दादी की स्वर्ग यात्रा
अक्सर दादी हमें अपनी जवानी की पारिवारिक स्थिति के बारे में बताती रहती थीं । दादी बताती थी कि जब उनकी शादी हुई थी , तब दादी घर में अकेली औरत थी । उनकी सास, उनकी शादी से पहले ही स्वर्ग सिधार गई थीं। धीरे-धीरे परिवार बढ़ा , तो चारों ओर खुशहाली छा गयी थी । प्रेम और परिश्रम से परिवार उन्नति की राह पर चल पड़ा था ।
दादी का परिवार, जन-धन, मान-सम्मान हर दृष्टि से विकास की तरफ बढ़ रहा था । मगर परिवार में यह खुशहाली अधिक दिनों तक ना रह सकी, छः-सात बरस बाद ही एक के बाद एक, विपत्तियों का तूफान-सा आता चला गया। हमारे दादा जी के छोटे भाई देवीसिंह को उनके ही बैल ने टक्कर मार दी। टक्कर इतनी घातक लगी कि बैल का सींग उनकी जांघ में घुस गया। उस समय चिकित्सकों का अभाव था, पर्याप्त उपचार न मिलने के कारण सैप्टिक बन गई और बीस वर्ष की आयु में ही उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों पश्चात ही हमारे दादा जी की भी मृत्यु हो गई। दादी के तीन बच्चे थे, एक बेटी और दो बेटे, सबसे बड़ी एक बेटी थी, जिसका नाम अशर्फी था। अपने पिता की मृत्यु के कुछ समय पश्चात, दादी का छोटा बेटा भी काल ग्रस्त हो गया। परिवार के सिर से अभी काले बादलों का साया हटा नहीं था। अधिक दिन चैन से नहीं रह पाये थे कि एक दिन दादी की बेटी अर्थात हमारे पिताजी की बड़ी बहन, अपनी बारह वर्ष की आयु में ही काल के गाल में समा गई ।
कुछ वर्षों के अंतराल में ही एक के बाद एक, घर में चार प्राणियों की असमय मृत्यु का होना--------- कितना असहाय कष्ट था। एक के बाद एक सदमा झेलते-झेलते परिवार टूट चुका था। परिवार की स्थिति हर तरह से बिगड़ती जा रही थी। अब परिवार में एक औरत, एक बालक और एक वृद्ध अर्थात मेरे परदादा जी, तीन ही प्राणी बचे थे, लेकिन तीनों ही परिवार की जिम्मेदारी संभालने में असमर्थ थे। हालांकि मेरे परदादा जी गांव के एक बड़े जमींदार थे। बुढ़ापे में, जिस आदमी के दो जवान बेटे और दो पोती-पोते, उनके सामने ही चल बसें, और बुढ़ापे में फिर से परिवार की सारी जिम्मेदारी का सिर पर आ जाना, उस आदमी के दिल का दर्द बयां करना असंभव है। अब मेरी दादी और पिताजी के ऊपर मेरे परदादा जी का ही साया बचा था लेकिन वह साया भी उन्हें अधिक समय तक नहीं मिल पाया। बुढ़ापे का शरीर, परिवार की जिम्मेदारी, सदमाओं का अम्बार, स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था। शीघ्र ही वह दिन भी आ ही गया, कि पिताजी के सिर से अपने बाबा जी का सहारा भी भगवान ने छीन लिया। दादी के ऊपर युवावस्था में ही मुसीबतों का एक बहुत बड़ा पहाड़ टूट पड़ा था। सिर पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गईं। इतने बड़े परिवार में दादी और पिताजी दोनों ही रह गए थे । एक बालक और एक विधवा औरत ! अब दोनों मां-बेटों ने एक दूसरे के सहारे ही अपना समय बिताया।
दादी की उस दर्द भरी कहानी को सुनकर मैं तो सिहर उठता था । अपनी जवानी के उन दर्दनांक लम्हों को याद आते ही दादी का गला रुंधने लगता था और आंखें भर आती थीं। मैं कांपते हुए से स्वर में, दादी से कहता था -
दादी , अब तो आप खुश हैं न ?"
दादी भर्राए हुए स्वर में बोलीं" -
"एक लंबे अरसे के बाद अब मैं अपने पुराने गमों को भुला पायी हूं। जब मैंने उपवन-रूपी अपने परिवार में, तरह-तरह के फुलों के रूप में तुम सबको खिलते-खिलाते देखा है" ।
दादी पूरे परिवार को बहुत प्यार करती थीं और हम तो सब उनकी आंखों के तारे थे। वह बहुत सज्जन, भोली-भाली एक शान्तिप्रिय महिला थीं, वह कभी किसी से लड़ी-झगड़ीं नहीं।
एक बार दादी बीमार पड़ गयी । महीनों तक बिस्तर नहीं छोड़ सकी थीं। अनेक डॉक्टरों को दिखाया गया , लेकिन किसी की दवाई से स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल रहा था। सबसे ज्यादा बुरा हाल तो पिताजी का हो रहा था। वे सदा मात्र भक्ति में सराबोर रहते थे। अपनी मां को तनिक भी दुखी नहीं देख सकते थे। मां के लिए सारी दुनिया को छोड़ने के लिए तैयार रहते थे।
दादी के बिगड़ते स्वास्थ्य को देखकर सभी लोग दुखी थे। दादी को देखने के लिए रिश्तेदारों का भी आना-जाना लग रहा था। एक दिन दादी की सांसे थम गई, घर में हाहाकार मच गया। पूरा गांव, घर पर इकट्ठा हो गया, सभी की आंखें नम थीं। घरवालों का तो रो-रो कर बुरा हाल हो गया था। कुछ ही देर बाद गांव के लोग अंतिम संस्कार की तैयारी में लग गए, कफन-काठी आ गई, फिर लोगों ने तुरंत काठी तैयार कर दी। महिलाओं ने दादी को नहलाकर कपड़े पहनाए और काठी पर लिटा दिया। दादी के ऊपर कफन डालकर मैं दादी के सिर के पास बैठकर कफन को ढक रहा था कि अचानक ही दादी के मुंह से एक हल्की सी आह भरी आवाज मेरे कानों में सुनाई दी। तुरंत ही मैंने दादी के मुंह से कफन हटाया और दादी की नाक पर हाथ लगाकर देखा तो दादी की नाक से हल्की-हल्की सांस की गर्मी आती हुई महसूस हो रही थी । मैंने खुशी से चिल्लाकर कहा-
"पिता जी ! दादी जिन्दा है । देखो , दादी कराह रही हैं!"
मेरी बात का किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। सभी लोग कह रहे थे कि -
" दादी के मोह में याकू ऐसौ लग रह्यौ है। यू सब तौ या के मन कौ बहम है बस ! मरने के बाद कोई आज तक वापिस लौट कै आयौ है का ?"
लेकिन मेरे तो कानों में अब भी दादी की आह गूंज रही थी । मैंने तुरंत ही दादी के शरीर से कफन को हटा दिया। कफन हटते ही लोग दादी की नबज-नाड़ी देखने लगे। मैंने भी दादी की नाक पर अपना गाल लगाकर देखा, तो मुझे, सांस की गर्मी का आभास हुआ। नाड़ी देखने वालों ने भी कहा -
"हां, नबज भी बहौत मंदी-मंदी चलती हुई महसूस तौ हो रही है।"
दादी की सांस और नब्ज चलती देखकर दादी को काठी से उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया गया और कफन-काठी सब उठाकर अलग छुपा दिया। फिर कोई दादी के पैरों की मालिश करने लगा तो कोई हाथों की, मैं भी दादी के सीने को हल्का-हल्का सहलाने लगा। दादी की नाड़ी और सांसो में निरंतर सुधार होता जा रहा था।
लगभग आधे घंटे बाद दादी की चेतना पूर्ण रूप से लौट आई। दादी ने आंखें खोलीं और भीड़ को देखकर, बोली-
"ये इतने आदमी कैसे इकट्टे हो रहे हैं? यहां क्या हो गया जो यह सब आदमी आए हुए हैं?"
दादी को बताया कि यह सब आपको देखने के लिए आए हैं। फिर तो दादी अपनी बात बताते हुए बोली-
"पता नहीं, वह कौन सी जगह थी"? और कैसे मैं वहां पहुंची? यह तो मुझे अब तक भी कुछ याद नहीं आ रहा है। वहां जाकर मैंने देखा, कि मेरी बेटी अशर्फी नए कपड़े पहन कर वहां खेलती डोल रही थी। उसने भी मुझे देख लिया और फिर वह खुशी से चिल्लायी -
"अरी मां ! -------- दौड़कर मेरे पास आई और बोली - मां तुम भी आ गईं। कब आयी थीं तुम?
"हां बेटी मैं भी आ गई, बस मैं अभी आयी हूं। हम दोनों मां बेटी एक दूसरे से मिलकर बहुत खुश हुए, इतने दिन बाद मेरी बेटी मुझे मिली थी। मैंने उसे अपने सीने से लगा कर खूब प्यार किया। तभी दूसरी तरफ से मेरे कानों में एक आवाज आई, अरी मां------- तुम यहां !
"मैंने उधर नजर उठा कर देखा कि जानकी बैठी चक्की पीस रही है। वह वही जानकी, चेता चमार की बहू , जो यहां हमारा आटा पीसती थी। वह भागकर मेरे पास आई और मेरे पांव पड़ती हुई बोली -
"मां तुम य्हां कब आयी हीं, मैंने तो तुम अभहई देखी हौ। मैं तौ तुमै याद करती रहबै ही कै अब मां कौ" चून कौन पीसती होयगी।"
वह मुझसे मिलकर बहुत खुश हुई। वह यहां भी मुझसे बहुत खुश रहती थी। बिना कहे ही वह मेरे और भी बहुत सारे काम कर जाती थी, क्योंकि मैं उसे पिसाई का सबसे ज्यादा आटा देती थी। इसके अलावा और भी बहुत सारी चीजें, दाल, चावल, कपड़े आदि उसे देती रहती थी। मैं उससे बोली- अरी जानकी, तुझे यहां भी चक्की ही पीसने को मिली है। जानकी बोली, हां मां, मुझे यहां भी चक्की ही पीसने को मिली है। मेरी बेटी ने मुझसे पूछा कि मां तुम इन्हें जानती हो क्या? मैंने कहा, हां मैं इसे जानती हूं, यह जानकी है, जो हमारा आटा पीसती थी। मैं और मेरी बेटी, जानकी से बात करते हुए थोड़ा आगे बढ़े तो देखा कि तुम्हारे दादा जी खाट पर बैठे हुए कुछ लोगों के साथ हुक्का पी रहे थे। इतने में वहां एक साधु आया। साधु के एक लंबी, सफेद रंग की दाढ़ी लटक रही थी। वह मुझे देखते ही बोला - अरे इसे कौन लेकर आया है यहां। किसने कहा था, इसे यहां लाने के लिए? चल यहां से, तू यहां कैसे आ गई? यह कहते हुए, उस साधु ने मुझे एक बड़ा जोरदार धक्का मारा।"
" अचानक धक्का लगते ही मुझे ऐसा लगा कि मैं आसमान से नीचे गिर गई हूं। मुझे नीचे गिरने से चोट लगने का आभास हुआ, जिसके कारण मेरे मुंह से एक दर्द भरी आह निकल पड़ी। अब आंखें खुलीं, तो देखा कि मैं तो अपने घर में ही खाट पर लेटी हुई हूं। मुझे अब ध्यान आ रहा है कि अशर्फी उन्हीं नए कपड़ों को पहने हुए थी, जो उसके मरने के बाद उसे पहनाये थे। इसके बाद तो दादी ने हम सबके साथ वृद्धावस्था तक अपना लंबा जीवन जीया।