.

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परत-दर-परत

शाम को दफ़्तर से घर जाने के लिए मेट्रो में सवार हुआ, तो भीड़ हर रोज़ की तरह थी. सीट तो कोई भी खाली नहीं थी. बहुत से यात्री खड़े होकर सफ़र कर रहे थे. मैं दरवाज़े के पास बने मोड़ पर टिककर यात्रा करने लगा.

तभी मेरी नज़र पास ही खड़े एक नवयुवक पर पड़ी. जींस के साथ बगैर बॉह का टी शर्ट नुमा-सा कुछ उसने पहन रखा था. टी शर्ट नुमा का कॉलर खड़ा किया हुआ था. उसके एक कान में इयररिंग थी. पैरों में उसने चप्पलें पहनी हुई थीं. कानों पर हेडफोन लगाए वह अपने हाथ में पकड़े मोबाइल फोन से विदेशी धुन वाले गाने सुन रहा था. साथ ही वह अपने हाथों और पैरों से ताल भी देता जा रहा था. कभी-कभी गीत का कोई शब्द उसके होठों से भी फूट पड़ता. हेडफोन की आवाज़ काफी तेज़ रही होगी. तभी तो संगीत का धीमा-धीमा स्वर मुझे भी सुनाई दे रहा था.

सच पूछिए तो इस तरह संगीत सुनना और उसका प्रदर्शन करना मुझे कतई अच्छा नहीं लगता. नवयुवक के इस तरह संगीत सुनने और उसकी वेशभूषा देखकर मेरे मन में उसके लिए एक अजीब तरह की वितृष्णा-सी पैदा होने लगी थी.

तभी उस नवयुवक ने संगीत बन्द करके बातचीत करनी शुरू कर दी. बगैर मोबाइल को कान-मुँह से सटाए, दूर-दूर से बात करना मुझे किसी पागल का प्रलाप करने जैसा लगता है. पहले फोन पर बात ख़त्म हुई ही थी कि नवयुवक ने जेब में हाथ डालकर दूसरा मोबाइल फोन निकाल लिया. उस पर कोई और फोन आया था.

यह सब देखकर मेरी वितृष्णा और बढ़ने लगी.

तभी अचानक उस लड़के ने मुझे संबोधित करके कहा, ‘‘अंकल जी, बैठिए. सीट खाली हो गई है.’’

लपककर उस खाली सीट पर बैठते-बैठते मुझे ख़याल आया कि वह नवयुवक अगर चाहता तो मेरी परवाह किए बगैर बड़े आराम से उस सीट पर बैठ सकता था. मेरे मन में उसके लिए पैदा हुआ वितृष्णा का भाव एकाएक गायब हो गया.

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प्रेरणा

बहुत दिनों से कोई रचना कहीं छप नहीं पा रही थी. या तो रचनाएँ वापिस आ जातीं या फिर कोई जवाब ही न आता. मैं बड़ा परेशान और निराश-सा महसूस करने लगा था. लगने लगा था कि कोई और रचना लिख ही नहीं पाऊँगा अब. इसी उधेड़बुन में लगे-लगे एक इतवार की सुबह अपने पुराने काग़ज़-पत्र देख रहा था कि पास ही खड़ी मेरी बेटी की नज़र एक मोटी-सी फाइल पर पड़ी. उत्सुकतावश वह पूछने लगी, ‘‘इसमें क्या है पापा?’’

‘‘इसमें मेरी छपी हुई रचनाओं की एक-एक कॉपी है.’’ मैंने जवाब दिया था.

‘‘इतनी सारी रचनाएँ छप चुकी हैं आपकी? वाह पापा, आप तो बड़े ‘ग्रेट’ हो?’ मेरी बेटी ने प्रशंसात्मक नज़रों से मेरी ओर देखते हुए कहा.

बेटी के इन शब्दों का मुझ पर न जाने क्या जादू हुआ कि मेरा सारा तनाव घुल गया. मैं उत्साहपूर्वक उठा और नई रचनाएँ लिखने की तैयारी में जुट गया.

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धन्यवाद ज्ञापन

मैं बेहद परेशान था. कुछ ही देर पहले मेरी छोटी बहन का फोन आया था कि उसकी बेटी का रिश्ता तय हो गया है और पन्द्रह दिन बाद की शादी की तारीख़ निकली है. माँ-बाप के गुज़र जाने के बाद भान्जी की शादी में भात वगैरह देने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी. यह सोच-सोचकर ही मेरा ख़ून सूख रहा था कि इतना खर्च मैं कैसे उठा जाऊँगा. इसी तनाव के वशीभूत पत्नी से भी झगड़ बैठा था कि उसे घर चलाने का शऊर नहीं है; वह मेरी सारी तनख़्वाह खर्च कर डालती है; और कुछ बचत नहीं होने देती.

तभी मेरी पत्नी ने भेद-भरे स्वर में मुझसे कहा, ‘‘आप चिन्ता मत करिए. मैंने हर महीने थोड़ा-थोड़ा बचाकर पैसा इकट्ठा किया हुआ है. पचासेक हज़ार तो होंगे ही. इनसे काम चल जाएगा.’’

मैं एकाएक हल्का हो आया था मानो सिर पर अचानक आई भारी मुसीबत टल गई हो, मगर तभी मेरा पारा फिर चढ़ने लगा था. ग़ुस्से से भरकर मैं पत्नी पर चिल्लाने लगा, ‘‘हर महीने मुझसे छुपाकर पैसे बचाती रही! कितनी बड़ी धोखेबाज़ हो तुम!’’

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वजह

दफ़्तर के कॉरीडोर में मेरे आगे-आगे रामदीन चल रहा था. कुछ महीने पहले यही रामदीन मेरा चपरासी हुआ करता था. उसके खिलाफ़ कुछ शिकायतें आने पर मैंने प्रशासन वालों को लिख दिया था कि उसे मेरे यहाँ से हटा दिया जाए. फिर रामदीन के बदले सेवकराम बतौर मेरा चपरासी आ गया था.

मुझे कुछ जल्दी थी, पर रामदीन बड़े आराम-आराम से चल रहा था. मुझे लग रहा था कि उसे इस बात का बोध है कि मैं उसके पीछे हूँ और वह नाराज़गी व अकड़ के मारे मुझे रास्ता नहीं दे रहा.

एकबारगी तो मेरे मन में आया कि रामदीन को रास्ता देने की बात कहते हुए उसके पास से आगे निकल जाऊँ, पर ऐसा करने के लिए मेरा दिल नहीं माना और मैं रामदीन के पीछे-पीछे ही चलता रहा.

तभी अचानक रामदीन एक तरफ़ हटकर चलने लगा और अपनी रफ़्तार भी उसने धीमी कर दी. अब मैं आराम से उसके पास से निकलकर आगे जा सकता था. मैं रामदीन के मुझे रास्ता देने की वजह जान गया था. दरअसल बन्दरों के आतंक से निबटने के प्रयासों में कॉरीडोर में सीढ़ियों के पास कुछ दिनों पहले एक दरवाज़ा लगा दिया गया था. अगर रामदीन मेरे आगे चलता रहता, तो जब वह दरवाज़ा खोलता तो मैं भी उस खुले दरवाज़े से निकल जाता, मगर रामदीन तो मुझसे बहुत नाराज़ था. वह मेरे लिए दरवाज़ा कहाँ खोलना चाहता था.

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वास्तविकता

चार्टेड बस जब तक लड़की के स्टॉप तक पहुँचती, हमेशा भर चुकी होती. एक घंटे से भी अधिक लम्बा सफ़र खड़े-खड़े यात्रा करके पूरा करना लड़की को बहुत मुश्किल लगता. इसलिए कोई यात्री उसे एडजस्ट करके अपने साथ बिठा लेने की पेशकश करता तो वह झट से मान जाती.

लड़की देख रही थी कि पिछले कुछ दिनों से ऐसी पेशकश अधेड़-सा दिखनेवाला एक आदमी कर रहा था. लड़की ने एक और बात नोट की थी कि वह सिर्फ़ उसे ही अपने साथ बैठने के लिए कहता था, किसी और को नहीं. लड़की जानती थी कि सीट एडजस्ट करने का प्रयोजन पुरुष यात्रियों के लिए क्या होता है, पर उसकी अपनी भी मजबूरी थी.

आख़िर एक दिन लड़की ने अधेड़ से यह पूछ ही लिया, ‘‘अंकल, आप सिर्फ़ मुझे ही क्यों अपनी सीट पर एडजस्ट होने के लिए कहते हैं?’’

अधेड़ कुछ पल चुप रहा. फिर कहने लगा, ‘‘पिछले साल मेरी बेटी एक एक्सीडेंट में चल बसी थी. वह भी तुम्हारी तरह नौकरी करती थी. तुम्हें साथ बिठाकर मुझे लगता है जैसे मेरी बेटी साथ बैठी हो.’’ कहते-कहते उस अधेड़ का गला रुंध गया.

लड़की सन्न-सी बैठी थी.

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मुस्कान

शाम का अंधेरा घिरने लगा था, पर मोहनलाल की रेहड़ी पर सजे फल कुछ ज़्यादा बिक नहीं पाए थे. न जाने आज क्या बात थी कि बिक्री बहुत कम हो रही थी. मोहनलाल ने अपना मुनाफा कुछ कम करते हुए कम रेट पर भी फल बेचने चाहे थे, पर इससे भी कुछ ख़ास फायदा हुआ नहीं था.

आज सुबह तो वह घर से निकला भी कुछ पहले था, ताकि कुछ ज़्यादा कमाई हो सके. आज उसके बेटे, विक्की, का जन्मदिन जो था. घर से निकलते समय उसने विक्की से वादा किया था कि वह शाम को कुछ जल्दी वापिस आ जाएगा और फिर उसे बाज़ार ले जाकर उसका मनपसंद खिलौना खरीद देगा.

शाम रात में तब्दील होने लगी थी, पर वह अभी अपनी रेहड़ी के साथ बाज़ार में ही था. हर आते-जाते आदमी को आशाभरी निगाह से देखते हुए वह जब-तब ऊँची आवाज़ में फलों के कम रेट बोलने लगता.

विक्की के खिलौने के लिए तो क्या, आज तो घरखर्च के लायक कमाई होना भी उसे मुश्किल लग रहा था. उसके दिमाग़ में यही बात बार-बार आ रही थी कि विक्की उसकी राह देख रहा होगा, इसलिए अब घर वापिस चला जाए. वैसे भी बाज़ार में लोगों की आवाजाही कम होने लगी थी, इसलिए अब और बिक्री होने की उम्मीद ज़्यादा नहीं थी.

तभी एक आदमी अपने छोटे बच्चे के साथ उसकी रेहड़ी के पास से गुज़रा. रेहड़ी पर सजे अंगूरों को देखकर उसका बच्चा अंगूर ले देने की ज़िद करने लगा. वह आदमी मोहनलाल की रेहड़ी से कुछ कदम आगे बढ़ गया था, पर बच्चे के अंगूरों के लिए लगातार मचलने के कारण उसे रेहड़ी तक वापिस आना पड़ा.

मोहनलाल का अंगूरों के लिए बताया रेट उस आदमी के लिए बहुत ज़्यादा था - यह उसकी शक्ल से ही लग रहा था. रेट पूछकर जैसे ही उस आदमी ने मचलते बच्चे की उँगली थामे हुए अपने कदम आगे बढ़ाए, मोहनलाल ने लपककर अंगूरों का एक बड़ा-सा गुच्छा उस बच्चे को थमा दिया. अंगूर हाथ में आते ही बच्चा मुस्कुराने लगा.

अब मोहनलाल को इस बात का संतोष था कि जन्मदिन पर विक्की न सही, पर किसी और बच्चे के चेहरे पर तो मुस्कान ला सका वह.

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