Barsat ki ek Raat in Hindi Travel stories by Medha Jha books and stories PDF | बरसात की एक रात

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बरसात की एक रात

बरसात की एक रात

'हरी हरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन
कि जिसपे बादलो की पालकी उड़ा रहा पवन
दिशाएं देखो रंग भरी, चमक रहीं उमंग भरी
ये किसने फूल फूल पे किया श्रृंगार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार.........

प्रकृति की अद्भुत सुंदरता में डूबी वसुधा के होठों पर स्वत: यह गीत आने लगे। सावन के महीने में यह पर्वतीय प्रदेश अपने सुंदरतम रूप में होता है।काठगोदाम से उसकी कार बढ़ रही थी बिनसर की तरफ।अचानक बादलों के पीछे से इन्द्रधनुष उभरता देख कर दैवीय आभा से दमकते भीमताल में कुछ देर के लिए वह रुक गई थी। ढेर सारे फोटो लिए थे उसने वहां के प्रसिद्ध ताल के सामने। तभी वहां के हर दुकान में गर्म गर्म छनते आलू गुटके और पकौड़ियों ने उसका ध्यान आकर्षित किया। वहीं एक दुकान पर वह उतर गई और दो प्लेट आलू गुटके,चने और पकौड़ी ऑर्डर किया अपने और महिंद्रा के सहयोगी ड्राइवर हरीश के लिए। आलू गुटके के साथ दिए रायता ने तो मुंह का जायका ही बदल दिया उसका। अपने को रोक नहीं सकी वसुधा पूछने से उसे बनाने का तरीका। दही में पीस कर मिलाएं गए कच्चे सरसों और हल्दी को मिलाकर तैयार रायता हर पहाड़ी की पहली पसंद होती है। पेट भर गया था उसका , पर दिल नहीं।

पूरे दिन खूब बारिश हुई थी। कुहासा सा दिख रहा था गाड़ी के आगे। अब हल्की बूंदा - बांदी हो रही थी। अभी करीब 3 घंटे की यात्रा बाकी थी। छुट्टियों के बाद अपने कार्यस्थल लौट रही थी वो। पहला ही साल था उसका यहां काम करते हुए तो हर मौसम से प्रथम परिचय ही हो रहा था। और आज तो उसका साक्षात्कार ही हो गया था प्रकृति के इस अद्भुत सौंदर्य से।गाड़ी में बैठे हुए लग रहा था उसे, वो छू सकती है बादलों को। पहली बार देखा था उसने बादलों को उतरते हुए नभ से। आश्चर्य से आंखें फैल रही थी इस अप्रतिम सौंदर्य को देख कर मैदानी इलाके से आई बसुधा की। संध्या सुंदरी अपने मनोरम रूप में थी। अगल बगल के दृश्यों में आकंठ डूबी वह आत्मसात करती जा रही थी इन हवाओं को अपने अंदर।

भवाली के मनोरम वादियों से गुजरती हुई महिंद्रा की स्कॉर्पियो अब थोड़ी धीमी गति से चल रही थी।यह वही जगह थी जिसने मशहूर फिल्मकार बिमल रॉय को इस कदर मंत्र मुग्ध किया था कि पूरी शूटिंग टीम उठाकर वो भवाली आए थे अपनी सर्वकालिक फिल्म मधुमति की शूटिंग के लिए। दोनों तरफ खड़े घने चीड़ देवदार के वृक्षों से दिन में ही हल्का अंधेरा छा रहा था , ऊपर से धीमी पड़ती फुहारें, सच में स्वर्ग यही तो है । और सब तरफ इक्के दुक्के दिखते निष्कपट पहाड़ी लोग, क्या देवता ही निवास करते हैं इस देव भूमि में? सोच ही रही थी वसुधा कि एक सुंदर सा विशाल मंदिर जैसा कुछ दिखाई देने लगा कुछ देर बाद। हतप्रभ रह गई वो, सच में ईश्वर को याद किया और वो स्वयं तो नहीं प्रकट हो गए दर्शन देने के लिए। तब तक हरीश बोला - ' प्रणाम कर लीजिए ,मैडम, यहां का प्रसिद्ध मंदिर कैंची धाम है। कभी समय निकाल कर दर्शन कीजिएगा।' बाहर से ही प्रणाम करके कुछ क्षण खड़ी रह गई वो वहीं। मेघों द्वारा समृद्ध किए गए जल राशि को लेकर ऊंचे पहाड़ों से पूर्ण वेग से निर्झर प्रवाहित हो रहा था वहीं और उसी जल से सैलानी हाथ मुंह धो रहे थे सामने के छोटे से चाय की दुकान पर बने वाश बेसिन में।एक कप चाय की तलब उसे भी महसूस हुई। हरीश भी चाय पीना चाहता था। शाम होने वाली थी पर अभी थोड़ा उजाला था। अब थोड़े तनाव में आने लगी, कितने दिनों से बंद है उसका कमरा। ज्यादा विलंब होने पर चंपा भी नहीं आएगी साफ करने को कमरा। अगले ही क्षण उसका ध्यान गया सामने कल -कल कर बहते स्फटिक की तरह चमकते नदी पर। लगा मायके में कोई अल्हड़ कन्या सावन की मस्ती में झूमते बह रही है बेखबर होकर सबसे।

हरीश की आवाज से तंद्रा टूटी उसकी - ' मैडम, हमलोग को देर हो रही है।'

गर्मपानी, खैरना सब को पार करते हुए अब अल्मोड़ा से गुजर रही थी कार उसकी। एक क्षण के लिए आंखें ठहर गई उसकी। शाम के धुंधलके में लग रहा था अचानक हजारों तारें झलमला उठे। सारे घरों में लाइट जल गई थी और गजब मनोरम दृश्य उपस्थित हो रहा था उसके समक्ष। कसार देवी से घुमावदार मोड़ आरंभ हो चुके थे।हरीश अपनी मस्ती में गुनगुना रहा था - ' नैनीताल की माधुरी.....', उसकी मस्ती भरी अपने में डूबी आवाज उस शाम को और हसीन बना रही थी। ये वही जगह है जहां से पर्वतराज हिमालय की चोटियां दिखाई देती है - पंचाचुली, त्रिशूल, नंदादेवी एवम् अन्य कई। एक तो बारिश का मौसम, ऊपर से अंधेरा घिरता हुआ, आज वह वंचित रह जाने वाली थी उस मनोरम दृश्य से। जितनी बार उसके समक्ष से गुजरती है प्रकृति की विशालता और मनुष्य की तुच्छता का एहसास होता है उसे।इस अप्रतिम विशालता के समक्ष मनुष्य कितना छोटा है शायद उसे खुद एहसास नहीं है।

जैसे-जैसे पहुंचने का समय नजदीक आ रहा था उसका मन भय ग्रस्त हो रहा था। अगले आधे घंटे में वह पहुंचने वाली थी अपने रिसोर्ट के समीप के निवास स्थान पर। अंधेरा पूरी तरह घिर चुका था। अचानक जोरों की बारिश प्रारंभ हो गई। अब कोई उम्मीद नहीं थी चंपा के आने की भी। पूरा दिन इतना सुंदर बीता था उसका और रात के लिए अब वह डरी जा रही थी। उसे अकेले हमेशा डर लगता था। कभी रही ही नहीं थी वह अकेले एक दिन भी। उसने अपने घर के साथ वाले घर में रहने वाले सहकर्मी की पत्नी को फोन लगाया। उनकी ट्रेन लेट थी और आधी रात में वह पहुंचने वाले थे शायद काठगोदाम। बीच-बीच में बिजली चमक जा रही थी।

पहुंच चुकी थी अब अपने निवास स्थल के सामने । प्रकृति ने भरपूर उदारता से बनाया था इस जगह को। अपना निवास स्थल हमेशा पसंद रहा उसे। अंदर घुसते ही एक अलग सी गर्माहट का एहसास होता उसे प्रत्येक दिन, रिजॉर्ट से लौट कर अपने कमरे में। लगता मां अपनी पूरी गर्माहट के साथ मौजूद हो उसके साथ उस घर में। हरीश ने गाड़ी रोकी और पूछा - 'कुछ चाहिए मैडम आपको? रिजॉर्ट से ला दूं, क्या?'

' नहीं, बस दरवाजे तक छोड़ दीजिए।'

घर से आ रही थी तो कुछ खाने का सामान था ही साथ में। पानी का एक 2 लीटर का बोतल था तो आज रात काम चल जायेगा। दरवाजे तक बुलाया उसने हरीश को, इस निपट सुनसान अकेले में दरवाजा भी खोलने में उसे डर लगता था। ताला खोलकर लाइट उसने जलाया। अब हरीश विदा लेकर निकल गया। डरते हुए कदमों से अंदर के कमरे की तरफ बढ़ी। सब तरफ लाइट जला कर, थोड़ा अच्छा महसूस कर रही थी वह। उसके कमरे ने उसी आत्मीयता से उसका स्वागत किया था। बिल्कुल सन्नाटा था आज उसके अगल बगल। शायद बगल वाले इंजीनियर भी नहीं थे। तो आज की रात आंखों में ही कटने वाली थी। मन को मजबूत किया‌ उसने, मन ही मन ईश्वर का ध्यान कर रही थी। घर से लाए सत्तू के पराठे को खाकर बिस्तर पर लेटी थी वह, प्रतीक्षारत थी निद्रा रानी के और नींद आ ही नहीं रही थी। पत्रिका निकाली थी उसने अपने साथ लाया हुआ। उम्मीद थी पढ़ते-पढ़ते नींद आ जाएगी और जब आंख खुलेगी तो सुबह का सूरज उसकी प्रतीक्षा में होगा। पूरी पत्रिका खत्म हो गई पर नींद नहीं आ रही थी डर के मारे। अब जम के बारिश हो रही थी। सरसराती हुई हवा के आवाज से लग रहा था शायद कोई खड़ा है दरवाजे के बाहर , कई बार लोहे की कुंडी बज भी उठती और उसका दिल बैठ जाता। समझाया उसने खुद को कि पूर्ण सुरक्षित है यह जगह और तभी लाइट कट गई। उछल कर डरते हुये बिस्तर पर उठ कर वह बैठ गई। तभी जोर से आवाज आई और चीख सी निकल गई उसकी। ‌बिजली गिरने की इतनी भयानक आवाज उसने कभी नहीं सुनी थी उसने आज तक। बिल्कुल बेबस महसूस कर रही थी वह। इतनी रात हो चुकी थी किसी को फोन भी नहीं वह कर सकती थी। तभी फोन की घंटी बजी।

उसके रिजॉर्ट के सहकर्मी का फोन था - ' आप डर तो नहीं रही हैं? पहाड़ों में बिजली गिरने पर बहुत भयानक आवाज होती है। आप यहां पहली बार है इस मौसम में। मुझे लगा कि आप डर रही होंगी। इसलिए फोन किया। हरीश ने बताया कि काफी लेट हो गया था आपको। डरें नहीं कोई दिक्कत होगी तो हम लोग अगल-बगल ही हैं। रिसोर्ट में एक फोन कीजिएगा , गार्ड चला आएगा।'

सुकून सा मिला उसे । मन अचानक शांत हो गया उस फोन कॉल के बाद । तब तक मोमबत्ती भी ढूंढ चुकी थी अंधेरे में वह। बरसात की उस अंधेरी रात में भी मोमबत्ती के मद्धिम प्रकाश में आराम से गहरी निद्रा में सोई वह। आश्वासन पाकर भय कहीं विलीन हो गया था और रजाई की गर्माहट में आंखें कब मूंद गई पता ही नहीं चला उसे।